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21वी सदी की आधुनिकता की चकाचौंध में खोते हमारे मानवीय मूल्य

21वी सदी की आधुनिकता की चकाचौंध में खोते हमारे मानवीय मूल्य

खामोशी ! यह  मानव जीवन की बहुत संगीन और दुर्लभ अभिव्यक्ति है। अक्सर हमारे वार्तालापों में खामोशी हार कर भी जीत जाती है। कितने मुद्दे हैं, जिन पर अब मैंने शांत रहना सीख लिया है, इसलिए नहीं कि मेरे अल्फाज़ कम पड़ गए इसलिए क्योंकि मैंने खामोशी का रुतबा समझ लिया है। फिर कभी ज़िन्दगी में कुछ ऐसे लम्हें आते हैं कि वह आपको अपनी सोच बयां करने पर विवश कर देते हैं। यह ऐसा ही एक वाकया है जो आपको सामान्य सा  लगेगा परन्तु है बहुत गंभीर।

किस्सा बकरा किस्तों का

कुछ अरसे पहले, मैं और मेरी एक जानने वाली अपने बचपने की बातें कर रहे थे। बात शुरू हुई थी दूरदर्शन से जो, चित्रहार से होते हुए मोगली को छूते हुए, बकरा किस्तों तक गई।

“बकरा किस्तों एकदम जुदा है, ना जाने मेरी कितनी बचपन को यादें छिपी हैं इसमें।” मैं यह कहकर, अपने बाल्यावस्था के दिनों में गोता लगाने को तैयार ही हुई थी कि मेरे ख्याली स्विमिंग पूल से पानी खींच लिया गया।

“हां, था तो बड़ा मज़ेदार लेकिन इन लोगों की भाषा मुझे घर नहीं ले जानी। मुसीबत है।”

मुझे पल भर लगा सामने वाले की सोच को समझने में, लेकिन अफसोस यह है कि जिसने यह कहा उसे इस बात की गहराई ही पता नहीं चली। वो तो हंसकर चली गई पर यह और इसके जैसे अनेक सवालों के दरवाज़े  मेरे ज़हन में खोल गई।

भाषाई असमानता के दलदल में फंसता हमारा समाज

हालांकि, यह पहली बार नहीं था कि मैंने किसी को इस तरह की बात बोलते सुना हो। हां, यह आखिरी बार भी नहीं होगा कि मैं किसी की सोच पर ऐसे आश्चर्य ज़ाहिर करूं। मुझे तो लगता था कि मुझे जितनी ज़्यादा भाषाओं का ज्ञान होगा, उतना मेरे लिए बेहतर होगा। मैं अक्सर सोचती हूं कि सिर्फ हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू का ही ज्ञान क्यों है मुझे? काश!  मैं बहुतेरी और अन्य भाषाओं का भी लुत्फ उठा सकती।

दूसरा और भी मेरा एक गहन सवाल यह कि लोग रंग, भाषा और खाने में भी असमानता कैसे खोज लेते हैं? एक दो बार मैंने इसके खिलाफ अपनी आवाज़ भी उठाई, लेकिन लोगों ने मेरी बात को समझा ही नहीं, अलबत्ता आंखों ही आंखों में तंज़ कसो। मैं भली-भांति वाकिफ हूं लोगों के उस नज़रिये से, आखिरकार मैं दो धारी तलवार पर जो चल रही हूं।

ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दे

मुझे शुरुआती दिनों में लगता था, “लोग मेरे बारे में ऐसा सोचते हैं?” झूठ नहीं बोलूंगी, दुःख होता था, क्योंकि मैं भी  इंसान हूं और जज़्बात रखती हूं। शायद इस बात से फर्क पड़ता था कि लोग मेरे बारे में ऐसा क्यों सोचते हैं? अब लगता है “लोग ऐसा क्यों सोचते हैं?” अब भी बुरा लगता है पर अपने लिए नहीं, उनके लिए। दिल ही दिल बुदबुदा लेती हूं, “ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दे।” बहुत कम लोग यह बात समझ पाते हैं कि भाषा का प्रान्त से भले ही जुड़ाव है, विशिष्टता नहीं। बहुत कम लोग यह बात समझ पाते हैं कि आपका वजूद और आपकी आवाज़, आपकी है, आपके मज़हब की नहीं। मुझे यह समझने में काफी वक्त लगा परन्तु यह समझ आ गया कि जब वो नहीं समझते, तो आप समझ जाते हैं कि लोगों से समझदारी की उम्मीद करना बेवकूफी है।

संयमित खामोशी के मायने

इस तरह आसान नहीं है, अपने आप पर संयम पाना। लोगों के शब्दों का प्रभाव, मानसिकता और सोच आपको बेकाबू कर देती है। अक्सर खून खौलता है और बात मुंह तक आ कर रुक जाती है, लेकिन किसी के अपमानजनक वाक्य के बाद के वो दो क्षण आपके लिए बहुत ही अहम होते हैं। अगर उस वक्त चुप्पी साध गए तो जीत आपकी, आपके वक्त की, आपकी जुबां की।

आप मुझे गलत मत समझिए। मैं कतई यह नहीं कहती कि दब जाओ, किसी के सामने घुटने टेक दो। किसी के सामने, अपने स्वच्छंद विचार रखना, सभ्यता से, आपका प्राथमिक हक है पर उम्र आपको बहुत कुछ महसूस करवा देती है और उन्हीं बड़ी सीख में से एक यह है कि दीवारों से सर नहीं फोड़ते। समझाओ उसे जहां सुधार की कोई गुंजाइश हो, वरना व्यर्थ में अपना दिमाग ज़ाया क्यों करना और अपने सब्र का इम्तहान क्यों लेना?

सोशल मीडिया पर पनपती नफरत की पौध

मैं खासतौर से अपनी युवा पीढ़ी से मायूस रहती हूं। अक्सर देखती हूं, इन्हे सोशल मीडिया और न्यूज़ चैनल पर वार्तालाप और बहस करते हुए। सोचती हूं, हम कहां जा रहे हैं? इतना अतिवादी नजरिया कैसे हो सकता है इन लोगों का? इतनी नफरत पनपती कैसे है? मेरा मानना है कि नफरत, किसी भी जाति विशेष या समुदाय के लिए, घर से आती है। परवरिश इन्सान के व्यक्तित्व में बहुत बड़ा योगदान देती है। बच्चे अपने परिजनों की सोच से पहचान रखते हुए, कब उसे ग्रहण कर लेते हैं? उन्हें पता ही नहीं चलता।

नफरत कभी एक रात में नहीं पनपती, सालों तक इसे दिल में सींचा जाता है, इसकी जड़ें गहराती हैं और फिर उस इंसान की बोली और हरकत में नकारात्मकता झलकने लगती है।

मुझे अफसोस यह है कि हमारे समाज का पढ़ा-लिखा वर्ग भी इस धारणा से अछूता नहीं है। वर्षों से मैंने सबसे खराब सांप्रदायिक टिप्पणियों को इस तथाकथित शिक्षित भीड़ से आते देखा है। दुःख है परंतु हैरानी नहीं क्योंकि सिर्फ शिक्षा आपको शिक्षित नहीं करती। आपकी समझदारी, नियत और सकारात्मकता आपको आप बनाती है।

आने वाली पीढ़ी ही है, उम्मीद की किरण

ताज़ा हालातों को देखते हुए, मैं अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए आशान्वित नहीं हूं। जो ज़हर ज़ुबान पर कम पड़ गया तो लोगों ने अब सोशल मीडिया के द्वारा तेज़ाब की छींटे मारनी शुरू कर दी हैं। सोचती हूं कि अपने बच्चों को इस मौहाल से कैसे बचाऊंगी? खैर, मुद्दे अभी और भी हैं पर आज के लिए इतना ही काफी है। वक्त बड़ा ताकतवर है, क्या पता आने वाली पीढ़ी अपनी सोच से कुछ अलग, कुछ बेहतर नज़रिया और लोगों में आपसी मोहब्बत ले आए। लेकिन उसकी मुहिम हम को ही करनी पड़ेगी, है ना?

समझदारी, इंसानियत और प्यार सब मौजूद है इस दुनिया में, काश यह सबको मयस्सर भी हो!

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