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इमरजेंसी के लिए क्या इंदिरा गॉंधी के साथ ही विपक्ष भी ज़िम्मेदार था?

25 जून 1975 को आज़ाद भारत का काला दिन माना जाता है, क्योंकि 44 वर्ष पूर्व इसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी की घोषणा की थी। आज भी जब इमरजेंसी के उस दौर को याद किए जाने पर, यही समझा जाता है कि श्रीमती गाँधी ने अपनी सत्ता बचाये रखने के लिए एक लोकतांत्रिक देश को तानाशाही में तब्दील कर दिया।

1975 इमरजेंसी की ज़मीन 1971 के बाद से ही तैयार होने लगी थी

इंदिरा गॉंधी

श्रीमती इंदिरा गॉंधी का इलाहाबाद कोर्ट द्वारा 1971 का राय बरेली से चुनाव निरस्त होना मात्र एक वजह नहीं थी इमरजेंसी लगने की।

राज नारायण, जो श्रीमती इंदिरा गाँधी से 1971 का चुनाव हार गए थे, उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में इंदिरा गाँधी के खिलाफ 1971 के चुनाव में धांधली का आरोप लगाते हुए केस दर्ज किया। श्रीमती गाँधी पर जो आरोप तय हुए थे वे यह थे कि उन्होंने डाइस बनवाने में सरकारी अधिकारियों की मदद ली और 2 रैलियों के लिए राज्य बिजली इकाई से लाउडस्पीकर के लिए बिजली ली। 12 जून 1975 को जज जगमोहन लाल सिन्हा ने इन्हीं आरोपों पर फैसला देते हुए इंदिरा गाँधी का राय बरेली से चुनाव निरस्त कर दिया और अगले 6 साल तक उनके कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी।

इंदिरा गॉंधी ने इलाहाबाद कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में दी थी चुनौती

लन्दन टाइम्स ने इस फैसले को कहा कि यह तो कुछ ऐसे हुआ जैसे एक प्रधानमंत्री को उसकी कुर्सी से यातायात का कोई नियम तोड़ने पर हटा दिया गया। इलाहाबाद कोर्ट के इस फैसले को इंदिरा गाँधी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 24 जून 1975 को जज कृष्णा इयर की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले को सुरक्षित रखा। इस बदलाव के साथ कि श्रीमती प्रधानमंत्री बनी रहेंगी, जब तक कोर्ट का आखिरी फैसला नहीं आ जाता, क्योंकि उनके खिलाफ कोई भी गंभीर मामला जैसे मतदाताओं को पैसे देकर लुभाना या तय सीमा से ज़्यादा चुनाव में खर्च आदि नहीं साबित हो पाए थे।

इमरजेंसी का विचार खुद श्रीमती इंदिरा गाँधी के मन में नहीं आया था

इसके बाद श्री जय प्रकाश नारायण ने देशव्यापी आंदोलन किया। उनके समर्थकों ने यह तय किया कि वे 1, सफदरजंग रोड (श्रीमती गांधी का निवास स्थान) के मुख्य द्वार पर धरना करेंगे और श्रीमती गाँधी के इस्तीफे की मांग करेंगे। कम ही लोग जानते हैं कि इमरजेंसी का विचार खुद श्रीमती इंदिरा गाँधी के मन में नहीं आया था। देश में बने माहौल पर चर्चा करने के लिए इंदिरा गाँधी ने तत्कालीन पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे को बुलाया।

जय प्रकाश नारायण

उस दौर में मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर एक कद्दावर नेता माने जाते थे और वह इंदिरा गाँधी के करीबियों में से एक थे। उन्होंने इंदिरा गाँधी को आर्टिकल 352 के तहत इमरजेंसी के प्रावधान के बारे में बताया। इंटेलिजेंस ब्यूरो के तहत प्रधानमंत्री को यह जानकारी मिली कि 25 जून को श्री जय प्रकाश नारायण ने देशव्यापी आंदोलन करने का ऐलान किया है, जिसमें वह देशव्यापी विद्रोह के लिए सबसे बोलने वाले थे। वह चाहते थे कि प्रशासन इंदिरा गाँधी सरकार का पुरज़ोर विरोध करे। इन सारी बातों को मद्देनज़र रखते हुए श्रीमती इंदिरा गाँधी ने सिद्धार्थ शंकर रे के सुझाव पर अमल किया और राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर के बाद इमरजेंसी की घोषणा कर दी।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी इंदिरा गॉंधी के इस्तीफे की मांग पर अड़ा रहा विपक्ष

7 नवंबर 1975 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और इंदिरा गाँधी को राय बरेली चुनाव से संबंधित सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और यह पाया गया कि श्रीमती ने किसी भी प्रकार की धांधली से चुनाव नहीं जीता है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद यह सवाल लाज़मी है कि जब इंदिरा गाँधी ने कोई भी धांधली नहीं की चुनावों में तो उनके इस्तीफे की मांग किस हद तक सही थी? शर्तों के साथ सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बने रहने की इजाज़त दी थी। फिर क्यों तब के विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना की और आखिरी फैसले आने तक भी इंतज़ार नहीं किया और इंदिरा गाँधी के इस्तीफे की मांग पर अड़े रहें?

तब का विपक्ष इतना कमज़ोर था कि उनमें से कोई भी नेता ऐसा नहीं था जो श्रीमती इंदिरा गाँधी के व्यक्तित्व और उनकी लोकप्रियता में उन्हें परास्त कर पाता। जय प्रकाश नारायण के आंदोलन को विपक्ष ने अपनी मज़बूती बनाया और सत्ता के लिए अपनी लड़ाई लड़ी। विपक्ष श्रीमती इंदिरा गाँधी को उनके पद से हटाना चाहता था। यह किस हद तक सही था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई प्रधानमंत्री से घेराव, धरना प्रदर्शन, हड़ताल और बंद के ज़रिये इस्तीफे की मांग की जा रही थी। इन सारी बातों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि श्रीमती इंदिरा गाँधी ने देश में बन रहे हालतों को मद्देनज़र रखते हुए इमरजेंसी लगाई थी।

इमरजेंसी से जुड़ी कुछ अन्य बातें-

सिर्फ अपनी सत्ता बचाने के लिए इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी नहीं लगाई लेकिन उसके पीछे कई सारे हालात थे जो कि 1971 के बाद से ही देश पर असर डालने लगे थे। तब के विपक्ष की भूमिका पर भी सवाल उठना जायज़ है, क्योंकि जब सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गाँधी को इजाज़त दी थी कि वह फैसला आने तक प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं, तो फिर क्यों विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के फैसला आने तक का भी इंतज़ार नहीं किया? लेकिन जिस प्रकार से इमरजेंसी के दौरान मानवाधिकारों का हनन हुआ और जो ज़्यादतियां की गईं, वे सभी निंदनीय हैं। सबसे बड़े लोकतंत्र में जहां सरकार देश के लोगों द्वारा चुनी जाती है, ऐसे फैसले निंदनीय हैं।

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