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“21वीं सदी के दौर में आलोक और आबिदाह की मुहब्बत की अनोखी दास्तां”

21 वी सदी के दौर में मोहब्बत की अनोखी दास्तां - आलोक और आबिदाह की कहानी

नवाबों का शहर लखनऊ, जो हमारे देश में अपने अदब और अपनी तहज़ीब के लिए बखूबी जाना जाता है। उसी लखनऊ शहर की दास्तां-ए-मोहब्बत का एक महबूब किस्सा आप सबके साथ साझा करने जा रहा हूं।

बात 1 अगस्त, 2010 की है। लखनऊ रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूरी पर एक संकरी सी गली से गुज़रते हुए दाहिने हाथ पर पीले रंग का तीसरा मकान है। जो पेशे से वकील रामेश्वर शर्मा जी का है। शर्मा जी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जाने माने वकील हैं। शर्मा जी ने वैसे तो अपनी ज़िन्दगी में कई मुक़दमे लड़े थे लेकिन उनकी वकालत उनके न्यायालय तक ही सीमित थी।

क्योंकि घर पर तो सिर्फ शर्मा जी की पत्नी “कमला देवी” का ही राज़ चलता था। शर्मा जी का इकलौता लड़का आलोक, जिसे उन्होंने अपने बड़े लाड-प्यार से पाला था, परंतु उनके घर में राज तो सिर्फ शर्मा जी की पत्नी का ही था। वैसे उन्होंने लाड-प्यार की आड़ में कभी आलोक की पढ़ाई को लेकर कोई कोताही नहीं बरती। आज उसी का परिणाम था, कि आलोक अपनी बारहवीं की परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर कॉलेज की नई दुनिया में अपना पहला कदम रखने जा रहा था।

कॉलेज का पहला दिन

आज आलोक बहुत खुश था और उसी ख़ुशी में वह आज अपनी मोटर बाइक को चमकाने में लगा हुआ था। जो उसके पिता जी ने उसे उसके बोर्ड की परीक्षा में 90 प्रतिशत अंको के साथ पास होने की खुशी में दिलाई थी। अपनी बाइक को साफ करते-करते उसके मन में आज एक अलग ही तरह की उमंग थी। क्योंकि उसे बाइक से कॉलेज जाने की, स्टाइलिश कपड़े पहनने, कॉलेज में मोबाइल फोन ले जाने की अनुमति मिल गई थी। जैसे मानो आलोक के अतरंगी सपनों को पर लग गए हों और अब वह बस उड़ना चाहता था, क्योंकि विद्यालय जीवन में हर किसी विद्यार्थी को यह सब कहां मिलता है।

कुछ ही देर में आलोक अच्छे से तैयार हो कर, अपनी बाइक पर सवार आंखों पर चश्मा चढ़ाए कॉलेज के लिए निकल गया। थोड़ी ही देर में वह अपनी सारी खुशियां समेटे बाइक से हॉर्न देते हुए कॉलेज में दाखिल हुआ। बाइक को साइड लगा कर जैसे ही आलोक उतरा वैसे ही वह एकटक कॉलेज की बिल्डिंग को निहारे जा रहा था, आखिर देखता भी क्यों नहीं ! अगले तीन सालों के लिए यह उसका दूसरा घर जो होने वाला था।

जी हां, कॉलेज की यादें हर विद्यार्थी के जीवन की बहुत सुनहरी यादें होती हैं। खट्टे मीठे पल, लड़ना-झगड़ना, दोस्तों से रूठना-मनाना चलता रहता है। यहां तक कि कॉलेज के दिनों में विद्यार्थी अपना ज़्यादा से ज़्यादा वक्त वहीं बिताते हैं। खैर, आलोक अपनी कक्षा में पहुंचा जहां वह पहले से ही दस मिनट लेट था, परन्तु कक्षा का पहला दिन होने के कारण प्रोफेसर साहब ने बिना कुछ कहे उसे कक्षा में आने की अनुमति दे दी थी।

क्लास शुरू होते ही प्रोफेसर साहब ने सबकी हाज़िरी लेना शुरू किया, अब तक केवल दो-चार नाम पुकारे ही थे कि कक्षा का दरवाज़ा दुबारा खुला और सामने खड़ी थीं, एक मोहतरमा, काला बुर्का पहने, भूरी आंख, लम्बी नाक और मानो जैसे चेहरे से नूर टपक रहा हो।

ऐसा नूरानी चेहरा था उसका, कक्षा के सभी लड़कों की नज़र उस मोहतरमा पर ही थी। आखिरकार कक्षा का ध्यान भटकाते हुए प्रोफेसर साहब ने उन मोहतरमा को भी कक्षा में आने की अनुमति दे दी। अनुमति मिलती भी कैसे नहीं, अगर अनुमति न मिलती तो शायद वहां बैठे कई छात्रों के दिल टूट जाते और हमारे प्रोफेसर साहब कहां किसी का दिल टूटने देते।

वह दिन आलोक के लिए शुभ था

उन मोहतरमा ने पहले कक्षा में थोड़ी देर इधर-उधर देखा और फिर आलोक के बगल वाली खाली सीट पर जा कर बैठ गईं और सभी छात्रों को लगा कि वह आलोक को पहले से ही जानती हो, ऐसा था नहीं। बहरहाल, आलोक एक पल के लिए सकपका गया परन्तु वह मन ही मन बहुत खुश था।

बहरहाल, प्रोफेसर साहब के द्वारा हाज़िरी लेते-लेते एक नाम सुनाई दिया “आबिदाह,” जी हां, अब तक जिन मोहतरमा की बात हो रही थी उनका नाम था आबिदाह। यह नाम सुनते ही जैसे आबिदाह ने अपनी हाज़िरी दी, मानो कई लड़कों के दिलो में उठने वाले पहले सवाल का जवाब मिल गया हो।

खैर, बाकी इसी कश्मकश में आज का दिन जैसे-तैसे बीता, आलोक ने पहले दिन कॉलेज में नए दोस्त बनाए । कक्षा में सबने पूरा दिन एक-दूसरे को जानने-पहचानने में ही लगा दिया। हकीकत तो यह थी कि आलोक आबिदाह से दोस्ती करना चाहता था, परंतु उस दिन वह ऐसा कर न सका। पूरा दिन उसके साथ बैठने के बावजूद वह उससे एक लफ्ज़ भी न कह सका परंतु उसे जब भी मौका मिलता उसकी निगाहें हर वक्त आबिदाह को ही देखतीं रहती थीं।

बातचीत की पहल आलोक को ही करनी पड़ी

ना जाने क्यों, परंतु यह सिलसिला रोज़ाना शुरू हो गया, हम दोनों कक्षा में देरी से आते और पीछे जा कर साथ बैठ जाते। आबिदह का तो पता नहीं पर आलोक तो जैसे मानो जानबूझ कर देर से आता हो ताकि आबिदाह उसके साथ या फिर वह आबिदाह के साथ बैठ सके और होता भी अक्सर ऐसा ही था। खैर दोनों के बीच मैं जैसे-तैसे बातें भी शुरू हो गईं। बातें भी कुछ खास नहीं बस एक दूसरे से उनका हाल पूछ लेना और ज़्यादा से ज़्यादा क्लास के नोट्स मांग लेना। बाकी आबिदाह बहुत कम बोला करती थी। इसलिए अक्सर आलोक को ही पहल करनी पड़ती थी।

वैसे, आलोक में भी कुछ बात तो थी, वह अपनी बातों से किसी को भी अपना बना लेता था। उसका शांत स्वर में बात करना, उसका हंसमुख चेहरा और हमेशा खुशमिजाज़ स्वभाव सबको अपनी तरफ खींचता था। कक्षा में तो आलोक की कई लड़कियां दीवानी थीं ,परंतु जैसे आलोक को तो आबिदाह के अलावा वहां कोई दिखती ही ना हो।

इसी तरह देखते-देखते एक साल बीत गए। सावन का मौसम था, मूसलाधार बारिश हो रही थी। इसी बीच आबिदाह बारिश में भीगती हुई कॉलेज पहुंची, वह काफी हद तक भीग चुकी थी और वहीं एक ओर आलोक कॉलेज की कैंटीन के बाहर सावन की बरसात का आनंद ले रहा था। तभी उसकी नज़र आबिदाह पर पड़ी वह उसके पास पहुंचा और उसने देखा की आबिदाह पूरी तरह भीग चुकी थी और ठण्ड के कारण वो कपकपा रही थी।

आलोक उसका हाथ पकड़ कर कैंटीन में ले गया और तुरंत स्टाफ-कक्ष से हीटर का इंतज़ाम करके ले आया और आबिदाह के बगल में ला कर जला दिया ताकि उसकी ठण्ड कम हो सके और उसके भीगे हुए कपडे थोड़े सूख सकें। उसके तुरंत बाद ही मैं आबिदाह के लिए गरमा-गरम अदरक वाली चाय ले कर आया, पर हकीकत तो यह थी कि आबिदाह चाय पीना पसंद ही नहीं करती थी, परन्तु कुछ ही पलों में उसने अपने प्रति जो परवाह आलोक की आंखों में देखी थी उस परवाह के खातिर उसने वह चाय बड़े ही आनंद के साथ चुस्कियां लेते हुए पीनी शुरू कर दी।

आबिदाह एक तरफ चाय की चुस्कियां ले रही थी, वहीं मैं उसके बगल में खड़ा उसे प्यार से निहारे जा रहा था, मानो पल जैसे ठहर सा गया हो।

और उनकी दोस्ती प्यार में बदल गई

इसी तरह समय बीतता चला गया और आलोक और आबिदाह दोनों की दोस्ती धीरे-धीरे कब प्यार मैं बदल गई उन्हें पता ही ना चला। प्यार, दुनिया का एक बहुत खूबसूरत एहसास होता है और यह एहसास आलोक और आबिदाह के दिलो में भी था, परंतु दोनों ने अभी तक कभी भी अपने प्यार का इज़हार एक-दूसरे से नहीं किया था। क्योंकि दोनों के प्यार के बीच में एक दीवार थी, हां धर्म की दीवार। जो दोनों को शायद एक-दूसरे से जुदा किए हुई थी। इसलिए दोनों ने अपने अरमान समेटे हुए एक-दूसरे के साथ इस अनकहे और बेनाम रिश्ते में ही रहना मुनासिब समझा।

वह वक्त भी आया जब दोनों एक-दूसरे से मिलने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। यदि दोनों में से कोई एक कॉलेज ना आता तो दूसरे का कॉलेज में पूरा दिन काटना बेहद मुश्किल हो जाया करता था।

हमारी मोहब्बत का आलम कुछ यूं था कि दोनों अपने घर वालों से छुप कर अब घंटों बातें किया करते थे। अब तो दोनों किसी ना किसी बहाने एक-दूसरे से बाहर भी मिलने लगे थे। कहते हैं ना आप प्यार कितना भी छुपाओ कहां छुपता है, एक दिन आलोक ने आबिदाह को अपने दिल की बात बताने का फैसला लिया और आलोक ने आबिदाह को रविवार के दिन कॉफी पीने के बहाने एक कैफे में बुलाया। आबिदाह जानती थी कि आलोक ने उसे कॉफी पर क्यों आमंत्रित किया है? मामला आगे बढ़ता उससे पहले ही उसने यह बात अपने घर वालों को बताना मुनासिब समझा।

जैसे ही हमारे इस बेनाम रिश्ते की बात आबिदाह के घर वालों को पता चली, मानो जैसे कोई भयंकर तूफान आ गया हो। आबिदाह ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की परंतु घर वाले कहां मानने को राज़ी होते। अगर लड़का अपनी बिरादरी और धर्म का होता तो एक बार सोचते भी परन्तु आलोक ठहरा हिन्दू ब्राह्मण और आबिदाह ठहरी मुस्लिम। आबिदाह के घर में जहां मांस-मच्छी बनता था, वहीं आलोक के घर पर तो इन सब का नाम लेना भी पाप था और समाज क्या कहेगा इसकी भी चिंता उन्हें सताने लगी थी।

इसलिए इस बात का पता चलते ही आबिदाह के अब्बू ने उसका घर से निकलना बंद करवा दिया। वहां आलोक कैफे में आबिदाह के इंतज़ार में बैठे-बैठे थक चुका था और अब तो शाम के 5 बजे से ले कर शाम के 8 बजने को आये थे। वह कैफे में अकेले ही 4 कप कॉफी पी चुका था।

आलोक ने आबिदाह को कई बार फोन करने की कोशिश की

आबिदाह का फोन नहीं लग रहा था, क्योंकि आबिदाह के अब्बू ने आबिदाह का फोन भी उससे ले लिया था। आबिदाह बड़े दुखी मन से सोच रही थी कि कार्यक्रम तो साथ में कॉफी पीने का बना था पर सच जानने के बाद तो यहां अब्बू ही मुझे कॉफी की तरह उबाल रहे हैं। बहरहाल, जब आबिदाह आलोक से मिलने नहीं आ पाई तो आलोक के मन में कई सवाल उठने लगे परंतु उसने अपने मन को शांत करते हुए आबिदाह से अगले दिन कॉलेज में मिलने का फैसला किया। अगले दिन आबिदाह कॉलेज नहीं आई जिस कारण आलोक के मन की बेचैनी और बढ़ गई।

करीब एक हफ्ते तक जब आबिदाह कॉलेज नहीं आई तो आलोक ने उससे मिलने के लिए उसके घर जाने का फैसला किया।

एक दिन कॉलेज से जल्दी निकल कर जब वह आबिदाह के घर पहुंचा तो उसने देखा कि आबिदाह के अब्बू घर के बाहर ही अपनी एक दशक पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बैठे धूप सेक रहे थे। आलोक जैसे-तैसे हिम्मत कर के वहां पहुंचा और आबिदाह के अब्बू को अपना नाम बताया और आगे जैसे ही मैं आबिदाह के कॉलेज ना आने का कारण पूछता, उससे पहले उसके अब्बू समझ गए कि यह वही लड़का है जिसके बारे में आबिदाह ने उन्हें बताया था।

फिर क्या था इतना समझते ही आबिदाह के अब्बू आग बबूला हो गए और तुरंत आलोक को घर से निकल जाने की धमकी दे डाली। आलोक कुछ समझ ही नहीं पाया कि आखिर मामला क्या है? इतने में ही अब्बू के चिल्लाने की आवाज़ सुन आबिदाह भी घर के बाहर आ गई और देखा तो मैं उसके घर के बाहर खड़ा था।

वह आलोक को देख कर बहुत खुश थी, परन्तु अब्बू के सामने आबिदाह बेबस थी। उसने करुणा भरे स्वर में आलोक से हाथ जोड़ कर वहां से जाने को कहा। आलोक आबिदाह को इस तरह देख सब कुछ समझ गया और वह आबिदाह को इस तरह देख ना सका इसलिए बिना कुछ कहे वहां से चला गया। अगले दिन आबिदाह ने एक चिट्ठी में सारी बात लिख डाली और जैसे-तैसे करके चिट्ठी अपनी सहेली के द्वारा मुझ तक पहुंचवा दी।

आलोक ने जब चिठ्ठी पढ़ी तो उसे सारी बात का पता चल गया, यह सब जान कर वह बहुत दुखी था परंतु उसे चिठ्ठी के ज़रिये यह मालूम पड़ गया था कि अबिदाह भी उससे उतनी ही मोहब्बत करती है जितनी कि वह अबिदाह से करता है।

उस चिट्ठी को आलोक ने बहुत संभाल कर रख लिया, क्योंकि आबिदाह ने जाने-अनजाने में ही सही पर अपने प्यार का ज़िक्र पहली बार उस चिठ्ठी में ही किया था।

कॉलेज में परीक्षाएं भी शुरू हो गई थीं

कॉलेज का आखरी सत्र चल रहा था, आलोक को लगा आबिदाह कम से कम परीक्षा देने तो ज़रुर आएगी। तब उससे बात कर ली जाएगी और तब उसे अपने दिल की बात भी कह दूंगा। वह उसे समझा भी देगा कि वह उनके रिश्ते के लिए अपने और उसके माता पिता को भी मना लेगा परंतु आलोक की किस्मत इतनी अच्छी कहां थी।

आबिदाह कॉलेज परीक्षा देने तो आई परन्तु आबिदाह के अब्बू भी उसके साथ आये, वे रोज आबिदाह के साथ उसे परीक्षा दिलाने आते और परीक्षा खत्म होते ही तुरंत अपने साथ घर ले जाते।परीक्षा के दौरान आबिदाह से बात कर पाना थोड़ा मुश्किल था तो इसी तरह परीक्षाएं भी खत्म हो गईं परंतु आबिदाह से बात ना हो पाईं।

इन सब के बीच सबसे अच्छी बात यह हुई कि आबिदाह के अब्बू ने आबिदाह को परीक्षा देने की अनुमति दे दी थी। शायद यह उनकी बेटी के लिए उनका प्यार ही था, जिसने उन्हें उसके तीन सालों की मेहनत को बरबाद होने नहीं दिया।

अब कॉलेज खत्म होने के बाद आलोक की आबिदाह से मिलने की आस धीरे-धीरे खत्म हो रही थी, क्योंकि वह कॉलेज ही तो था जहां आबिदाह से बिना किसी रुकावट के मिल लिया करता था। बाकी अब कोई दूसरा ज़रिया भी न था।

आलोक आबिदाह से बात किए और मिले बिना रह नहीं पा रहा था

इसी तड़प के कारण उसने सोचा कि वह अपने और आबिदाह के रिश्ते के बारे में अपने माता-पिता को सब कुछ बता देगा। आबिदाह के घर में भी बात कर के सब को मना लेगा ताकि सब उनके रिश्ते के लिए राज़ी हो जाएं। आलोक चाहता था कि वह पहले आबिदाह के घर पर सब से बात करके उन्हें अपने रिश्ते के लिए मना ले फिर अपने घर में बात की जाये क्योंकि उसे कहीं ना कहीं यह यकीन था कि वह अपने घर वालों को रिश्ते के लिए मना लेगा। आखिर माँ-बाप का लाडला जो था परंतु दिक्कत तो यह थी कि आबिदाह के अब्बू इस विषय पर बात ही नहीं करना चाहते थे।

परीक्षा समाप्त होने के तीन दिन बाद आलोक हिम्मत करके आबिदाह के घर पहुंचा परंतु आलोक ने घर पहुंच कर देखा कि आबिदाह के घर पर ताला लगा हुआ था।

आलोक ताला देख कर बहुत परेशान हो गया और उसके मन में बहुत अजीब-अजीब से ख्याल कौंधने लगे। फिर आलोक ने आस-पड़ोस से उनके बारे में पता करने की कोशिश की और किसी ने बताया कि वह अब लखनऊ छोड़ कर कहीं चले गए हैं लेकिन कहां गए हैं? यह किसी को मालूम ना था। इतना सुन कर आलोक का दिल टूट सा गया। उसकी आंखें आबिदाह को एक बार देखने को तरस रही थीं। उसका मन उसे बार-बार यह कह रहा था कि शायद उसने आने में बहुत देर कर दी।

करीब एक महीने तक आलोक रोज़ आबिदाह की गली में एक चक्कर ज़रूर लगाया करता था, कि कब उसे उस दरवाज़े का ताला खुला मिलेगा और कब उसकी बात फिर आबिदाह से हो पाएगी। वह कब अपनी आबिदाह को दुबारा देख पायेगा। इसी तरह समय बीतता गया और अब यादें धुंधली पड़ती जा रही थीं। अब आलोक अपने जीवन की प्रगति की दौड़ में लग गया था जहां शायद उसके पास अब इन प्यार जैसी चीज़ों के लिए उसके दिल में कोई जगह न थी।

पांच साल बाद आलोक की ज़िन्दगी

आज उस बात को गुज़रे पांच साल हो चुके थे। आलोक अब एक बहुत ही जाना-माना आई.ए.एस अधिकारी बन चुका था। मोहल्ले में उसके परिवार का रौब-रुतबा और बढ़ गया था। फिलहाल आलोक अपने माता-पिता के साथ कम ही रहता था, क्योंकि उसका तबादला कभी मुंबई, कभी दिल्ली तो कभी देश के किसी छोटे से ज़िले में भी हो जाया करता था। आखिर उसका काम था ही ऐसा वैसे आज कल आलोक उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले में था, जहां उसका तबादला फिलहाल एक हफ्ते पहले ही हुआ था।

सहारनपुर में मुस्लिम लोगों की आबादी काफी ज़्यादा है और यहां हर दूसरी महिला आपको बुर्के में दिख जाएगी। हालांकि, जैसे ही आलोक को यहां कोई महिला बुर्के में दिखाई देती तो उसे उसकी ज़िन्दगी के कुछ पुराने पन्नों की याद दिला जाती। वह सुहानी यादें जहां सिर्फ आलोक और आबिदाह थे।

खैर, जैसे ही आलोक अपने दफ्तर पहुंचा उसकी नज़र उसके मेज पर पड़ी हुई एक चिट्ठी की तरफ पड़ी। उसने उसको खोल कर पढ़ा तो उसमें उसके ही ज़िले के किसी सरकारी विद्यालय में बच्चों की शिक्षा और स्कूल प्रबंधन के काम-काज के विषयों से जुडी शिकायतें लिखी हुई थीं। यह शिकायतें वहीं के किसी अध्यापक ने की थीं। जो इन सभी विषयों में सुधार चाहते थे, परंतु यह चिठ्ठी लिखने वाला कौन था? यह पता ना चल पाया। क्योंकि लिखने वाले ने अपना नाम गोपनीय रखने के लिए चिट्ठी में अपने नाम का ज़िक्र नहीं किया था।

आलोक अब एक “आई.ए.एस” अधिकारी था और इस गंभीर विषय पर विद्यालय के ही किसी अध्यापक ने सीधे शिकायत की थी तो तुरंत कार्यवाही करना ज़रुरी था। “आई.ए.ऐस” साहब उठे और अपनी गाड़ी में सवार हुए विद्यालय का जायज़ा लेने चल दिए। विद्यालय पहुंचते ही उन्होंने अपनी कार्यवाही शुरू कर दी। एक-एक करके उन्होंने सभी अध्यापक और बच्चों से बात की और बात करने पर पता चला कि विद्यालय का हाल बेहद खराब था। वहां पर कुछ नए अध्यापकों की नियुक्ति करने की बेहद आवश्यकता थी और विद्यालय को सुचारु रूप से चलाने के लिए धन की भी काफी आवश्यकता थी। जिसके लिए उन्होंने विद्यालय को धन की आपूर्ति कराने का आश्वासन दिया और उन्होंने कुछ कठोर निर्णय भी लिए। उन्होंने तुरंत कुछ कामचोर अध्यापकों को विद्यालय से निकालने का फैसला भी लिया।

जब आलोक ने विद्यालय के सभी अध्यापकों से मिलने की इच्छा जताई

वह चाहते थे कि अध्यापकों को समझा सकें कि बच्चों के जीवन में अच्छी शिक्षा का क्या महत्व है। आखिर वह खुद एक “आई.ए.एस” थे। वह शिक्षा का महत्व भली-भांति समझते थे। प्रधानाचार्य जी ने तुरंत अध्यापकों की मीटिंग बुलवाई और थोड़ी ही देर में सभी अध्यापक “असेंबली ग्राउंड” में जमा हो गए और फिर जैसे ही आलोक उन्हें कुछ कहते, उनके बीच किसी को देख हैरान रह गए।

बहरहाल, आलोक ने बोलना आरम्भ किया परन्तु उसके शब्द मानो लड़खड़ा रहे हों, क्योंकि उन अध्यापकों के बीच एक मोहतरमा खड़ी थीं। वैसा ही काला बुर्का पहने, वही भूरी आँखे और वही नूर से भरा चेहरा परंतु शायद इस चहरे में वह चमक ना थी। जी हां, आलोक ने इतने साल बाद अपनी खोई हुई मोहब्बत आबिदाह को देखा था, जिस कारण वह उस वक्त कुछ समझ नहीं पा रहा था।

आबिदाह उसी विद्यालय में अध्यापिका थीं

आबिदा उसी विद्यालय में “राजनीति विज्ञान” पढ़ाया करती थी। आबिदाह भी आलोक को देख कर बहुत हैरान थी, पर एक तरफ आलोक को दुबारा देख उसकी खुशी का ठिकाना ना था जिसके कारण उसकी आंखों में आंसू आ गए थे। वह आलोक से जा कर तुरंत गले लग जाना चाहती थी, परंतु अपने सारे अरमान समेटे हुए एक कोने में जा खड़ी हुई और आलोक से नज़रें चुराने लगी।

आलोक हैरान था और कहीं ना कहीं उसका दिल भी बार-बार उसे आबिदाह के पास जाने को कह रहा था। आबिदाह को इतने सालों के बाद देख उसका दिल भी भर आया था। जिस मोहब्बत को उसने इतना ढूंढा आज वह उसके सामने खड़ी थी परंतु समय की नज़ाकत को समझते हुए आलोक ने जल्दी से अपनी बात अध्यापकों को समझायी और सारी बाते खत्म होने के पश्चात सभी अध्यापक अपनी-अपनी कक्षा में चले गए परन्तु आबिदाह अभी भी वहीं कोने में खड़ी थी।

सबके वहां से चले जाने के बाद आलोक आबिदाह के पास गया और उससे एक हाथ की दूरी पर खड़े हो कर उसे देखे जा रहा था, आलोक की भी आंखें भर आई थीं।लेकिन, उसने अपने आंसुओं को बाहर छलकने ना दिया और आबिदाह से बस एक ही सवाल पूछा क्या इतने सालों में तुम्हे कभी मेरी याद नहीं आई? इतना सुन कर आबिदाह फूट-फूट कर रोने लगी और उसे ऐसे रोता देख आलोक ने उसे गले से लगा लिया और वह पल शायद गवाह था कि भले ही दोनों एक दूसरे से बिछड़ गए हों परंतु दोनों का प्यार एक दूसरे के लिए अभी भी ज़िंदा था

उसी वक्त ना जाने आलोक के मन में एक सवाल उठ खड़ा हुआ की कहीं आबिदाह का निकाह किसी और से ना हो गया हो। उसने तुरंत अपने मन की बेचैनी को मिटाने के लिए आबिदाह से यह सवाल पूछ डाला कि उसने अब तक निकाह किया या नहीं?

आबिदाह ने बताया कि उनके सहारनपुर आने के एक साल पश्चात ही कैंसर की बीमारी के कारण उसके अब्बू का इन्तकाल हो गया था। अब घर की रोज़ी-रोटी चलाने के लिए घर में कमाने वाला कोई नहीं था, इसलिए उसने विद्यालय में पढ़ाना शुरू किया।जिससे की उसके घर का गुज़र-बसर अच्छे से हो सके। परन्तु आबिदाह के अलावा उसकी अम्मी का कोई नहीं था इसलिए उसने निकाह ना करने का फैसला किया। अम्मी के साथ ही रह कर उनकी देखभाल करने की सोची।

आबिदाह के अब्बू के इन्तकाल की खबर सुन कर आलोक काफी दुखी था और जिस तरह आबिदाह को इतनी दिक्कतों का सामना करना पड़ा उसके लिए आलोक सोच रहा था कि वह उस मुश्किल घड़ी में आबिदाह के साथ क्यों नहीं था।

बहरहाल, आबिदाह का निकाह नहीं होने की बात से आलोक कहीं ना कहीं खुश भी था। आलोक ने उसी वक्त आबिदाह से ज़िन्दगी भर उसका साथ निभाने का वादा किया। उन्होंने उसी वक्त एक निर्णय लिया कि चाहे वह किन्ही भी कारणों से इतने समय एक दूसरे से दूर रहे हों परन्तु अब वह कभी एक दूसरे से अलग नहीं होंगे परन्तु आबिदाह अपनी अम्मी को लेकर काफी चिंतित थी।

आलोक ने घर पहुँच कर सारी बात अपने माता-पिता को बताई और उन्हें अपने इस रिश्ते के लिए राज़ी भी कर लिया परंतु धर्मों के फासलों की वजह से आलोक को भी उनकी कई शर्ते माननी पड़ीं।

इसी बीच आलोक अगले दिन अपने माता-पिता को साथ लेकर आबिदाह के घर पहुंचा, आबिदाह की अम्मी को आबिदाह ने सारी बात बता दी थी। उम्र के उस पड़ाव में अपनी बेटी का भला सोचते हुए वह भी उनके रिश्ते के लिए राज़ी हो गई थीं। आबिदाह के अब्बू और अम्मी भले ही दोनों के प्यार के बीच खड़े थे परंतु इतने सालों के बाद भी अलग होने के बावजूद दोनों का प्यार एक-दूसरे के लिए कम ना होते हुए देख उसकी अम्मी को इस बात की तसल्ली थी कि आलोक उनकी बेटी को हर वह खुशी देगा जिसकी वह हकदार है।

आबिदाह इन सब के बावजूद थोड़ी चिंतित थी और उसकी चिंता को आलोक पहले ही भांप चुका था। उसने उसी वक्त अपने माता-पिता से यह कहा कि आबिदाह की अम्मी का आबिदाह के अलावा और कोई नहीं है, इसलिए हमारी शादी के बाद अम्मी हमारे साथ ही रहेंगी। आलोक के माता पिता ने कुछ देर सोचा-विचार किया और फिर अपने बेटे के फैसले को बिना किसी परेशानी के मान लिया और अब आबिदाह भी निश्चिन्त थी।

इतनी जद्दोजहद के पश्चात आखिर वह दिन आ ही गया जिस दिन दोनों एक दूसरे के बंधन में बंध गए। उन्होंने अपने प्यार को मुकम्मल भी किया और शायद कहीं ना कहीं दोनों के इस प्यार भरे रिश्ते से उनके माँ-बाप भी काफी खुश थे। आखिरकार इतने सालों के बाद भी आलोक और आबिदाह का सच्चा प्यार उन्हें पास ले ही आया। भले ही दोनों अलग-अलग धर्म को मानते हों परंतु इस प्यार की वजह से अब आलोक और आबिदाह दिवाली और ईद साथ में मनाते हैं।

 

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