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जब खत्म होते एक आंदोलन में टिकैत के आंसुओं ने नई जान फूंक दी

आंसू हर बार कमज़ोरी का प्रतीक नहीं होता। ना ही बेबसी और लाचारी का। आंसू अक्सर बन जाता है ‘अंगारा’, जो अपने साथ लाता है भारी सैलाब। फिर वो आंसुओं का सैलाब एक टूटते हुए आंदोलन की रीढ़ बन गया। इसका अंदाज़ा आंसू बहाने वाले को भी नहीं था कि उसके आंसू कितना वजन रखते हैं।

जब लाल किले कांड के बाद घटने लगी थी विश्वसनीयता

26 जनवरी को हुए लाल किला कांड के बाद किसानों के प्रति लोगों की सहानभूति घट चुकी थी। सरकार भले असल दोषियों को पकड़ने में नाकाम रही हो लेकिन इस कोशिश में ज़रूर थी कि आंदोलन को नाकाम किया जाए। किसान आंदोलन के मुख्यतः तीन केंद्र हैं, जिनमें सिंघु और टिकरी बॉर्डर मजबूत किले दिखाई पड़ते हैं। गाजीपुर हमेशा एक कमज़ोर कड़ी दिखाई दे रहा था।

ना सिर्फ संख्या बल के आधार पर बल्कि नेतृत्व के आधार पर भी। संख्या बल और नेतृत्व तब और कमजोर पड़ता दिखाई दिया, जब वीएम सिंह के राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन ने आंदोलन को खत्म करते हुए गाज़ीपुर से अपना डेरा समेट लिया।

भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता और महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत को ट्रोल आर्मी और मीडिया पहले ही दंगाई और देशद्रोही घोषित कर चुकी थी। दिल्ली पुलिस ने यूएपीए और देशद्रोह के तहत मामला भी दर्ज कर लिया था। ऐसे में सरकार को लग रहा था कि टिकैत के प्रति कहीं कोई सहानभूति नहीं है इसलिए खदेड़ने में आसानी होगी लेकिन सरकार यहीं गलती कर बैठी।

इधर सरकार में और जोश आता गया। सरकार को लग रहा था कि लोगों की सहानभूति खत्म हो चुकी है और बचे खुचे आंदोलनकारियों को डरा-धमकाकर भगा दिया जाएगा। सरकार ने योजनाबद्ध तरीके से काम करना शुरू कर दिया था। 27-28 जनवरी की मध्यरात्रि को गाज़ीपुर बॉर्डर से बिजली व पानी का कनेक्शन काट दिया गया और सुबह तक शौचालय भी हटा दिए गए।

सरकार भली भांति जान चुकी थी कि पहले आम सुविधाओं के तार काटने होंगे, तभी जाकर आंदोलन के तम्बू उखाड़े जा सकते हैं। सरकार ने 28 जनवरी की सुबह एक और कदम उठाया। गाजीपुर बॉर्डर के स्थानीय लोगों के हवाले से आंदोलन का विरोध कराया। हालांकि बाद में उनमें से कुछ लोगों की पहचान भाजपा कार्यकर्ता के रूप में हुई थी।

भारी पुलिस बल की तैनाती के बाद एंकर्स भी तमाशा देखने पहुंच गए थे

दोपहर दो बजे से पुलिस का जमावड़ा शुरू हो चुका था। आरएएफ (रेपिड एक्शन फोर्स) की तैनाती भी की जा रही थी। यूपी पुलिस के साथ-साथ दिल्ली पुलिस ने किसानों में भय पैदा करने के खातिर छोटा सा मार्च निकाला और कुछ किसान भयभीत होकर आंदोलन को छोड़कर अपने घरों की ओर कूच करने लगे थे।

किसान नेताओं को आंदोलन की जड़ें उखड़ती दिखाई देने लगी थी और अब उन्हें बस इतना तय करना था कि शांतिपूर्ण तरीके से गिरफ्तारी देनी है या पुलिस के खदेड़ने पर बॉर्डर को खाली करना है। असमंजस की इस स्थिति में पूरा देश एक आंदोलन को बर्बाद होते हुए देख रहा था। उधर टिकरी और सिंघु बॉर्डर पर भी पुलिस की तैनाती बढ़ा दी गई थी। ताकि गाज़ीपुर की खबर सुनकर यहाँ के आंदोलनकारी किसान उग्र बर्ताव न कर सकें।

शाम छः बजे भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने गाज़ीपुर से आंदोलन को खत्म करने का ऐलान कर दिया। टिकैत ने कहा “उनके पास डंडे का जोर है और हमारी सारी सुविधाएं हटा दी गई हैं। अब किसान लाठी-डंडे खाने से बेहतर है कि पहले ही उठ जाएं।”
यह सुनते ही गाज़ीपुर बॉर्डर से सारे लंगर समेट लिए गए और किसानों के ट्रैक्टर रवाना हो चले थे। इधर पुलिस ने भी धारा 144 के तहत आंदोलन स्थल खाली करने की चेतावनी देते हुए नोटिस चस्पा कर दिया।

सरकारें भी कितनी अजीब होती हैं। मामूली सी मेहनत भी नहीं करना चाहती। नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरुद्ध चल रहे आंदोलन में भी यही स्क्रिप्ट रची थी। अजीब नहीं, आलसी होती हैं लेकिन आलसी भी क्यों ना हो? जब एक ही स्क्रिप्ट से काम चल रहा है तो फालतू की मेहनत क्यों की जाए? हर बीमारी की एक ही दवा ‘कोमिफ्लेम’ तो दूसरी दवा क्यों खरीदी जाए?

मीडिया भी नज़ारे लेने पहुंच चुका था। जो एंकर 65 दिनों से स्टूडियो में बैठकर ‘आंदोलन विशेषज्ञ’ बने हुए थे, वे आज जमीन पर उतर चुके थे। जैसे बारिश के मौसम में पंख वाले कीड़े उतरते हैं। किसान आंदोलन के ध्वस्त होते हुए ‘एक्सक्लुसिव नज़ारे’ ना सिर्फ कैमरे में कैद करने उतरे थे बल्कि दर्शकों के ज़हन में ये बात डालने भी कि इस देश में आंदोलन करना कितना बड़ा गुनाह है?

टिकैत ने कहा यहीं फांसी लगा लेंगे लेकिन गिरफ्तारी नहीं देंगे

गाज़ीपुर पर किसानों की हलचल कम हो चली थी और पुलिस की तैनाती पल-पल बढ़ रही थी। इधर राकेश टिकैत पुलिस प्रशासन के अधिकारियों और एडीएम के साथ बातचीत कर रहे थे। अधिकारियों का कहना था कि शांतिपूर्ण तरीके से गिरफ्तारी देने में ही भलाई है। टिकैत के लिए ‘एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई’ वाली स्थिति पैदा हो चुकी थी लेकिन अंत में निर्णय लिया गया कि खाई में कूदना ही ठीक रहेगा अर्थात शांतिपूर्ण तरीके से गिरफ्तारी दी जाएगी।

सेकेंडों में पासा तब पलट गया, जब गाज़ियाबाद के लोनी से भाजपा विधायक नंदकिशोर गुर्जर अपने लठैत समर्थकों के साथ गाजीपुर बॉर्डर पर पहुंच गए और पुलिस प्रशासन से मांग करने लगे कि देशद्रोहियों को हटाया जाए। ‘आंदोलन करना भी देशद्रोह हो गया है’। यह परिभाषा काफी प्रचलित है लेकिन हैरानी तब होती है, जब ऐसी परिभाषा बोलने वाले देश को लोकतांत्रिक कहा जाता है। जिस देश की आंखे ‘आंदोलनकारी और देशद्रोही’ में फर्क न कर पाए, उस देश को अंधा कहना ही उचित होगा।

शाम सात बजे के करीब टिकैत को जब विधायक जी व उनके लठैत समर्थकों के बारे में पता चला तो वो मीटिंग से सीधे मंच की ओर लपके। टिकैत ने एक नई हुंकार भरते हुए कहा “हममें से कोई गिरफ्तारी नहीं देगा। अगर मैंने गिरफ्तारी दी तो मेरे पीछे से मेरे लोगों को पीटा जाएगा। बीजेपी का विधायक यहां लठैत गुंडों के साथ आया है और अब भले यहाँ गोलियां चले लेकिन हम नहीं हटेंगे।”

प्रशासन की आंखे चौंधिया गई क्योंकि उनको ज़रा भी अंदाजा नहीं था कि इस चीज़ की नौबत आ सकती है। मंच के सामने ‘किसान एकता जिंदाबाद’ के नारे लगने लगे और विधायक जी अपने लठैत समर्थकों के साथ रफ्फूचक्कर हो गए। टिकैत मंच से उतरे और मीडिया ने घेर लिया। पूछा गया कि गिरफ्तारी नहीं देंगे?

टिकैत ने आंखे चौड़ी करके कहा यहां कोई गिरफ्तारी नहीं देगा। कुछ देर रुके और फिर अचानक से रुंधे गले और टपकते आंसुओं के साथ कहा कि इस देश में किसानों के साथ गद्दारी हुई है। आंदोलन जारी रहेगा। सरकार कानून वापस नहीं लेगी तो वो आत्महत्या कर लेंगे। मीडिया सवाल करती रही और टिकैत रोते-रोते जवाब देते रहे। पीछे खड़े समर्थकों के आंखों में भी आंदोलन के मातम के आंसू नज़र आ रहे थे।

पुलिस की लाठी पर वो आंसू भारी पड़ गया

इसके बाद राकेश टिकैत ने भावुकता में वो बात कह डाली जिसके प्रभाव का उन्हें भी अंदाजा न था, रोते हुए टिकैत ने कहा “मैं आंदोलन छोड़कर अपने गांव नहीं जाऊंगा और तब तक पानी नहीं पिऊंगा जब तक मेरे गांव से पानी नहीं आ जाता।” शायद कमान का सबसे मजबूत तीर यही था, जो सीधे सिसौली पर जा लगा। प्रशासन को उम्मीद थी लाठी के जोर पर बॉर्डर खाली करवाया जा सकता है इसलिए और जाब्ता बुलाया गया।

राकेश टिकैत का रोता हुआ वीडियो न्यूज़ चैनलों पर चलने लगा। फेसबुक पर शेयर होने लगा और सिसौली गांव में टिकैत के घर के बाहर सैंकड़ों की तादाद में लोग इकठ्ठे हो गए। भाकियू के अध्यक्ष और राकेश टिकैत के बड़े भाई नरेश टिकैत ने अपना फैसला पलटते हुए कहा कि “आंदोलन जारी रहेगा और कल मुजफ्फरनगर के जीसीआई ग्राउंड में महापंचायत बुलाई जाएगी। मैं अपने भाई के आंसुओं को ज़ाया नहीं जाने दूंगा। मैं गाज़ीपुर के आस-पास के किसानों से अपील करता हूं कि वे जल्द से जल्द बॉर्डर पर पहुंचें और आंदोलन को मजबूत करें।”

यहीं से बाजी पलट गई और राकेश टिकैत के आंसुओं ने किसानों पर लगे लाल किले कांड के दाग धो डाले। जिस ट्विटर पर आधे घण्टे पहले तक राकेश टिकैत को गिरफ्तार करो के हैशटैग चल रहे थे, उस पर अब ‘राकेश टिकैत हीरो है’ और ‘किसानों की आवाज राकेश टिकैत’ ट्रेंड करने लगा। पश्चिमी यूपी और हरियाणा के बुज़ुर्ग किसानों ने अपने पुराने किसान नेता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के मंझले बेटे राकेश को भावुक होते हुए देखकर अपने-अपने गांवों में ऐलान करवा दिया कि ‘जल्द से जल्द गांव के गुवाड़ (मुख्य चौक) पर पहुंचें और साधनों में बैठें। गाज़ीपुर बॉर्डर पर चलना है।’

रातोंरात हज़ारों ट्रैक्टर गाज़ीपुर बॉर्डर पहुंचने लगे

इधर गाज़ीपुर बॉर्डर खाली करने के लिए 12 बजे तक का अल्टीमेटम दिया गया था लेकिन आधी रात से पहले ही ट्रैक्टरों में किसान भरकर आने लगे और ‘राकेश टिकैत जिंदाबाद’ के नारे लगाते रहे। टिकैत के समर्थन में हरियाणा के कई हाइवे जाम कर दिए गए। पश्चिमी यूपी और हरियाणा के कई इलाकों से लोग आने लगे। सिसौली गांव ने अपने बेटे के लिए पानी पहुंचा दिया। सिर्फ पानी नहीं पहुंचा था बल्कि पहुंची थी आंदोलन की ताकत।

आधी रात से पहले ही सैंकड़ों किसान बॉर्डर पर पहुंच चुके थे। हज़ारों किसान गाज़ीपुर बॉर्डर के लिए कूच कर चुके थे। अब तारीख ही नहीं बल्कि तस्वीर भी बदल चुकी थी। 29 जनवरी की रात 1 बजे सरकार ने घुटने टेकते हुए पुलिस जाब्ते को वापिस बुला लिया। सुबह तक किसान आते रहे और अगली दोपहर तक चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत का मंझला लड़का किसान आंदोलन का सबसे ताकतवर नेता बन चुका था।

किसान लगातार आते जा रहे थे और अपने साथ पानी के मटके या केन ला रहे थे। उनका नेता राकेश टिकैत पानी का एक गिलास भरता और पीने लगता। बीच-बीच में रो देता तो बुजुर्ग किसान यह कहकर विश्वास दिलाते कि सब उनके साथ हैं। दोपहर बाद तक गाज़ीपुर बॉर्डर सबसे मजबूत किले के रूप में उभरा। जगह-जगह से राजनीतिक समर्थन मिलने लगा।

आरएलडी के जयंत चौधरी, आप के मनीष सिसोदिया से लेकर सपा के कई बड़े नेता प्रत्यक्ष रूप से किसान आंदोलन में शामिल हुए। उधर बड़े भाई नरेश टिकैत ने महापंचायत में गाज़ीपुर बॉर्डर पर कूच करने का ऐलान कर दिया। बाबा टिकैत के बेटे पर सबकी नज़रें गड़ी हुई थीं। जिस आंदोलन का उत्तरप्रदेश में नामात्र का प्रभाव था, उसी आंदोलन के एक नेता ने पूरे पश्चिमी यूपी को रातों रात जगा दिया था।

इसमें कोई संदेह नहीं था कि आंदोलन मजबूत हो गया था लेकिन सरकार अब सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर आंदोलन को तोड़ने में लग गई। अपने कार्यकर्ताओं को स्थानीय लोगों का जामा पहनाकर आंदोलन का विरोध करने भेजा गया। पथराव भी करवाया गया लेकिन उनकी पहचान छिप न सकी। इधर सरकार को यह मालूम था कि उत्तरप्रदेश के किसानों का आंदोलन को समर्थन देना सरकार के लिए और आने वाले विधानसभा चुनावों के लिए ठीक नहीं है।

भाजपा को पूरा पश्चिमी उत्तरप्रदेश हाथ से निकलने का डर

जिस गाजीपुर बॉर्डर के अगल-बगल से 2017 में भाजपा ने 100 से अधिक सीटें जीती थी, अब उन्हें वही गाज़ीपुर इलाका सरकता नजर आ रहा था। पिछले विधानसभा चुनाव में टिकैत समर्थित खाप पंचायतों ने अपना समर्थन भाजपा को दिया था लेकिन भाकियू अध्यक्ष नरेश टिकैत ने अब बयान दे डाला था कि चौधरी अजीत सिंह को समर्थन नहीं देना हमारी भूल थी।

सरकार जानती थी कि नरेश टिकैत की बात का कितना वजन है। ऐसे में 30 जनवरी की दोपहर को प्रधानमंत्री मोदी ने सर्वदलीय बैठक में एक बड़ा बयान दिया जिसके बाद यह कहा जाने लगा कि टिकैत ने सरकार को टिका दिया। मोदी ने कहा कि “किसानों से बातचीत के दरवाजे खुले हैं और वो हमसे एक फोन कॉल की दूरी पर हैं। उनका जब भी मन हो हमसे संपर्क कर सकते हैं। हम बातचीत के लिए तैयार हैं।”

एकाएक सभी भौचक्के रह गए। जिस सरकार ने आंदोलन को तोड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा डाला था, वो अब किसानों से बातचीत का प्रस्ताव लिए खड़ी थी। शायद ही किसी को यह अंदाजा होगा कि ऐसी घड़ी भी आएगी। 26 जनवरी के लाल किले कांड के बाद से ही लग रहा था कि बातचीत का सिलसिला खत्म हो चुका है क्योंकि कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 22 जनवरी को अपना आखिरी प्रस्ताव देते हुए यही कहा था कि 26 जनवरी की परेड को टाल दीजिए और इस प्रस्ताव पर विचार कीजिए।

जिसका साफ मतलब था कि बातचीत का दौर 26 जनवरी तक ही सीमित है। मगर एक आदमी के आंसुओं का कमाल था कि जो सरकार लाल किले कांड के बाद यूएपीए और देशद्रोह के मुकदमे ठोक रही थी, वो अब बातचीत पर आ खड़ी हुई। एक बिखरते हुए आंदोलन को देखते लोग अब एक झुकती हुई सरकार को देख रहे थे। दो दिन पहले जिस नेता को कोई दुक्की मानने को तैयार नहीं था, वो नेता अब इक्का बन चुका था।

30 जनवरी की शाम तक दूर दराज़ के इलाकों से लोग मटकों में पानी लाते गए और अपने नेता को एक गिलास भरके पकड़ा देते। मटकों में उनके गांव का नाम लिखा होता था ताकि किसान आंदोलन में गांव की हाजिरी लग जाए। ऐसे ही होते हैं आंदोलन। रणनीति के आधार पर चलते-चलते कब भावनाओं के सहारे चलने लगते हैं पता ही नहीं चलता। गांव-ढाणी के लोग अपने किसान नेताओं के दांव पेंच नहीं समझते लेकिन उनकी आंखों से छलकते हुए आंसुओं का दर्द ज़रूर समझ जाते हैं।

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