Site icon Youth Ki Awaaz

“आर्गेनिक कृषि हमारे पारिस्थितिकी तंत्र एवं परंपरागत कृषि के लिए चुनौती”

आर्गेनिक कृषि हमारे पारिस्थितिकी तंत्र एवं परंपरागत कृषि के लिए चुनौती

 

फैशन में आने के वजह से आज.कल आर्गेनिक फ़ूड का चलन काफी बढ़ गया है, ऐसे फल, सब्ज़ियां,अनाज, डेयरी उत्पाद और मांस जिन को गैर-पारम्परिक तरीके से उगाया और तैयार किया जाता है, इन्हें ही आर्गेनिक फ़ूड कहते हैं जो कीमत में महंगे होने के साथ-साथ सेहत और क्वालिटी में बेहतर होने का दावा भी करते हैं।

ये जैविक खाद्य उत्पाद हमारे लिए बेहतर हो सकते हैं, पर ये पर्यावरण के लिए बेहतर नहीं हैं। ये कहना है चाल्मर्स यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी, स्वीडन, के स्टीफन विर्सनियस जिन के अनुसार एक अध्ययन से पता चलता है कि स्वीडन में खेती की जाने वाली जैविक मटर में पारंपरिक रूप से खेती की गई मटर की तुलना में लगभग 50 प्रतिशत बड़ा जलवायु प्रभाव देखा गया है। इसी को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी कृषि विभाग ने ऑर्गेनिक उत्पादों के प्रमाणीकरण के लिए कुछ मानदंड तैयार किये हैं, जो इस बात तो जांचेंगे कि उत्पाद को किस तरीके से उगाया गया है।

आर्गेनिक फसलों से पर्यावरण एवं परंपरागत कृषि को नुकसान

स्वास्थ्य लाभ को एक तरफ रखते हुए, शोधकर्ताओं के अनुसार पारंपरिक और जैविक खेती के उत्पादन में काफी बड़ा अंतर होता है। हर फसल की माप प्रति हेक्टेयर में उगे खाद्य पदार्थों से होती है,जो बिना खाद के ऊगाई गई जैविक फसल में पारंपरिक रूप से उगाए गए फसल से बहुत कम है।

और यह अनुमान अलग-अलग फसलों में अलग-अलग हो सकता है, जैसे- जैविक चावल, मक्का, और सोयाबीन की पैदावार पारंपरिक तौर से उगाए चावल, मक्का, और सोयाबीन, के बराबर हो सकती है ,लेकिन आर्गेनिक रूप से उगाए गए फलों और दूसरी फसलों में ये अंतर काफी बड़ा नज़र आता है ।

उदाहरण के लिए पारम्परिक गेहूं और आर्गेनिक गेहूं में प्रति हेक्टेयर उत्पादन अन्तर 70% तक हो सकता है, इसी लिए पारंपरिक रूप से उगाए गए खाद्य पदार्थों की समान मात्रा का उत्पादन करने के लिए, जैविक की खेती करने वाले किसानों को अधिक भूमि और संसाधनों की आवश्यकता होती है।

एक अनुमान के मुताबिक जैविक को पारम्परिक खेती के मुकाबले पांच गुना ज़्यादा ज़मीन की ज़रुरत पड़ती है, और दोनों तरह की खेती के तरीकों में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि इसी बात पर निर्भर करती है कि कितनी बड़ी जमीन पर फसल की बुआई हुई है।

द गार्जियन की एक रिपोर्ट के अनुसार

द गार्जियन के लिए लिखे अपने लेख में, वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के मृदा वैज्ञानिक, जॉन रेगनॉल्ड, बताते हैं की “यूं तो ये खेती का बेहतर तरीका है, लेकिन समस्या तब होती है जब जैविक खेती का अनुपात पारम्परिक तरीके की बुआई से ज़्यादा हो जाता है। जब हम इस अनुपात को एक सीमा से अधिक बढ़ा देते है , पर्यावरण की मुश्किल तब शुरू होती है।”

जिन में दो खास हैं, पहला इस से पारम्परिक के मुकाबले प्रति हेक्टेयर कम उत्पादन होता है जिस से विदेशी अनाज का आयात बढ़ जाता है ,जो पूरी तरह से जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है। दूसरा पारम्परिक के मुकाबले इस में अधिक पैदावार के लिए ज़्यादा ज़मीन की ज़रुरत पड़ती है, जिस के लिए जंगलों को साफ़ करना पड़ता है और ये अप्रत्यक्ष रूप से कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को बढ़ाता है,और ये दोनों ही वजहें जलवायु परिवर्तन के लिए अच्छी नहीं हैं । इसी वजह से ये पेड़ों के कटने और पर्यावरण को बर्बाद करने के लिए ज़िम्मेदार है।

 

Exit mobile version