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1984 का सिख विरोधी दंगा, जब सियासतदानों के सामने लोकतंत्र शर्मसार हो गया

1984 के सिख विरोधी दंगे के संदर्भ में कभी भी ज़्यादा जानकारी आम जनता के सामने नहीं लाई गई। मसलन अखबार की खबरें भी उस ईमान से प्रकाशित नहीं हुई जिस तरह से होनी चाहिए थी। ना ही इस संदर्भ में कोई किताब प्रकाशित हुई। अगर हुई भी होंगी तो वह कुछ घटनाक्रम तक ही सीमित रह गई होंगी।

रिपोर्ट्स ने इसे राजनैतिक फायदे के लिए सरकार प्रायोजित दंगा बताया था

सिखों के कत्लेआम की इतनी बड़ा घटना जो 31 अक्टूबर 1984 से शुरू होकर 03 नवंबर 1984 तक 96 घंटे से भी ज़्यादा तक देश की राजधानी दिल्ली में चली थी। वो दिल्ली जहां हर सरकारी या गैर-सरकारी मुख्यालय है। जहां प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज तक बैठे हों। जहां एक विशेष समुदाय के खिलाफ भय और असुरक्षा का माहौल बनाया जा रहा था।

दंगे के तुरंत बाद अमिया रॉ, अरबिंदो घोष, एन डी पंचोली जैसे बुद्धिजीवियों ने अपने स्तर से छानबीन करके रिपोर्ट टू नेशन नाम से एक दस्तावेज प्रकाशित की थी। इससे सिख दंगे के हर कड़ी को समझा जा सकता था और जब हम ये सारी कड़ियां जोड़ते हैं तब ये सरकार प्रायोजित दंगे के रूप में सामने आती है। इसमें सिखों के कत्ल करने का तरीका, लगाये गए नारे और फैलाई जा रही अफवाहों की तब बहुत गहराई से विश्लेषण करने की ज़रूरत थी।

अगर दंगे में शामिल लोगों पर नज़र डाली जाती तो वही बेरोजगार और गरीब तबका था जिसके हाथ में रॉड, किरोसिन और अन्य तरह के ज्वलनशील पदार्थ और हथियार दे दिए गए थे। जब हमले में कोई सिख व्यक्ति घायल होता या मारा जाता था तो उसकी दाढ़ी, पगड़ी या अन्य जो धार्मिक पहचान थी उसको हटा दिया जाता था। इसके बाद भी वो नहीं रूकते थे। ऐसा करने के बाद पेट्रोल या किरोसिन डालकर आग लगा दिया जाता था।

इसी तरह से सड़क पर या रेलगाड़ी में भी सवार किसी सिख व्यक्ति के साथ किया जा रहा था। जो जहां था उसे वहीं से निकालकर इस तरीके से मार दिया जा रहा था। दंगों में समुदाय को आर्थिक नुकसान पहुंचाना सबसे बड़ा लक्ष्य होता है ताकि उसकी कमर ही आने वाले सालों तक टूट जाए। यहां भी यही हुआ। बाहर खड़ी बाइक और कार सहित पूरे घर में आग लगाया जा रहा था। ये काम को ऐसे अंजाम दे रहे थे कि फिर कभी देश की राजधानी में सिख उभर न सकें।

सिख समुदाय के खिलाफ अफवाह फैलाकर भी भीड़ जमा की जा रही थी। नानावटी कमीशन की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि रकाबगंज गुरुद्वारे के बारे में यह अफवाह फैलाई गई कि वहां हिंदुओं को कैद करके रखा गया है। हर छोटे-बड़े गुरुद्वारों में भी लोगों को असुरक्षित महसूस कराकर उसे जला देना शामिल था।

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद यह अफवाह फैलाया गया कि देशभर के सिख जश्न मना रहे हैं

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के बारे में यह अफवाह फैलाया गया था कि पूरे देशभर के सिख जश्न मना रहे हैं। पटाखे फोड़ रहे हैं, मिठाईयां बांटी जा रही है और भांगड़ा हो रहा है। मगर यह सत्य नहीं था। सच्चाई सीधे इसके उलट थी। जब इंदिरा गांधी के पार्थिक शरीर को लाया गया था तब श्रद्धांजलि देने के लिए हज़ारों सिख कतार में थे। तब दूरदर्शन ने वो सब दृश्य नहीं दिखाया।

उसने “खून का बदला खून से” नारे लगा रहे लोगों को ज़्यादा प्राथमिकता दी जिसने आग में घी डालने का काम किया। इससे एक चीज़ स्पष्ट हो गया कि ये दंगा एक राजनैतिक मंशा से बदले की भावना के रूप में हुई थी। बहुत सारे अफवाह और भी थे। जिसमें एक प्रमुख अफवाह यह थी कि गुरुद्वारा साहिब में सिखों ने हथियार जमा कर रखे हैं। इससे ही हिंदुओं के खिलाफ वो मोर्चा खोलेंगे।

यह बात ऐसे फैल गई थी कि सब इसे सच मानने लगे थे। जहां भी सिखों की थोड़ी जनसंख्या थी वहां अफवाह फैला दिया जा रहा था कि वो हथियारों से पूरी तरह लैश हैं जो कभी भी हमला कर सकते हैं। ये फैलाया जा रहा था कि इन्होंने जहां-तहां से हिन्दू बच्चों का अपहरण करना शुरू कर दिया है। इससे नफरत इतनी बढ़ गई कि जब सिखों को मारा जाने लगा तो कोई उनके लिए सामने नहीं आया।

2 नवंबर 1984 को सिख व्यक्तियों की लाश लेकर एक ट्रेन दिल्ली पहुंची थी। इसके बारे में अफवाह यह फैला कि पंजाब में सिखों ने हिंदुओं को मारना शुरू कर दिया है जिनकी लाशें लेकर झेलम एक्सप्रेस दिल्ली आई है। तब आज की तरह समाचार पुष्टि को लेकर तरह-तरह के स्त्रोत नहीं थे जिसका यह नतीजा सामने आया।

राजीव गांधी और कांग्रेसी नेताओं के सामने लग रहे थे भड़काऊ नारे

इस दंगे में स्टेट मशीनरिज़ का क्या योगदान था ऐसे समझिये। इंदिरा गांधी को गोली लगने के बाद पहला मौका जब राजीव गांधी सामने आए थे। इनके पीछे कांग्रेस के नेता एचएल भगत। फिर इनके पीछे कांग्रेसी कार्यकर्ता जो “खून का बदला खून से” जैसे भड़काऊ नारा लगा रहे थे। भगत ने बहुत ही उत्तेजित होकर पूछा कि “आपसब यहां क्या कर रहे हैं”? थोड़ा भी समझने वाला समझ जाएगा कि ग्रीन सिग्नल मिल चुकी थी।

अब जब सत्ता ही करवा रही है तो अपनी प्यास बुझाकर ही रोकना चाहेगी। मतलब जो होना होगा वो अब होकर ही रहेगा। “सरदारों को मार दो”, “हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई, सिखों की अब करो सफाई” जैसे नारों लगना एक भयावह मंज़र की आहट था। मगर सरकार मूकदर्शक बनी बैठी थी। मानो उसने साइलेंटली लाइसेंस दे रखा है।

दंगे के बाद रिपोर्ट टू नेशन की टीम ने बेहद अहम खुलासे किए। कांग्रेस तीन चीज़ों पर केंद्रित होकर इसको अंजाम देना चाहा। पहला कि अब कमान राजीव गांधी के हाथ में जाए और सबको वह स्वीकार हो। इंदिरा गांधी अमर रहे के नारों से राजीव को सहानुभूति। तीसरा कि उस दंगे से हिंदुओं का सेंटीमेंट्स कांग्रेस के साथ जुड़ जाए और आने वाले आम चुनाव में उन्हें जमकर हिन्दू वोट मिले।

कांग्रेस एक अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ भावना भड़काकर अपना वोट बढ़ाना चाह रही थी। दंगों में भावना ऐसी भड़काई गई कि कोई कांग्रेसी बनकर नहीं लड़ा। सबके अंदर उसका धर्म मायने रख रहा था और फिर यही धर्म वोट में बदल गया। सिख समुदाय को भी यह बताने की कोशिश की गई कि तुम बहुसंख्यक के दया के पात्र हो।

यह एक लोकतांत्रिक देश के लिए शर्म का विषय है जब कोई अपने अस्तित्व को बचाने के लिए बहुसंख्यक के सामने नतमस्तक हो जाए। इस देश के संविधान ने हर व्यक्ति को अपनी जाति-धर्म के साथ बहुत ही सम्मान के साथ जीने का अधिकार दिया है लेकिन अफसोस कि हमें हर बार बस निराशा ही हाथ लगती रही।

 
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