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सिनेमा के मुगल ए आजम से लेकर मणिकर्णिका के राष्ट्रवाद तक का सफर

मुगल ऐ आजम

साल 1960 में, फिल्म मुगल-ऐ-आजम सिनेमाघर में अपनी दस्तक इस तरह दे रही थी कि दर्शको के रूप में इसके चाहने वाले जमीन पर सलीम और अनारकली बन कर खुद को पेश करने लगे थे। फिल्म के जानदार संवाद इसकी लोकप्रियता में चार चांद लगा रहे थे। जलालुद्दीन अकबर की भूमिका में पृथ्वी राज कपूर जिनकी भारी भरकम आवाज, सुडौल शरीर असल अकबर की छवि को सिनेमा के पर्दे पर पेश कर रही थी और जोधाबाई के रूप में दुर्गा खोटे, जो कि सिनेमा के रुपहले पर्दे पर पति-पत्नी की भूमिका में थे। जहां अकबर एक मुगल शासक थे, वहीं  जोधाबाई एक हिंदू परिवार से लेकिन दर्शकों को उनके इस पति-पत्नी के रुप में दिखाई देने पर किसी को भी इस रिश्ते से परेशानी नहीं थी।

सलीम और अनारकली ने अपने अभिनय से पर्दे पर जादू कर दिया 

सलीम के किरदार में मौजूद अभिनेता दिलीप कुमार, भारी भरकम संवाद, चेहरे पर उस समय के हालातों के साथ और संवाद के भावों को खासकर जब सलीम अनारकली के साथ अपने रिश्ते को लेकर बादशाह अकबर के साथ संवाद करता है, वह अप्रितम सहज दृश्य फिल्म की कहानी में चार चांद लगा देता है।
जहां अनारकली के तवायफ होने के कारण अकबर, सलीम और अनारकली के रिश्ते को अपनी इजाज़त नही देता है। वहीं दूसरी ओर फिल्म में मधुबाला के रूप में अनारकली का किरदार, फिल्म का मधुर संगीत ” जब प्यार किया तो डरना क्या” हिंदुस्तान की हर गली, हर किसी की ज़ुबान पर चढ़ कर बोल रहा था।
फिल्म के आखिर में सलीम और अकबर एक-दूसरे के आमने-सामने होते हैं, इस बाप- बेटे के युद्ध में अक़बर(बाप ) इस युद्ध में जीत जाता है।  फिल्म के आखिरी में कहानी नया मोड़ लेती है, जहां अकबर अनारकली को जेल के पीछे के दरवाजे से अपनी गुलामी की बेड़ियों से आज़ाद कर देता है लेकिन इसकी भनक सलीम को नहीं लगने दी जाती है।

पाकीज़ा का जादू 

साल 1971 में भारत और पाकिस्तान में जंग लड़ी गई और श्रीमती इंदिरा गांधी के रूप में भारत सरकार ने विश्व को एक नया देश बांग्लादेश का निर्माण करके दिया, यहां भारत और पाकिस्तान के आमने-सामने होने से भी भारतीय समाज में हिंदू और  मुसलमान समुदायों में बहुत ज्यादा दूरियां नहीं आई थीं।
 इसका प्रमाण 1972 में आई फिल्म पाकीज़ा है, जहां सलीम अहमद के किरदार में मौजूद अभिनेता राज कुमार और साहिबजान / पाकीज़ा के किरदार में मौजूद अभिनेत्री मीनाकुमारी जो कि एक तवायफ हैं, दोनों ने अपने इस रूप में और इनके किरदारों  ने सिनेमा घरों में हलचल मचा दी थी। 

ऐसे संवाद जिनकी खनक आज भी कायम है 

 खासकर इस फिल्म के संवाद, जिनमें राजकुमार की आवाज तहलका मचा रही थी, इसका एक सवांद जो आज भी सिनेमाप्रेमियों के ज़हन में गूंजता है “आप के पावँ देखै बहुत हसीं है, इन्हे ज़मीन परमत  उतारियेगा मैले हो जाएंगे”, वहीं  इस फिल्म का कर्णप्रिय संगीत आज भी संगीत प्रेमियों की दिलों में गर्जन बनकर गूंजता है।  
जहां फिल्म का अंत इस बहस पर होता है कि साहिबजान / पाकीज़ा जो कि एक तवायफ हैं और सलीम का खानदान जो कि एक नामदार और रसूख खानदान है, वहां साहिबजान कभी भी कुबूल नहीं होंगी। फिल्म का अंत हम सब जानते हैं कि किस तरह साहिबजान साहबुद्दीन के किरदार में मौजूद अशोक कुमार की बेटी बताई जाती हैं और अंत में सलीम ओर सहिबजान / पाकीज़ा दोनो एक-दूसरे को कुबूल हो जाते हैं।

हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच की खाई को पाटता सिनेमा 

फ़िल्म चाहे मुगल-ऐ-आज़म हो या फिर पाकीज़ा, समय के इस दौर में भारत का सिनेमा और दर्शक दोनों हीं हिन्दू-मुस्लिम समुदायों पर बनी फिल्मों को पंसद भी करते थे और सराहते भी थे। वहीं दोनों हीं फिल्मो में नायक और खलनायक दोनों ही मुस्लिम लिबास में मौजूद थे।
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 जहां इनकी मौजूदगी से ना हीं दर्शकों को और ना ही सिनेमा को कोई दिक्कत थी, खासकर इस वक्त राष्ट्रवाद के रूप में मज़हबी लिबास के खलनायक की भूमिका नहीं बनाई गई थी, लेकिन 1980-90 के दशक के बाद मुगल ऐ आज़म, पाकीज़ा जैसी खूबसूरत फिल्मों ने मुस्लिम समाज एवं वहां की मान्यताओं को दर्शाती शायद ही अब तक किसी फिल्म ने सिनेमाघरों में दस्तक दी हो और बहुत संख्या में दर्शकों पर अपनी अमिट छाप छोडने और आकर्षित करने में कामयाब हुई हो, इस तरह का ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता।

बॉलीवुड में खलनायकों का इतिहास 

फिल्म सफर के कुछ समय बाद ही फिल्म जगत में खलनायक की भूमिका में जहां प्राण, प्रेम चोपड़ा, जीवन जैसे बेहतरीन अभिनेता खलनायक के रूप में अपनी पहचान बना रहे थे, जहां ये खलनायक भ्र्ष्ट और बदचलन के किरदारों तक सीमित रहते थे।  वहीं फिल्म शोले में गब्बर की भूमिका में मौजूद अभिनेता अमज़द खान अपने संवाद का लोहा इस तरह मनवा रहे थे कि फिल्म में नायकों की भूमिका में मौजूद धर्मेंद्र ओर अमिताभ बच्चन कहीं  भी अपनी मौजूदगी दिखाने में विफल हो रहे थे।
इसके पश्चात फ़िल्म शान के शाकाल के रोल में मौजूद कुलभूषण खरबंदा ओर फिल्म मिस्टर इंडिया में मोगेम्बो की यादगार भूमिका में अमरीश पुरी जैसे अभिनेता नायक के चेहरे से हटकर एक अलग खलनायक की छवि बना रहे थे। जहां दर्शकों के लिये यह आसान हो रहा था कि फिल्म में नायक कौन है और खलनायक कौन है। 
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 अगर हम 1975 में लगाई गई इमरजेंसी के बाद कि फिल्मों को देखें तो यहां भ्र्ष्ट व्यवस्था के मध्ये नज़र नेता और पुलिस दोनों ही तरह के किरदारों में खलनायक की भूमिका को पेश किये जाने का चलन शुरू हो गया था। वहीं  अगर हम अनिल शर्मा की फिल्मों को देखें तो 1987 से लेकर 1992 तक इनकी चार फिल्में आई हकूमत, ऐलान-ऐ-जंग, फरिश्ते ओर तहलका जहां चारों ही फिल्मों में खलनायक को एक चीन साम्राज्य से मिलते- जुलते किरदार के रूप में दिखाया गया है। 

आतंकवाद और जासूसी पर आधारित भारतीय सिनेमा 

 राम जन्मभूमि आंदोलन ने जहां हिंदू-मुसलमान समुदायों में दूरियां बनाने का काम किया है, वहीं  फ़िल्म के खलनायक चेहरों को मज़हबी रंग देने की भी एक कोशिश भी उभर कर आती दिखाई दे रही है। जहां हिंसा संवाद और बंदूक से ऊपर उठ कर अब फिल्मों में एके 47, बम्ब, इत्यादि को एक युद्ध स्तर पर हिंसा की मौजूदगी दिखाई देती है।
 मसलन, फिल्मों के माध्यम से राष्ट्रवाद को बहुत निखार दिया गया है, जहां खलनायक पाकिस्तान और मुसलमान ही है। खासकर, 1992 के रामजन्म भूमि आंदोलन के बाद से उदाहरण के लिये हम अगर अनिल शर्मा की 1992 के बाद आई फिल्मों खासकर  गदर एक प्रेम कथा, द हीरो लव स्टोरी ऑफ स्पाई, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों को देखें तो इन तीनों फिल्मो में पाकिस्तान एक दुश्मन मुल्क ओर खलनायक की भूमिका में एक मज़हबी मुसलमान का नाम और लिबास दिखाया गया है।
अब इसी आगे की कड़ी में कंगना रनोट की आने वाली फिल्म झांसी की रानी मणिकर्णिका का ट्रेलर आया है, अब इसमें राष्ट्रवाद और हिंसा दोनों ही बहुत उग्र हैं। इसमें अंग्रेजों की सेना में सिर्फ अंग्रेज थे, फिल्म ये दिखाने में ज्यादा प्रयास करती हुई दिखाई देती है लेकिन हकीकत में अंग्रेजों की सेना में देशी रियासतों के सैनिक भी शामिल थे।
वहीं उस समय 1857 में देश की क्या भूमिका थी? और क्या यह कश्मीर से कन्याकुमारी तक कि लड़ाई थी? फ़िल्म ने इसे भी बहुत ज्यादा ओझल कर दिया है, लेकिन इसमें भारत और राष्ट्र दोनों के नारे इस फिल्म में बहुत गूंज रहे हैं। अब राष्ट्रवाद, धर्म, मजहब के नाम पर फिल्मों के माध्यम से इस तरह की हिंसा समाज पर प्रभाव डालती है और इसका समाज के लिए क्या भूमिका है, इसको समझने की जरूरत जरूर अपनी मौजूदगी का एहसास करवाती है जिसे हमें व्यक्तिगत रूप से समझने की जरूरत है।
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