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जब मुझे कई सालों के बाद मीठे आलुओं का स्वाद मिला

आलू की तस्वीर

आलू की तस्वीर

मेरे घर में कुल मिला कर सात सदस्य हैं। मैं, मेरे दो जुड़वा छोटे भाई, दो बड़ी बहने, पापा और माँ। यह किस्सा करीब 15 साल पुराना है। हमारे घर से थोड़ी दूर एक बाज़ार लगता है क्योंकि वह कई सालों से शुक्रवार को लगता आ रहा है इसलिए सबने उस बाज़ार का नाम शुक्र बाज़ार रख दिया।

वहां सब्ज़ी वाले ज़मीन पर बोरा बिछा कर बैठते हैं तथा सारी सब्ज़ियां बहुत ही कम दामों में मिला करती हैं। शाम 5 बजे से बाज़ार सजना चालू होता है और धीरे-धीरे बाज़ार का हाल दिल्ली की डीटीसी बसों की तरह हो जाता है, जो कि सुबह 8 बजे से ही खचा-खच भर जाती है।

सस्ते दामों में बेचकर नौ दो ग्यारह हो लिया करते थे

मैं उस समय 9 साल का था। 10 बजते-बजते बाज़ार खाली होने लगता था और 11 बजे के करीब बस बची-खुची सब्ज़ियां ही मिलती थी। सब्ज़ियों का भाव बाज़ार में शाम के ढलते-ढलते घटने लगता था मतलब आप समझ गए होंगे कि 11 बजे थोड़ी सड़ी-गली, कच्ची पक्की सब्ज़ियां ही बचती थी जो सब्ज़ी वाले आख़िर में एकदम सस्ते दामों में बेचकर नौ दो ग्यारह हो लिया करते थे।

11 बजे के बाद वो सब सब्ज़ियां या तो किसी नाले में फेंक दी जाती या फिर किसी ढाबे वाले को मिट्टी के भाव बेच कर सब्ज़ी वाले अपना बोरिया बिस्तर समेट लेते थे लेकिन करीब 10:30 बजे हर शुक्रवार एंट्री होती करन अर्जुन फिल्म की दुर्गा और उसके करन अर्जुन की।

अपनी बहनों से पूछता, “माँ कहां है, माँ कहां है?”

दुर्गा मतलब मेरी माँ और करन अर्जुन दोनों का रोल मैं निभाता था। माँ और मैं बहुत गप्पे लड़ते हैं। हमारी बचपन से ही हर बात पर एक मीठी सी बहस छिड़ी रहती है। हम दोनों हमेशा से ही एक दूसरे से किसी भी विषय पर बात कर लेते हैं।

चाहे वह पड़ोस में रहने वाली औरतों की बुराई हो, स्कूल में कौन लड़का डॉन बनता था या किस लड़के ने किस लड़की को प्रपोज़ किया। किसी रात आधा पेट खाने से नींद अच्छे से क्यों नहीं आयी?

लंच में रात के दाल चावल ले जाने पर दोपहर तक उसमें से बू आने लगती थी तो उस खाने को अपना मन मरते हुए फेंक कर शाम को लौटते वक्त पूरे दिन की भूख की वजह से वह असहनीय पेट दर्द झेलते हुए भी मैं कैसे मुस्कुराता हुआ घर लौट कर अपनी बहनों से पूछता, “माँ कहां है, माँ कहां है?”

मैं कही भी कभी भी घर से बाहर जाता हूं तो लौट कर ज़बान पर एक ही प्रश्न रहता है, “माँ कहां है?” माँ और मैं सब कुछ डिस्कस करते हैं। जैसे- मेरी कोई गर्लफ्रेंड है या नहीं से ले कर पीरियड्स में कब-कब और क्यों लड़कियों के पेट में दर्द होने लगता है और उस वक्त दर्द से छुटकारा पाने के लिए क्या करना चाहिए?

थोड़ी वैराइटी भी तो होनी चाहिए ना खाने में

सारी सब्ज़ियों में मुझे आलू बहुत पसंद है। आलू की खासियत यह है कि वह किसी भी सब्ज़ी के साथ बनाया जा सकता है और ज़रूरत पड़ने पर अकेला भी। एक पुराना हरे रंग का थैला जो कि काफी घिस चुका था और हम उसमें कई सालों से सब्ज़ियां ढो रहे थे। हमेशा की तरह सबसे नीचे आलू डाल कर व दो नयी सब्ज़ियां जो हर हफ्ते बदल दी जाती थी और जिन्हें अगले छह दिन चलाना होता था।

फोटो साभार: Twitter

उन्हें उस थैले में आलुओं के ऊपर सजा लेते थे। सातवें दिन तो बाज़ार से सब्ज़ी खरीदनी ही होती थी। बीच-बीच में किसी दिन काली या फिर पीली दाल भी घर में बनती थी। थोड़ी वैराइटी भी तो होनी चाहिए ना खाने में।

ऐसा लगता है कि उनकी आँखों में कोई तिलिस्म छुपा हुआ है

हम सब घर में मसूर और अरहर की दाल को क्रमशः काली और पीली दाल बोलते हैं। उन बची हुई कच्ची-पक्की सब्ज़ियों में से कैसे मेरी माँ सही सलामत, सब्ज़ियों के बीच में छिपी हुई पका कर खाने लायक सब्ज़ियों को कान पकड़ कर निकाल लेती थी। मुझे आज तक मालूम नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि उनकी आँखों में कोई तिलिस्म छुपा हुआ है जो कि सड़ी गली सब्ज़ियों के बीच भी खाने लायक सब्ज़ियां ढूंढ लेती थी या फिर शायद उनके हाथों में आते ही सब्ज़ियां अपनी उच्चतम श्रेणी में परिवर्तित हो जाती होगी।

भगवान जाने क्या जादू था उनके हाथों में। सारी सब्ज़ियों को तो वह चुन लेती मगर आलू के सामने उनका जादू बेअसर हो जाता था क्योंकि सिर्फ मीठा आलू ही उनके हाथ आता था।

बचपन से लेकर कॉलेज तक मैंने मीठे आलू ही खाए हैं।अच्छे तो नहीं लगते थे मगर सुना है ना आपने कुछ भी नहीं से कुछ तो बेहतर है तो आलू फीके हो या मीठे कम-से-कम भूख तो मिटा ही सकते हैं।

बाज़ार वैसा नहीं रहा जहां वह मीठे आलू मिला करते थे

कई साल बीत गए बचपन बीते हुए और घर के हालात बदले हुए। अब मैं घर से दूर दूसरे शहर में रहता हूं और एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूं। महीने में ठीक-ठाक कमा लेता हूं और घर की स्थिति भी ठीक हो चुकी है लेकिन अब वो बाज़ार वैसा नहीं रहा जहां वह मीठे आलू मिला करते थे।

मैं अब जब भी त्यौहार के दौरान घर जाता हूं तो शुक्रवार के दिन देर रात से टहलने के बहाने बाज़ार का मुआयना करने निकल पड़ता हूं मगर अब बाज़ार दस बजे से पहले ही उठ जाता है। वह मीठे आलू जो मेरी माँ के अनुभव और लाचारी को भी चकमा दे दिया करते थे उनका अब निशान भी नहीं मिलता है। मैंने कई जगह पता किया, बहुत खोजा उन मीठे आलुओं को‌ ताकि उनका स्वाद ले सकूं मगर वह मुझे कहीं नहीं मिले।

मैं मेहमान था तो खाना मेरी पसंद का बनाया गया

एक दिन मेरी एक दोस्त जो कि उम्र और ओहदे में मुझ से काफी बड़ी है ने लंच पर आमंत्रित किया। मुझे पुलाव और उसके साथ तीखी आलू की सब्ज़ी बेहद पसंद है। चूंकि मैं मेहमान था तो खाना मेरी पसंद का बनाया गया। मुझे यह बात पहले से ही मालूम थी इसीलिए मैं समय से पहले उनके घर पहुंच गया।

जब खाना नज़रों के सामने आया तो मेरी आँख, नाक, कान और जीभ सब सम्मोहित हो गए‌। गरमा-गरम पुलाव की खुशबू ने पूरे मुंह में बाढ़ ला दी थी। मुझसे रुका ही नहीं जा रहा था।

मैंने सब्ज़ी पर ही धावा बोल दिया

मेरी मित्र ने जब कटोरी में सब्ज़ी परोसी तो उन्हें याद आया कि वह पानी लाना भूल गई है और वह पानी लाने जैसे ही किचन में घुसी मैंने सब्ज़ी पर ही धावा बोल दिया। किसी भूखे इंसान के सामने उसके पसंद का खाना रख दो तो वह चाहे कितना पढ़ा लिखा हो, उसकी सारी तहज़ीब हवा हो जाती है।‌ मैंने फुर्ती से अपनी दो उंगलियों का सहारा लेकर एक बड़ा-सा आलू का टुकड़ा उठाया और मुंह में डाल लिया।

जैसे-जैसे वह आलू का टुकड़ा मेरी जीभ पर घुल रहा था मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा जा रहा था। कलेजा मुंह में आ रहा था और मुंह की बाढ़ मन के सैलाब में तब्दील होने लगी। होंठ थरथराने लगे, गाल ठंडे पड़ गए और सब कुछ रुक सा गया और मुझसे कुछ नहीं बोला गया सिवाए दो शब्दों के मीठे आलू।

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