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सत्यार्थी जी किसी के दुख को देखकर बस दुखी ही नहीं होते, उसे दूर भी करते हैं

करुणा, नैतिकता, प्रेम, मदद, स्‍नेह, क्षमा ऐसे मूल्‍य हैं, जो व्‍यक्ति को बड़ा बनाने का काम करता है। नोबेल शांति पुरस्‍कार से सम्‍मानित कैलाश सत्‍यार्थी जी अपने इन्‍हीं गुणों के कारण बच्‍चों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। सत्‍यार्थी जी के ये ऐसे आभूषण हैं, जिनके कारण वे कहीं भी, कभी भी शोषित-पीड़ित बच्‍चों की खोज-खबर लेने पहुंच जाते हैं।

सत्यार्थी जी से किसी का पिछड़कर मायूस हो जाना देखा नहीं जाता

वे हरेक बच्‍चों की आंखों से आंसू पोंछने का सपना देखते हैं। वे चाहते हैं कि उनके जीते-जी दुनियाभर से बाल मजदूरी का खात्‍मा हो जाए। लोग ऐसे नहीं कहते, ‘बच्‍चों की आस कैलाश।’ ज़ाहिर है जिनके दिल में प्रकृति की ऐसी खूबसूरत नेमतें कूट-कूट कर भरी होंगी, वे वक्‍त आने पर छलकेंगी ही। प्रकट होंगी ही। उसका लाभ बच्‍चे, बुज़ुर्ग, युवा या किसी भी जरूरतमंद आदमी, समूह और जीवमात्र को होगा ही।

इसलिए महान होने की एक ही कसौटी है, दूसरों के दुख से सिर्फ दुखी होना ही नहीं, बल्कि उस दुख को दूर भी करना। कैलाश सत्‍यार्थी जी एक ऐसे ही शख्‍स हैं। वे देखते हैं कि एक खेल में जब दूसरा समूह पिछड़ने लगता है और मायूस हो जाता है, तो उसकी स्थिति उनसे देखी नहीं जाती और वे उसकी मदद करने पहुंच जाते हैं।

मैं अक्सर सोचता हूं कि व्यक्ति महान कैसे बन जाता है? उसके अंदर ऐसे क्या-क्या गुण होते हैं, जिससे अदब से लोग उस व्यक्ति को नमन करना चाहते हैं? दुनिया के सबसे बड़े सम्‍मान नोबेल शांति पुरस्‍कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी जी के जीवन की अनेक घटनाएं मैंने आंखन देखी और सुनी हैं, जो उनकी महानता को चरितार्थ करती हैं। देश और दुनियाभर के बच्‍चों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले सत्‍यार्थी जी के जीवन की उस एक विशेष घटना का मैं यहां जिक्र करने जा रहा हूं, जिसका मेरे मन पर अमिट असर हुआ है और मैं उनके प्रति नतमस्‍तक हो जाता हूं।

उल्‍लेख्‍य घटना उस समय की है जब पूरा सत्यार्थी आंदोलन कश्मीर घूमने गया हुआ था। सत्यार्थी जी के ऑफिस में यह परंपरा रही है कि हरेक 3 साल में आंदोलन के सभी साथी एक बार कहीं घूमने को जाते हैं। दिसंबर 2017 की बात है, जब पूरा सत्यार्थी आंदोलन कश्मीर की गुलमर्ग नामक जगह पर 3 दिन के लिए घूमने गया हुआ था। गुलमर्ग कश्मीर घाटी में एक खूबसूरत सी जगह है जो सर्दी में यदि सफेद बर्फ की चादर से ढंक जाता है, तो वहीं दूसरी ओर वह गर्मी में मखमली हरी घास व देवदार के गगनचुंबी पेड़ों से शोभायमान हो जाता है।

गुलमर्ग में जब सत्यार्थी जी ने सपोर्टिंग स्टाफ्स का दिल जीत लिया था

गुलमर्ग की यह योजना आंदोलन के सदस्यों के मन मुताबिक बनी थी। सत्यार्थी आंदोलन के लगभग 80 सदस्य, दिल्ली से हवाई जहाज में बैठकर श्रीनगर पहुंचे और श्रीनगर से मिनी बसों द्वारा गुलमर्ग की मनभावन वादियों और फिजाओं में पहुंच गए। गुलमर्ग के नजारे देखकर सभी मंत्रमुग्ध हो गए। चारों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियों पर चांदी की मानिंद जमी हुई बर्फ।

ऊंचे-नीचे रास्तों के दोनों किनारे देवदार व चीड़ के हरे-भरे दरख्‍त फिज़ा को और अधिक दिलकश बना रहे थे। जिस होटल में हम ठहरे थे, वह होटल एक रमणीक स्थान पर था। तीन दिवसीय प्रवास के दौरान आसपास के दर्शनीय स्थलों के सैर कराने के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में विभिन्न प्रकार की मनोरंजक गतिविधियों व ज्ञानवर्धक एक्‍सरसाइज़ का आयोजन भी किया गया था।

होटल के पार्श्‍व में ही एक बड़ा मैदान था। उस मैदान में गोलाकार रूप में लगी कुर्सियों पर सत्यार्थी परिवार के सभी सदस्य एक एक्सरसाइज़ गेम खेलने के लिए बैठे हुए थे। इस खेल को हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी आयोजित कर रहे थे।

गुलमर्ग में सभी अधिकारी-कर्मचारी एक समान थे। कोई भेदभाव नहीं। खेल इस प्रकार से था : 6-7 लोगों को, एक-दूसरे के पीछे लगकर, एक रेलगाड़ी बनानी थी और हर प्रतिभागी को अपने व आगे बाले प्रतिभागी के बीच में पेट के ऊपर एक गुब्बारा फंसाकर चलना पड़ता था। अगर गुब्बारा नीचे गिर जाए या फूट जाए, तो उस प्रतिभागी को खेल से बाहर कर दिया जाता था।

खेल के संचालक ने लगभग 10 ग्रुप बना दिए थे। तभी एक ऐसी घटना घटी जिसने मेरे मन पर गहरा प्रभाव डाला। हुआ यह कि संचालक ने सबसे पहले जिस ग्रुप को सम्मिलत किया था, वह ग्रुप सपोर्टिंग स्टाफ का ग्रुप था। संचालक ने आवाज़ लगाई कि सपोर्टिंग स्टाफ रेलगाड़ी बनने के लिए आगे आएं। 9-10 लोगों का ग्रुप लाइन लगाकर मैदान में आ गया।

सभी ने अपने-अपने पेट के ऊपर एक-एक गुब्बारा रख लिया और रेलगाड़ी चल पड़ी। मैंने महसूस किया कि सपोर्टिंग स्टाफ के सभी सदस्य जो खेल में शामिल थे, एकदम-से उदास हो गए। उनके मन में हीन भावना घर कर गई है, क्योंकि अभी तक उनके साथ बराबरी का व्यवहार किया जा रहा था। मसलन, एक साथ खाना, एक साथ सोना। एक साथ घूमना व एक साथ खेलना आदि।

मगर उनलोगों की खेल में अलग से कैटेगरी बनाने पर उनको अच्छा नहीं लगा था। वे लोग मजबूरन मन मारकर धीरे-धीरे खेल रहे थे। सभी हक्‍के-बक्‍के रह गए। यह देखकर कि आदरणीय कैलाश सत्यार्थी जी अपनी सीट से उठकर सपोर्टिंग स्टाफ के साथ रेलगाड़ी का हिस्सा बन गए। खेल का पासा पलट गया था।

किसी ने यह सपने में भी नहीं सोचा होगा कि सत्यार्थी जी, सपोर्टिंग स्टाफ के मन की बात जान जाएंगे और उनका मनोबल बढ़ाने के लिए वे खेल में इस तरह शामिल भी हो जाएंगे। सत्यार्थी जी के इस कदम से सपोर्टिंग स्टाफ के अंदर असीम ऊर्जा और स्फूर्ति आ गई। सपोर्टिंग स्टाफ का उत्साह देखते ही बन रहा था। खेल की वह रेलगाड़ी, जो पहले रेंग रही थी, अब बुलेट ट्रेन बन गई थी। सब लोग मन ही मन सत्यार्थी जी की प्रशंसा करने लगे।

 

(लेखक प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्‍ट्रीय अध्यक्ष हैं)

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