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प्राचीन गुरुकुल शिक्षा पद्धति हमारी नई शिक्षा पद्धति से बेहतर, जानिए कैसे?

हमारी शिक्षा पद्धति

अपनी छोटी बुद्धि के द्वारा भारत की अधिकांश समस्या की जड़ ‘वर्तमान भारतीय शिक्षा पद्धति’ पर अपना दृष्टिकोण रखने का प्रयास कर रहा हूं। अत: आपके पास समय हो तो एक बार ज़रूर पढ़िएगा जिससे मेरा लिखना सार्थक हो सके।

हमको साक्षर होना है? शिक्षित होना है? ज्ञानी या पण्डित होना है? रचनात्मक होना है? रोज़गार पाना है? या रोज़गार बनाना है?

यह सत्य है कि भारत में, स्विट्ज़रलैंड की तरह जनसंख्या नहीं है।  लेकिन तथ्य यह है कि भारत उस जनसंख्या से ज़्यादा हर साल इंजीनियर पैदा करता है। बहरहाल, जब अन्वेषण होता है और वैश्विक स्तर पर देशों की तुलनात्मक सूची तैयार की जाती है तो स्विट्ज़रलैंड का नाम पहले आता है। ASER की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 80 प्रतिशत से अधिक लोग ऐसे हैं जो अच्छी नौकरियों के लिए योग्य ही नहीं हैं, इसके मुख्य रूप से क्या-क्या कारण हो सकते हैं? इन कारणों को जानने के लिए हमारे पास अधिकृत रूप से किसी एजेंसी या समिति की रिपोर्ट नहीं है।

कैरियर सिक्योर करने की जद्दोजहद

मुकेश अम्बानी, सत्या नडेला, सुंदर पिचाई, शाहरुख़ खान, आमिर खान इत्यादि अपने जीवन में वह सफल हस्तियां हैं, उनकी देखा-देखी हर कोई उनकी तरह या उनके समतुल्य बनना चाहता है। ऐसे में वह आपकी नज़र में भारत का सफल व्यक्ति क्यों ना हो? जब आप उसके जीवन के बारे में अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि या तो उसने बाहर किसी अन्य देश से अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण की होगी या हमारी इस भारतीय शिक्षा व्यवस्था के जाल में नहीं फंसा होगा, तभी वह आज विश्व में अपनी अलग पहचान बना रहा है।

अगर आप हमारी भारतीय शिक्षा व्यवस्था के जाल में फंसे तो आपके सामने जो सबसे बड़ी समस्या आने वाली होती है, वह अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी होने के बाद अपने भविष्य के लिए अपना ‘कैरियर सिक्योर’ करने की है। हमारे देश भारत में आज एक बड़ी संख्या में युवाएं चार-चार, पांच-पांच सालों से एसएससी, रेलवे, बैंकिंग आदि परीक्षाओं की तैयारियों में लगे हुए हैं, इसका प्रमुख कारण है ‘जॉब सिक्यूरिटी’ का होना।

एक जन-संवाद का दृश्य

‘भारत में विकास बहुत मंद गति से हो रहा है। कॉंग्रेस से अच्छी भाजपा है, भाजपा से अच्छी कॉंग्रेस है।

यहाँ सब लोग भ्रष्ट हो गए हैं, यहां कुछ नहीं बदलने वाला।’

यह आम जन-संवाद के शाब्दिक टूल्स हैं, जिनका इस्तेमाल करके हम और कमज़ोर होते जा रहे हैं। भारत हो या दुनिया का कोई भी अन्य देश हो, वहां की जो भी समस्याएं हो अगर आप उसकी तह में जाएंगे तो आपको हर दृष्टिकोण की तरफ से वह समस्या किसी ना किसी रूप में शिक्षा से जुड़ी मिलेगी। मनुष्य की पहली प्राथमिकता स्वास्थ्य होनी चाहिए परंतु स्वास्थ्य के बाद उस स्वास्थ्य को स्वस्थ बनाए रखने के लिए कोई उपकरण है तो वह उपकरण है शिक्षा।

यहां शिक्षा से मेरा मतलब साक्षर होने से नहीं है, गाँधी जी कहते थे कि ‘साक्षरता तो स्त्री और पुरुष को शिक्षित करने का साधन मात्र है। साक्षर होने से शिक्षित होने तक का एक पूरा चक्र है, जिसके उपरान्त आती है ज्ञानी या पण्डित होने की बात।’

हमारी भारतीय शिक्षा प्रणाली एक जाल होने के बावजूद भी इतनी आकर्षक क्यों लगती है? इसे समझने के लिए हमें इतिहास के पन्ने पलटने पड़ेंगे। आप थॉमस बबिंगटन मैकॉले के द्वारा 1835 में दी गई ‘डाउनवार्ड फिल्ट्रेशन थ्योरी’ पर एक नज़र डालिए जिसे ब्रिटिश गवर्नर जनरल के समक्ष रखा गया था। जिसका मुख्य उद्देश्य था कि एक एलीट वर्ग बने जो इंग्लिश जानता हो, वह भारतीय हो पर इनका वफादार हो यानि कि एक भारतीय वर्ग अंग्रेजी भाषा का ज्ञाता हो जो एलीट वर्ग में आता हो और बाकी सब अनपढ़, गंवार जिनको ज़ाहिल की श्रेणी में रखा जा सके। ‘इंग्लिश एजुकेशन एक्ट 1835’ यही था, जिससे भारत और भारतीय शिक्षा प्रणाली में भेदभाव की नीति का आरम्भ हो चुका था।

वैश्विक स्तर पर पॉपुलर होती अंग्रेज़ी ने भारत में अपनी जगह बना ली

हमारे देश भारत को छोड़कर हम सब जानते हैं कि कई देश जैसे चीन,रूस, फ्रांस, जर्मन,जापान आदि जो पूर्ण रूप से विकसित हैं, वहां इंग्लिश की कोई ऐसी स्टैट्स या वैल्यू नहीं है‌। भारत में तो बहुत से ऐसे प्रबुद्ध वर्ग हैं जो इंग्लिश को ज्ञान तक से जोड़ कर देखते हैं। खैर, इसमें इन लोगों का दोष नहीं यह व्यवस्था तो 1835 से ही चली आ रही है।

हालांकि भारत का दोष यह ज़रूर है कि यहां अंग्रेजी भाषा की भाषाई चेन टूटी नहीं बल्कि निरंतर अपनी गति से चलती रही। देश में बहुत से ऐसे लोग हैं जो 8-10 साल तक अंग्रेजी भाषा सीखे लेकिन आज भी उनके अंग्रेजी बोलने में परफेक्शन नहीं आ पाया। वहीं दूसरी ओर 6वीं, 7वीं के कुछ बच्चे-बच्चियां हैं, जो मात्र 2 या 3 साल में अंग्रेज़ी सीख जाते हैं। क्योंकि ऐसे बच्चों को बचपन से ही ऐसा परिवेश मिलता है जहां इसे ज्ञान से नहीं जोड़ा जाता है।

शिक्षा को लेकर गांधी जी की सोच व उनका नज़रिया

गांधी जी का भी मानना था कि भारतीयों को शिक्षा उनकी अपनी मातृभाषा में दी जानी चाहिए। जिससे बच्चों का भी विकास होगा और राष्ट्र का भी। शिक्षा का कुछ बेहतर परिणाम हो जिससे रोज़गार के साथ-साथ समाज का भी विकास हो यानि ‘ब्रेड अर्निंग थ्योरी’ वह यह चाहते थे कि भारत का जो व्यक्ति शिक्षा ले रहा है और वह जो शिक्षित नहीं है ऐसे सभी लोग शारीरिक श्रम करें। जिससे पढ़े-लिखे लोगों के मन में जो काम-काज करने वाले लोगों के प्रति हेय भावना नहीं आएगी।

जब सभी लोग एक-दूसरे को समान नज़रिये से देखेंगे जिससे अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बीमारी खत्म होगी और शारीरिक श्रम करने से स्वास्थ्य को लाभ भी होगा। गांधी ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहते थे जिससे एक व्यक्ति के जीवन का आंतरिक और बाह्य रूप से विकास हो।

शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली आज की शिक्षा प्रणाली से बेहतर है

अगर हम पहले समय की गुरुकुल शिक्षा परम्परा की बात करें तो वह प्रणाली आज के समय से कई गुना बेहतर थी। उससे शिक्षित होकर विद्यार्थी कुछ ना कुछ समाज के लिए करते रहते थे। पहले के समय में आज के वर्तमान समय की तरह विद्यार्थियों के पास बेंच-डेस्क, इमारतें आदि भव्य सुविधाएं नहीं होती थीं। फिर भी उस समय विद्यार्थी उच्च कोटि की तालीम हासिल किया करते थे लेकिन आज के समय की शिक्षा घर के कार्यों में कोई योगदान नहीं दे पाती है।

उस समय जब खेतों में किसानी का समय आता था तो सारे गुरुकुल एक निश्चित समयावधि तक के लिए बंद हो जाते थे। जिससे सारे बच्चे अपनी क्षमता के अनुसार माता-पिता का कृषि कार्यों में हाथ बंटा सके। गुरुकुल पद्धति वाली शिक्षा व्यवस्था में ऐसा क्या दम था कि वह आज की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से श्रेष्ठ है? आप मैकॉले के भारत भ्रमण पर नज़र डालिए, जिसने विश्लेषण करके यहां की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट पेश की थी। जिसके दौरान ही उसने भारत की उस दुखती नब्ज़ को पकड़ा जिसे ‘फूट डालो और राज करो’ कहा जाता है। 1835 का ‘अंग्रेजी एजुकेशन एक्ट’ को समझने के लिए आप बालगंगाधर तिलक की ‘गुरुकुल व्यवस्था’ को समझ सकते हैं।

स्वामी विवेकानन्द ने ‘हमारी गुरुकुल व्यवस्था को पाश्चात्य देशों का सांस्कृतिक उपनिवेश बताया था। आज हम ‘हैप्पी न्यू इयर’ मनाते हैं, वैलेंटाइन डे मनाते हैं। इन सब के लिए प्रयोग में आने वाले मंहगे गिफ्ट्स कहां से आते हैं, ज़ाहिर है कि सब वस्तुएं पाश्चात्य देशों से ही इम्पोर्टेड होती हैं।

कुछ शब्द अंग्रेज़ों के द्वारा दिए गए कॉन्वेंट स्कूलों की शिक्षा पद्धति के बारे में

अंग्रेज़ हमारा देश छोड़ कर चले गए लेकिन कुछ लोग आज भी अंग्रेज़ बनने-बनाने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं। ध्यान दीजिएगा कि मैं अंग्रेजी भाषा के खिलाफ नहीं हूं। इसे सिखाने की पद्धति के खिलाफ हूं। रोज़ सुबह कॉन्वेंट स्कूलों में अंग्रेज़ी में प्रार्थनाएं होती हैं। यह स्कूल वाले प्रार्थना दिखाने के लिए कराते हैं या सच में मानसिक शान्ति के लिए? क्योंकि मानसिक शान्ति तो तब मिलेगी, जब यह समझ आये कि हम प्रार्थना में कह क्या रहे हैं। अगर समझ में आ भी गई तो उस तरीके से हम उससे नहीं जुड़ पाएंगे जो हमारी मातृभाषा में प्रार्थना कर के जुड़ने का अनुभव करते हैं।

रबिन्द्रनाथ ठाकुर’ का कहना था कि शिक्षा ग्रहण करने में उसका भौगोलिक परिवेश बड़ी भूमिका निभाता है। आज के कान्वेंट स्कूलों में जैक एंड जिल याद कराया जाता है। रटने को तो बच्चे रट लेते हैं और कुछ उसका मतलब भी समझ लेते हैं लेकिन उससे बच्चे को सीखने के लिए क्या मिला? लाख कोशिश कर ली जाए पर उसी छोटी उम्र का नेटिव स्पीकर बच्चा उस कविता को जैसे रिलेट कर पाएगा वह हमारे बच्चे नहीं कर सकते।

यह ठीक वैसे ही जैसे कृष्ण की बाललीला का छोटा सा वर्णन हो किसी हिंदी कविता में तो उसे यहां के बच्चों की तरह और किसी देश के बच्चे नहीं समझ पाएंगे। वह रट भले ही लें। क्योंकि यहां के बच्चों ने कृष्ण को सिर्फ सुना नहीं बचपन से कृष्ण को जिया है। इसलिए सोचने-समझने की प्रक्रिया में फर्क आना स्वाभाविक ही है।

वर्तमान समय में बच्चों को बस पढ़ाया जा रहा है सिखाया नहीं

आज की शिक्षा प्रणाली में पूरी की पूरी प्रक्रिया सीखने को छोड़ कर रटने पर चल रही है। वर्तमान में उपस्थित कुछ गुरुकुल भी सिर्फ इसी ढर्रे पर चल रहे हैं। हिन्दी साहित्य के बड़े व्यंग्यकार श्री लाल शुक्ल अपने कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी में’ कहते हैं कि ‘वर्तमान शिक्षा पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है जिसे कोई भी लात मार सकता है।’

अब आप इस उक्ति को लक्षणा में लें या व्यंजना में सब ठीक है। मैं मानता हूं कि बहुत सी ऐसी चीज़ें हैं, जो हमें रटे बिना नहीं आ सकतीं लेकिन रटने के साथ-साथ सिखाया भी जाए। कॉलेजों में शोध कार्य कराए जा रहे हैं लेकिन सब खानापूर्ति है यानी सिर्फ औपचारिकता हो रही है। उन शोध कार्यों में शोध छात्र और उससे जुड़े हुए अध्यापक से रचनात्मक कुछ हो ही नहीं रहा है।

श्री लाल शुक्ल जी ने राग दरबारी में कहा है कि ‘कहा तो घास खोद रहा हूं, इसी को अंग्रेज़ी में रिसर्च कहते हैं।’ आज़ादी के बाद भारत ने विज्ञान के क्षेत्र में ज़ीरो नॉवेल लॉरेट्स पैदा किए हैं। जो भारतीय मूल के कुछ व्यक्ति हैं भी वह सब यहां की शिक्षा पद्धति को त्याग कर नोबेल मिलने के समय अमेरिका के निवासी हैं तो इनको नोबेल मिलने में भारत का क्या योगदान? भारत में ज़्यादातर अच्छे छात्र या अच्छे प्रोफेसर व्यक्तिगत विकास के लिए अवसर मिलने पर भारत छोड़ देते हैं पर ऐसा क्यों?

कुछ नाम जैसे हर गोबिंद खुराना (1968) दवा के क्षेत्र में, सुब्रहन्यम चंद्रशेखर (1989) फिज़िक्स में, वेंकी रामकृष्णन (2009) केमिस्ट्री में एवं अभिजीत बनर्जी (2019) इकॉनॉमिक्स में नोबेल मिलने के समय इन सबकी नागरिकता यूएस की थी। हम भारतीय इसी में खुश होते हैं कि चलो भारत में इन सब ने जन्म तो भारत में ही लिया था,लेकिन कब तक हम ऐसे तथाकथित गौरव को लेकर झूठे गर्व का भार ढोएंगे।

हमें समझना होगा कि शिक्षा का असल महत्व क्या है

ज़ाहिर है एक राष्ट्र को राष्ट्र बनाने और वैश्विक गौरव दिलाने में ज़्यादातर जो देश सफल हुए हैं, उन्होंने अपने बजट का ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा शिक्षा में शोध कार्यों पर खर्च किया है। भारत इस मामले में अन्य देशों के मुकाबले इतना पीछे है कि अन्य विकसित देशों की अपेक्षा 10 गुना कम बजट शिक्षा में शोध कार्यों पर खर्च करता है। जब सरकार ही इसमें रुचि नहीं लेगी तो ना ही शोध के लिए अधिक बच्चे इसमें रुचि लेंगे ना ही एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होगी ना ही कोई नया सृजन होगा जिससे हम वैश्विक स्तर पर वास्तविक रूप में गौरव हासिल कर सकें।

भारत में सबसे बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था जहां के सरकारी स्कूलों की है वह है दिल्ली। दिल्ली में यह पहले भी अच्छी थी लेकिन शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया जी ने ऐसा क्या कर दिया वहां के स्कूलों में जो ट्रम्प की बेटी इवांका ट्रम्प भी अपने भारत दौरे पर इनकी तारीफ किये बिना न रह पाईं, उन्होंने इन स्कूलों को देश के प्राइवेट स्कूलों से भी बेहतर बताया।

दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया के भाषण से लिए गए यह कुछ उदाहरण हैं, जिसके माध्यम से उन्होंने एक स्कूल में दिल्ली के सरकारी टीचरों को संबोधित करते हुए बहुत कुछ कहा। उन्होंने कहा,’ हम क्या पढ़ा रहे हैं और हमें क्या पढाना चाहिए जैसे 2×3=6 होता है, यह आपने बच्चे को सिर्फ रटाया नहीं सिखा भी दिया तो मरते समय तक बच्चा 2×3=5 नहीं बोलेगा। ऐसे ही अगर आप बच्चों को गाड़ी चलाते समय हेलमेट क्यों पहनना चाहिए,हमें ट्रैफिक रूल्स फॉलो करने चाहिए। यह सिर्फ हमने पढ़ाया नहीं होता बल्कि ऐसा सिखा दिया होता कि वह चीज़ें प्रोग्राम हो गयी होती मस्तिष्क में यानी बातें बच्चे के दिमाग और मन में घर कर गई होतीं जिससे वह कभी सड़क दुर्घटना का शिकार होता ही नहीं।’

वह आगे कहते हैं कि ‘दूसरी बात यह है कि हम लोग विलोम शब्द पढ़ाते हैं रात का उल्टा दिन, मालिक का उल्टा नौकर, धरती का आकाश। सोचने की बात यह है कि ऐसे शब्द एक दूसरे के विलोम हैं या पूरक हैं? रात के बिना दिन का कोई अस्तित्व है क्या? पुरुष के बिना स्त्री का या स्त्री के बिना पुरुष का कोई अस्तित्व है? मालिक के बिना नौकर या नौकर के बिना मालिक क्या अकेले काम कर सकता है? यह सारी चीज़ें विचारणीय हैं कि यह एक दूसरे के उल्टे हैं या एक दूसरे को पूरा करते हैं।’

कोई भी व्यक्ति किसी भी तरीके से पूर्ण नहीं हो सकता

हाल ही में सीबीएसई 12वीं का रिज़ल्ट आया जिसमें लगभग 1.5 लाख से अधिक बच्चे 90 प्रतिशत से ज़्यादा अंक लाए। 30 हज़ार से अधिक बच्चे 95 प्रतिशत से अधिक। वहीं एक बच्ची और बच्चे ने तो 100 प्रतिशत अंक पाए। इनमें कोई दोष या कमी नहीं है, अब मैं इन बच्चों या जो भी पूरे अंकों में से पूरे अंक पाए हैं चाहे वह टोटल हों या कोई पर्टिकुलर सब्जेक्ट में हों। मैं इन छात्रों के मेहनत या सामर्थ्य पर सवाल नहीं कर रहा हूं। ऐसा नहीं कि इन्होंने मेहनत नहीं की होगी या सीबीएसई ने इन्हें मुफ्त में नंबर बांटे हैं, बल्कि मैं बस यह जानना चाह रहा हूं कि कुछ विषय ऐसे होते हैं जिनमें पूरा नंबर दिया ही नहीं जा सकता गणित, विज्ञान जैसे विषयों को छोड़ कर।

उदाहरण के तौर पर आप मान लीजिये कि हिन्दी या अंग्रेज़ी के विषय में किसी टॉपिक पर निबंध लिखने के लिए प्रश्न है, उसमें आप बच्चे को 15 में से 15 दे कर क्या साबित करना चाहते हैं? इसका अर्थ तो यही हुआ कि वह निबंध अब तक का श्रेष्ठ है और इससे बेहतर कोई लिख ही नहीं सकता। अब सीबीएसई को आउट ऑफ आउट वाली संख्या पद्धत्ति से बाहर निकलना पड़ेगा। हम सब जानते हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी भी तरीके से पूर्ण नहीं हो सकता। अरे अपूर्णता ही तो वह उत्प्रेरक होती है जो व्यक्ति से कुछ कराती है और आप बच्चों पर पूर्णता का ठप्पा लगा कर उनकी गति एवं सृजनात्मकता को गलत दिशा दे रहे हैं।

इसी क्रम में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता जिसका हिन्दी अनुवाद ‘आचार्य शिवमंगल सिंह सुमन जी’ ने किया है एक बार पढ़ी जानी चाहिए-

जहां चित्त भय से शून्‍य हो

जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें

जहां ज्ञान मुक्‍त हो

जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित करें

छोटे और छोटे आंगन ना बनाए जाते हों

जहां हर वाक्‍य ह्रदय की गहराई से निकलता हो

जहां हर दिशा में कर्म के अजस्‍त्र नदी के स्रोत फूटते हों

और निरंतर अबाधित बहते हों

जहां विचारों की सरिता

तुच्छ आचारों की मरू भूमि में ना खोती हो

जहां पुरूषार्थ सौ-सौ टुकड़ों में बंटा हुआ ना हो

जहां पर सभी कर्म, भावनाएं, आनंदानुभूतियां तुम्‍हारे अनुगत हों।

हे पिता, अपने हाथों से निर्दयता पूर्ण प्रहार कर

उसी स्‍वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ।

 

Where the mind is without fear and the head is held high;

Where knowledge is free;

Where the world has not been broken up into fragments by narrow domestic walls;

Where words come out from the depth of truth;

Where tireless striving stretches its arms towards perfection;

Where the clear stream of reason has not lost its way into the dreary desert sand of dead habit;

Where the mind is led forward by thee into ever-widening thought and action

Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.

 

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