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“हमारी मौन स्वीकृति स्टेट ऑफ एक्सेप्शन को सरलीकृत और सामान्य करता है”

farmers protest 2020 in delhi on agriculture laws

अपवाद का राज्य अर्थात स्टेट ऑफ एक्सेप्शन। वर्तमान समय में जब विश्व एक फासीवादी लहर से गुज़र रहा है इसमें यह सिद्धांत राज्य के चरित्र  को समझने के लिए  बेहद अनिवार्य है। भारत की बीजेपी आरएसएस की फांसीवादी सरकार ने एक तरफ तो कई जन विरोधी कानूनों को पास किया। वहीं लोकतांत्रिक आवाज़ को दबाने के लिए कई दमनकारी कानूनों को आरोपित भी किया है।

भारत की जनता एक लम्बे समय से चुनावी लोकतंत्र के अंदर शासित होती आ  रही  है। जहां न केवल उन्हें उनकी बुनियादी मांगों के लिए संघर्ष करने के सारे अधिकार छीन लिया गए हैं, बल्कि उनकी चेतना में भी भय को डालने और पोषित करने का कार्य किया गया  है।

केंद्रीय सरकार का यूएपीए खेल

हाल के मामले में, हाथरस केस की छानबीन कर रहे पत्रकार कप्पन पर UAPA आरोपित किया गया है। वहीं शरजील इमाम को इसी कानून के अंदर गिरफ्तार किये हुए 1 साल से ज़्यादा हो चुके हैं।

परन्तु सबसे हालिया मामला गाज़ीपुर बॉर्डर से आया जहां किसान कानूनों का विरोध कर रहे किसान नेता राकेश टिकैत के ऊपर राज्य ने UAPA आरोपित किया है। तो ऐसे में यह बात भी उठाना लाज़िमी है कि ऐसे कानूनों के आधार को समझा जाए और राज्य के आर्थिक राजनीतिक आधार को कैसे मजबूत करता है।

एक ऐसी अवस्था जहां कानून का लोप हो जाता

जोर्जिओ अगम्बेन अपवाद के राज्य को  परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि यह कोई कानून की तरह नहीं होता है। अपितु ऐसी अवस्था जहां कानून का ही लोप हो जाता है। अर्थात राज्य का निर्णय किसी भी निरीक्षण या नियंत्रण के अंदर नहीं रहता है। इसके अलावा अन्य विद्वानों ने इसे न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र का समाप्त हो जाना बताया है।

एंग्लो सैक्सन जुरीसप्रूडेंस में इसे हठधर्मी आपात-काल के रूप में बताया गया। परन्तु इतिहास में जैसे-जैसे इसके उपयोग और लागू करने के तरीके का परीक्षण किया गया वह उसके असली चरित्र और स्पष्ट होता है। कैनन लॉ के अंदर यह स्पष्ट किया गया है कि स्टेट ऑफ एक्सेप्शन का प्रयोग राज्य व उसके अंदर की व्यवस्था तो पुनः उसी स्थान पर लाने हेतु इसका प्रयोग किया जाता है। इसका तात्पर्य अपवाद कानून लोकतंत्र की गतिशीलता , प्रगतिशील विकास को शक्ति द्वारा रोकता है।

फ्रांस के संविधान में स्टेट ऑफ सीज की चर्चा की गयी है। जिसमें राज्य को आपातकालीन परिस्थिति जैसे सशस्त्र विद्रोह, बाहरी आक्रमण में विशेष शक्तियां प्राप्त होंगी ताकि वह वर्तमान में स्थापित लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बनाये रख पाएं। परन्तु ऐसा नहीं हुआ इसकी अवहेलना नेपोलियन के समय से ही हुई और 1830 तक स्टेट ऑफ सीज को कई बार लोगों के विरोध और आवाज़ को कुचलने में किया जाता रहा।

इसके बाद से इसका इतिहास राज्य के निरंकुश चरित्र के अनुसार चलता रहा। 1933 में जब हिटलर द्वारा हिंडेनबर्ग को सत्ता से हटाया गया तब से लेकर अगले 12 सालों तक राज्य पूरे तरीके से तानाशाही के अधीन चला गया। जहां देश की वैधानिक विधायिका पूरी तरीके से निष्क्रिय पड़ी थी और अंधराष्ट्रवाद के अंदर अनेक पेओप्लेस सेफ्टी कानूनों के अंतर्गत अनेक यहूदियों को मार दिया गया। परन्तु यह अकेला जर्मनी ही नहीं था जो यह काम कर रहा था सभी पश्चिमी राष्ट्र इस काम को अपने देश में राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर करते आ रहे थे।

विश्व युद्ध के बाद के अपवाद और कानून

परन्तु विश्व युद्ध काल के बाद अपवाद राज्य की व्यापकता में और भी वृद्धि हुई और तब तक यह भी स्थापित हो चुका था कि कई बार देश की कार्यपालिका को त्वरित निर्णय लेने होते हैं और वह इस प्रकार के कानूनों को लागू कर सकती है। भारत के संविधान निर्माण  राज्य की एकता अखंडता को सुरक्षित बनाये रखने हेतु अनेक प्रकार के आपात काल के घोषणा के प्रावधान बनाए गए।

इसके कुछ समय बाद ही 1958 में आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट अर्थात अफ्स्पा को देश के अनेक क्षेत्रो विशेष कर उत्तर पूर्वी सभी राज्यों में इसे लागू किया गया। इस कानून में अर्धसैनिक बलों को लोगों को अपनी संज्ञान मारने , उन्हें गिरफ्तार करने, घरों में बिना वारंट लेने की स्वतंत्रता है।

टू मेन्टेन लॉ एंड आर्डर

अमीनेस्टी इंटरनेशनल और अन्य सूत्रों ने अपने रिपोर्ट में अनेकों लोगों के मारे जाने, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, लापता होने की रिपोर्ट प्रकाशित की है। संविधान निर्माण के दिन से ही यह सभी राज्य अपने राष्ट्रीयता की लड़ाई  लड़ रहे हैं।

जम्मू कश्मीर में राष्ट्रीयता के संघर्ष को यह कह के दबाया गया की यह राष्ट्र को बांटना चाहते हैं। जबकि वह स्वयं ही राष्ट्रीयता को स्वतंत्र करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

आपातकाल- अपवाद के राज्य का विउत्पन्न

राज्य के अंदर राष्ट्रपति शासन भारत के अंदर लगभग सामान्य हो चुका है। देश में चुनाव करना या राज्यों में अपनी सरकार  बनानी हो।आपात काल या राष्ट्रपति शासन को जितना सामान्य कर दिया गया है। जैसे स्वतंत्रता के अधिकार को हम बिना शर्त  बे-खबर होकर राज्य को सौंप आए  हों। राज्य पहले देश की एकता और अखंडता के लिए इसके अनिवार्यता को सिद्ध करता है। संवैधानिक सीमा की याद दिलाता है। उसके बाद आगे बढ़कर लोगों पर अत्याचार करते हुए अपनी सारी कार्यवाहियों को कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए किये गए प्रयास में डाल  देता है।

उन्होंने हमारे विवेक को पूरी तरीके से फ्रेम कर लिया है। जैसे उसके चौहद्दियों का निर्धारण कागज़ों में किया गया है।  हम लकीर मान लेते हैं। एस.आर बोमई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस, 1994 में अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्वीकार किया कि देश के अंदर बढ़ रहे राष्ट्रपति शासन के प्रयोग को राज्य का शासन अपनी कमियों को छुपाने और केंद्र अपने नियंत्रण में रखने हेतु लगातार प्रयोग कर रहा है। लोकप्रिय सम्प्रभुता का हवाला देते हुए कोर्ट ने बताया कि राज्य इसके लगातार प्रयोग द्वारा उसकी गरिमा को आच्छादित कर रहा है।

यह एक प्रक्रिया रही जिसके अंदर राज्य ने लोगों की सम्प्रभुता को छीन कर राज्य संरचना में सम्प्रभुता को समाहित कर दिया। जब केवल राज्यपाल के आदेश पर ऐसा राष्ट्रपति द्वारा किया जा सकता है और राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा ही की जानी है तो इसमें कोई संदेह की बात नहीं सत्ता पक्ष के निर्णय को लागू करने के लिए राज्य को पूरी तरीके से मजबूर किया जा सकता है।  तब ऐसे में सवाल उठता है कि क्या  राज्य के विवेक पर यकीं  करना चाहिए? मेरा मानना है बिलकुल नहीं! और यही वह स्थान है जहां हमारी मौन स्वीकृति स्टेट ऑफ एक्सेप्शन को सरलीकृत और सामान्य  करता है।

मानवाधिकार को सीमित करने हेतु अपवाद राज्य का प्रयोग

भारत के अंदर ऐसे कई कानून बने जिसमे देश के नागरिक के मानवाधिकार को राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर बनाया  गया है। विरोध भर करने को राजद्रोह, देशद्रोह अखंडता के लिए खतरा, एकता को चुनौती बता दिया जाता है। हाल के समय में, इंटरनेट शटडाउन हो गया है। कश्मीर में लगभग 2 सालों से इंटरनेट शटडाउन है।

देश में कश्मीर गुजरे ज़माने की बात हो गया। परन्तु इसके अलावा प्रत्येक प्रतिरोध प्रदर्शन के स्थान पर राज्य द्वारा जानबूझ कर इंटरनेट स्लो या बंद किया जाता है। ऐसे हालत में जब देश की सारी मीडियाहाउस आज किसानो की रैली और प्रदर्शन को जनता के विरुद्ध दिखा रही है। तब हमारे पास सारे माध्यमों  को छीना लिया जाता है तब ऐसे में क्या विकल्प बचता है ?

परन्तु  मामला यहां तक नहीं है। अपवाद राज्य हमारे सोचने समझने क्षमता को भी सीमित करता है। देश की ज्यादातर जनता नियम कानून को मानने वाली है उन्हें राज्य के करने पर भरोसा है। और यह भरोसा ही उनके विचारों को सीमित करता है। मार्क्स कहता है “डाउट एवरीथिंग”, जनतांत्रिक बने रहने के लिए आलोचनात्मक होना बेहद ज़रुरी है। और किसी भी प्रकार की एकता और अखंडता बिना आलोचना के थोपे हुए विचार के सामान हैं। थोपा हुआ विचार अगर हमारे लिए सामान्य है फिर हमे विश्व के बड़े लोकतंत्र पर गर्व करने से पहले खुद के विचारों को डेमोक्रेटिक करने पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

NIA के पास केस भर चले जाने से, सीबीआई की जांच के निर्देश दे दिए जाने से, सही लोकतान्त्रिक निर्णय आ जाने के बीच में एक बड़ा फासला होता है, जिसे राज्य पर अंधा भरोसा उनके निर्णय को किधर भी रुख करने को वैद्यता प्रदान करता है। न ही यह साबित होता है की इन संस्थाओं की स्थापना किन लोकतान्त्रिक मूल्यों को पूरा करने के लिए की गयी है।।अमेरिका में 2001 में सरकार द्वारा पेट्रियट एक्ट लाया गया। जिसका उद्देश्य केवल देश में हो रहे अमेरिकी अफगानिस्तान आक्रमण  के विरोधों को गैर कानूनी ठहराया जा सके।

किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को शक के आधार पर अटोर्नी जनरल द्वारा गिरफ्तार किया जा सकता है। उसके बाद यह कानून अमेरिका में भी सामान्यीकृत किया गया। ये कुछ उसी तरह राष्ट्रप्रेमियों निर्धारित करने जैसा है जैसे आज की भारतीय मीडिया लोगों के विरोध को करती है और राज्यद्रोह जैसे अपवाद राज्य का प्रयोग सामान्य हो जाता है।

अपवाद राज्य की अन्तराष्ट्रीयता

आज जब चारों तरफ नव उदारवादी विचार हावी है और दुनिया के लगभग सभी राज्य उसे पैरोकार है तब स्टेट ऑफ एक्सेप्शन की अंतर्राष्ट्रीयता सभी बड़े साम्राज्यवादियों के लिए बेहद जरुरी हो जाता है। वॉर ऑन टेरर  के नाम पर दुनिया के सभी साम्राज्यवादी ताकतों ने अपने चाटुकारों को अन्य देशो में नुमाईन्दे के तौर पर बिठा रखा है।

इसे निर्धारित करने के लिए जस्ट वॉर, जैसी परिकल्पनाओं को संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था द्वारा सामान्यीकृत किया गया।दुनिया के सारे सिविल वॉर को नव उदारवादी व्यवस्था के लिए खतरा समझा गया और बाजार के विस्तार को ध्यान में रख कर राजनितिक दबाव का अंतर्राष्ट्रीयकरण  किया गया। इसमें सबसे अग्रणी अमेरिका रहा जिसके रस्ते को आज भारत में बेहद सराहा जा रहा है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण मध्य एशिया है। जहां तेल व्यापार को बढ़ावा देने के लिए वहां के राज्यों के मध्य विवाद फैलाने के लिए असलाह और गोले अमेरिकी राज्य द्वारा दिए गए और उसके बाद आतंकवाद के नाम पर एंटी मुस्लिम प्रोपेगंडा को हवा देने का कार्य कर रहे हैं। अमेरिका का गुआंतानामो बे के पास बनाया गया डिटेंशन कैंप वॉर ऑन टेरर नाटक का एक बिंदु है जहां बिना ट्रायल के कैदियों को यातनाएं दी जाती हैं। दरअसल वह यातनागृह लोकतंत्र की हत्या लिए ही बनाया गया है। परन्तु इसके निहितार्थ में यह भी स्पष्ट है कि कुछ लोग ऐसे हैं जो मानव भी नहीं हैं। अमेरिका जो आज भी  राज्यों  अत्याचारी मानसिकता बड़ा थिंकटैंक है।

इसके द्वारा अपने वर्चस्वा को थोपकर अपने निहित आर्थिक स्वार्थ पूर्ति अन्य राष्ट्र के लोगों से करवा रहा है। नॉम चोम्स्की अपनी पुस्तक पावर एंड टेरर में लिखते हैं कि अगर हमे वास्तविकता में आतंक को समाप्त करना है तो सबसे पहले शक्तिशालियों का कमज़ोर पर से आतंक समाप्त करना होगा।

ऐसी भयानक परिस्थितियों में जब लोग विरोध करते हैं, अपनी समस्या को सुनाने का प्रयास करते हैं तब राज्य उन्हें सिविल वॉर का नाम देकर उसका दमन करती है। और अगले दिन कॉर्पोरेट दलाल बुर्जुआ मीडिया उन आन्दोलनों को देश के लिए खतरा, विकास के लिए खतरा बताने में लग जाती है और टीवी तथा समाचारपत्रों में ज्यादातर लोग एक झूठी अवचेतना के साथ अचेतन पड़े रहते हैं।

बुर्जुआ लोकतंत्र अपनी स्थापना के साथ ही फासिस्ट प्रवृत्तियों से युक्त हैं। यह किसी भी राज्य में अपवाद नहीं है। ऐसे समय में जब किसी भी राष्ट्र के अंदर किसी भी प्रकार के प्रजातांत्रिक विरोध की बात आती है तो सरकारें इस प्रकार के अपवाद का प्रयोग कर किसी प्रकार से देश के लोगों की मदद नहीं  करती बल्कि देश के लोगो का प्रयोग उनके ही विरुद्ध अपने संरचना की रक्षा के लिए करता है।

अतः हमे राजनितिक कैदियों के विषय में व तमाम लोकतान्त्रिक संघर्षों को दोबारा देखने की ज़रूरत है। उनका विश्लेषण करते समय नक्शे और रूल ऑफ लॉ की दंतकथा से हटकर तथ्यों के प्रकाश में वास्तविकता को समझने का प्रयास करना बेहद जरुरी है। हमें हर प्रकार से अपवाद राज्य, फांसीवाद राज्य का विरोध करना चाहिए और इससे ही हम राज्य द्वारा हिंसा के मापदंड को भी तोड़ सकते हैं जिसपर उसका एकाधिकार स्थापित है।

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