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वह व्यक्ति जिसने समाज की मुख्यधारा से वंचितों के लिए अपना जीवन दांव पर लगाया- कैलाश सत्यार्थी

नोबेल शांति पुरस्कार विजेता श्री कैलाश सत्यार्थी

 

आज का दिन पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन समाज की मुख्यधारा से वंचित लोगों के अधिकारों एवं उनसे जुड़े उनके मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले लोगों की चर्चा होती है। ऐसे में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता श्री कैलाश सत्यार्थी की चर्चा भी जरूरी है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन ही सामाजिक न्याय की लड़ाई में लगा दिया और आज भी वह समाज की मुख्यधारा से वंचित और पीड़ित लोगों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं।

इस लड़ाई में उन पर कई बार जानलेवा हमले भी हुए हैं लेकिन उन्होंने अपनी जान की परवाह ना करते हुए हमेशा अपनी इस लड़ाई को अपने संघर्ष एवं लगन से अंजाम तक पहुंचाया है। उन्होंने जिन नब्बे हजार बच्चों को बंधुआ, बाल मजदूरी से छापामार कार्रवाई के तहत मुक्त करा कर नया जीवन दिया है, वे ज्यादातर दलित, आदिवासी, पिछड़ा और वंचित समाज से ही आते हैं।

बचपन से ही करते थे सामाजिक न्याय की वकालत 

श्री कैलाश सत्यार्थी बचपन से ही छूआछूत और जातिवाद के खिलाफ थे। दसवीं कक्षा में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने गांधी जयंती पर दलितों के साथ सहभोज का आयोजन कर जातिवाद के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। जिसकी वजह से उन्हें उनकी सामाजिक बिरादरी से बाहर भी कर दिया गया था। इसके बाद ही उन्होंने अपने नाम से जातिसूचक शब्द निकाल दिया था और कैलाश नारायण शर्मा से अपना नाम बदल कर कैलाश सत्यार्थी कर लिया था।

नाम बदलने के 19 साल बाद उन्होंने फिर एक बार जातिवाद के खिलाफ आंदोलन चलाया और राजस्थान के प्रसिद्ध नाथद्वारा मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलाया। इस दौरान उन पर कई जानलेवा हमले भी हुए लेकिन सत्यार्थी ने अपने आंदोलन और शोषितों के अधिकारों की लड़ाई को जारी रखा, जो कि इतिहास में सामाजिक न्याय आंदोलन की एक महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी घटना है।

जातिप्रथा जैसी कुरीति को समाप्त करने का उठाया बीड़ा 

राजस्थान में उदयपुर के पास स्थित नाथद्वारा में प्रसिद्ध श्रीनाथ जी का मंदिर है। चार सौ साल पुराने इस मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित था। इसके मुख्य द्वार पर पत्थर पर खुदाई करके लिखा गया था ‘शूद्रों एवं विधर्मियों का मंदिर में प्रवेश वर्जित है।’ श्री कैलाश सत्यार्थी ने इस अमानवीय प्रथा का विरोध किया और अपने प्रयासों से गांधीजी के जन्मदिवस 2 अक्टूबर 1988 को मंदिर में दलितों के साथ प्रवेश कर इस सैंकड़ों साल पुरानी अमानवीय जातिवादी प्रथा का अंत कर दिया।

श्री सत्यार्थी ने अपने कुछ दलित साथियों के साथ नाथद्वारा मंदिर में प्रवेश कर पूजा-अर्जना की योजना बनाई, तय किया गया कि उदयपुर से दलितों के साथ मंदिर तक पद यात्रा की जाएगी और इसके बाद मंदिर में प्रवेश किया जाएगा। पदयात्रा का उद्देश्य यह भी था कि इससे मंदिर में प्रवेश के साथ-साथ छुआछूत और जातिवाद के खिलाफ आमजनमानस में जागरुकता भी बढ़ेगी। पदयात्रा शुरु हुई, अखबारों ने श्री कैलाश सत्यार्थी के इस कदम की खूब सराहना की। लिहाजा मंदिर में दलितों के प्रवेश की खबर आग की तरह पूरे राजस्थान में फैल गई। ब्राह्मण समाज और खासकर नाथद्वारा के पुजारियों-पंडो द्वारा इसका खूब विरोध हुआ। पदयात्रा के खिलाफ जगह-जगह धरने-प्रदर्शन होने लगे। सवर्ण समाज के राजनीतिक नेता सरकार पर यात्रा रोकने के लिए दबाव बनाने लगे, लिहाजा दबाव में आकर पुलिस ने यात्रा को बीच में ही रोक दिया और इस वजह से दलित लोग मंदिर में प्रवेश से वंचित रह गए।

समाज की मुख्यधारा से वंचितों के मानवाधिकारों के लिए उठाई आवाज़  

लेकिन, सत्यार्थी जी कहां हार मानने वाले थे ? उन्होंने जो ठान लिया, वह ठान लिया उसे करना ही है। वे चुप नहीं बैठे और अगला कदम उठाने के लिए लोगों से सलाह-मशविरा करने लगे। हमेशा जन-आंदोलन के जरिए व्यवस्था परिवर्तन की सीधी लड़ाई लड़ने वाले सत्यार्थी जी ने लोगों की सलाह पर अदालत का दरवाजा खटखटाया। राजस्थान हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर सरकार से नाथद्वारा मंदिर में प्रवेश करने वाले दलितों की सुरक्षा व्यवस्था की मांग की गई। अदालत ने याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार को भगवान श्रीनाथ के दर्शन के इच्छुक दलितों को मंदिर में प्रवेश कराने और उन्हें सुरक्षित दर्शन कराने की व्यवस्था कराने का आदेश दिया, जिसके बाद श्री कैलाश सत्यार्थी के नेतृत्व में दलितों का एक जत्था मंदिर में प्रवेश कर पाया।

जैसे ही सत्यार्थी जी ने दलित साथियों के साथ मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश किया, वहां पहले से छुपकर बैठे पंड़ों ने उन पर मूसल आदि से प्रहार कर दिया। जिससे मंदिर परिसर में चारों तरफ भगदड़ मच गई इस घटना में सत्यार्थी जी बुरी तरह जख्मी हो गए। उनका एवं भीड़ का शोर सुन कर जब तक पुलिस अंदर पहुंची तब तक हमलावर फरार हो चुके थे। पंडो की योजना तो सत्यार्थी जी को जान से मारने की थी लेकिन वो अपनी योजना में सफल नहीं हो पाए।

इस घटना के फलस्वरूप सत्यार्थी जी घायल हो कर खून से लथपथ मंदिर के अहाते के एक कोने में पड़े हुए थे और पुलिस से इस बात के लिए लड़ रहे थे कि जब तक उनके दूसरे साथी सही सलामत नहीं मिल जाते तब तक वे मंदिर परिसर छोड़ कर अस्पताल नहीं जाएंगे। तभी कुछ पुलिस वाले तेजी से आए और उन्हें धक्के मार कर एक दूसरे कोने में ले गए। दरअसल, पुलिस को बाद में पता चला कि मंदिर की मुंडेर पर कुछ लोग मटके में तेजाब लेकर बैठे हैं, जो सत्यार्थी जी पर तेज़ाब फेंक कर उनकी हत्या करना चाहते हैं।

इनके अदम्य साहस एवं दूरदर्शिता की गूंज पूरे देश में हुई 

खैर, पुलिस की मदद से सत्यार्थी जी के सभी साथी सही-सलामत मिल गए। इसके बाद पुलिस के संरक्षण में दलितों को मंदिर में ले जाकर भगवान के दर्शन और पूजा-अर्चना कराई गई। इसके बाद ही कैलाश सत्यार्थी इलाज के लिए अस्पताल गए, इस प्रकार सत्यार्थी जी के अदम्य साहस और संघर्ष की वजह से सदियों पुरानी जातिप्रथा जैसी कुरीति का अंत हुआ।

इस घटना की गूंज पूरे देशभर में सुनाई दी। इस घटना के बाद तब के राष्ट्रपति आर वेंकटरमण ने स्वयं दलितों के साथ नाथद्वारा जाकर श्रीनाथ जी के दर्शन करने की इच्छा जाहिर की। इस घटना के बाद स्वयं राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री भी दलितों के एक दल के साथ नाथद्वारा मंदिर पहुंचे। इस तरह से मंदिर की दीवार पर लिखी सदियों पुरानी इबारत ‘शूद्रों एवं विधर्मियों का मंदिर में प्रवेश वर्जित है’ को सत्यार्थी जी ने अपने खून से धो डाला।       

 

 

 

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