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“मैंने देखा है महिला सशक्तिकरण की बातें सिर्फ कागज़ों में हैं”

महिला सशक्तिकरण सिर्फ कागज़ों में है, जैसा मैंने देखा

एक अजीब सी ट्रिन-ट्रिन की आवाज से मेरी नींद खुली,जगा तो देखा घड़ी में सुबह का अलार्म बज रहा था। मैंने 6 बजे का अलार्म लगाया था, अभी 6:15 बज रहे थे इसका मतलब अलार्म काफी देर से बज रहा था। मैं अलार्म बन्द करने ही वाला था, तभी किसी ने मेरे रूम का दरवाजा पीटा मैंने जाकर दरवाजा खोला तो सामने अपनी आंखें लाल किये हुए मेरा दोस्त खड़ा था।

फिर मुझे अचानक से याद आया, आज तो हम लोगों का कहीं बाहर घूमने जाने का प्लान था। मैं जल्दबाजी में तैयार हुआ और हम दोनों बाहर घूमने के लिए निकल लिए। आगे चलकर कुछ ही दूर चौक पर मेरे और दोस्त हम दोनों  का ही इंतजार कर रहे थे। हम वहां पहुंचे और साथ में सब निकल गये। मैं आने आले वाले उस पल से बिलकुल  अंजान था, जो मेरा पूरा दिन बदल देने वाला था।

मैं हमेशा से बदलाव के पक्ष में रहा हूं, खासकर अपने आदिवासी समाज को लेकर पर यह एहसास मुझे आज होने वाला था। यह मुझे बिलकुल भी मालूम नहीं था, हम लोग रांची के होराब जंगल जा रहे थे हमने उसके बारे में बहुत सुना था लेकिन कभी वहां जाने का मौका नहीं मिला था।  हम तीन बाइकों पर छः दोस्त, हम लोग गाना गाते आराम से जा रहे थे। शहर के शोर शराबे से दूर,अगल-बगल घना जंगल और सुनसान सड़क पर बाइक की आवाज और हम लोगों के गानों के गाने की गूंज रही थी हम सबको बहुत अच्छा लग रहा था।

हम लोग वहां पहुंचे सबने फोटो खिंचाई,मस्ती मजाक में कब दिन ढलने को आया हमें पता ही नहीं चला। हम लोग वहां से वापिस आ रहे थे ,सब बहुत खुश थे। हम लोग आधी दूरी तय कर चुके थे, तभी हमारे एक दोस्त ने कहा ‘कहीं रुककर चाय पीते हैं’ । दिनभर घूमने से  हमारा शरीर भी बहुत बुरी तरह थक चूका था इसलिए सबने उसकी इस बात पर अपनी सहमति जताई।

हम रुके, देखा तो मुझे सामने एक चाय की टपरी दिखाई दी। मैंने सबसे कहा वहां रुकते हैं। हम लोग जैसे ही वहां पहुंचे तभी मेरी नजर पास में सड़क किनारे खड़ी एक लड़की पर गई। गांव की एक पतली सी लड़की थी, माथे पर पसीना और उसके सिर पर लकड़ी का भारी बोझ था। मुझे सबसे अधिक हैरान करने वाली जो बात थी, वह थी कि वह गर्भवती थी और उसे ऐसे हालात में  देखकर मेरा मन अचानक से उदास हो गया।

 मेरे चेहरे पर जो सुबह से मुस्कान थी, अचानक कहां गायब हो गई पता ही नही चला। उस लड़की की उम्र मुश्किल से सत्तरह या अठारह साल की होगी। उसका शरीर को देख कर पता चल रहा था उसने सिर्फ अपना बचपन जिया फिर शादी के बाद एक घरेलू महिला का जीवन जी रही थी। एक नौजवान लड़की जो खुल के अपनी  जिंदगी जीती है, उसने शायद वैसा अनुभव जीवन में किया ही नहीं है।

कुछ अज़ीब सी बात थी, उसकी आंखों में पता नहीं वह अपने अंदर ना जाने कितने दुःखों को दबा के बैठी हुई हो। उसकी आंखों में बेबसी के आंसुओं के साथ-साथ किसी के इंतजार का दर्द भी साफ दिख रहा था,और ऊपर से सिर पर लकडियों का भारी बोझ।उसने मुझे देख लिया था,और मुझे देखकर थोड़ा सा मुस्कराई। शायद उसे उतनी समझ आ गयी थी कि अपनी घर-गृहस्थी की परेशानी की बातें दूसरों को नहीं बतानी चाहिए।

हमारी आंखों का क्या वो तो सब बता देती हैं, इतनी बेबस आंखें मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार देखी थीं। इतने में ही एक कम उम्र का लड़का साइकिल से उसे लेने आ गया था। वह तकरीबन दस या ग्यारह साल का होगा, शायद उसका भाई होगा। मैं उन दोनो को देख ही रहा था की पीछे से मेरे एक दोस्त की आवाज आई “क्या रे पसन्द आ गयी है क्या”।मैंने हल्की सी मुस्कुराहट देकर उसे बोला “नहीं  भाई ऐसी कोई बात नहीं है।”

दोस्तों से बातचीत के दरमियान पता चला आज महिला दिवस है, फिर हम लोग वहां से चाय पीकर अपने घरों के लिए निकल पड़े रास्ते में मैं यही सोचते आ रहा था कि हम महिला दिवस पर लोग एक दो फोटो सोशल मीडिया पर  “Happy womens day” लिखकर उसे पोस्ट करके निश्चिंत हो जाते हैं कि हां मैंनेअपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी है। 

 मैं पूछता हूं कि क्या इससे हमारा अपने देश एवं महिलाओं के प्रति कर्तव्य पूरा हो जाता है? लेकिन जो मैंने कुछ देर पहले देखा उसका जिम्मेदार कौन है? मेरे ही समाज के लड़के उसका हास्य बना कर मुझे कहते हैं कि ” क्या रे पसन्द है क्या,कितनी अजीब बात है? क्या इतनी साधारण सी बात है हमारे समाज में बाल विवाह? या उसे जिम्मेदार ठहराऊं जो जनजाति आयोग में रह कर हर महीना पैसे उठा कर अपनी बेटी को बड़े से कान्वेंट स्कूल में पढ़ा रहा है।

लेकिन महिला शक्तिकरण की असल सच्चाई आपको सुदूर गांव इलाकों में मिलेगी, जब आप यहां आकर देखेंगे कि ये बच्चियां क्या-क्या परेशानियों को सह रही हैं। उनकी सुध लेने के लिए आज किसी के पास भी समय नहीं है, ना सरकार के पास, ना वहां के स्थानीय प्रशासन के पास और ना ही एक सामाजिक ज़िम्मेदारी के तौर पर हमारे पास भी समय नहीं है। यही जीवन है, यहां आप सच्चाई से मुंह नहीं फेर सकते। यहां हम लोग सोशल मीडिया पर जंग छेड़े हुए हैं “women_empowerment” की लेकिन असल में महिला सशक्तिकरण कागजों में ही है, असल धरातल पर नहीं। 

वैसे आज देश में महिलाओं की स्थिति की सच्चाई कोई जानना नहीं चाहता और ना ही किसी के पास इतना समय है। मैं उस सफर के बाद अपने घर तो पहुंच गया,लेकिन वो लड़की अपने घर नही पहुंच पाई है जो एक ऐसे समाज में है जिसकी कल्पना हम लोग सिर्फ सोशल मीडिया पर कर रहे हैं। आज भी उस लड़की का चेहरा मुझे नजर आता है और उसकी बेबस आंखें जो मुझसे सिर्फ एक सवाल करती है “मेरी  इस हालत का जिम्मेदार कौन है?

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