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जायज़-नाजायज़ के बीच आखिर कब ये समाज इंसानियत का रिश्ता समझेगा?

क्या होता है जायज़-नाजायज़? अक्सर हम ये शब्द किसी न किसी व्यक्ति के मुख से सुनते हैं। बचपन से ही परिवार वाले और आस-पड़ोस के लोगों से यह शब्द सुनने को मिलता है कि उसका बच्चा नाजायज़ है या उसकी लड़की का किसी लड़के से नाजायज़ रिश्ता है। उसने तो अपने पति को छोड़कर दूसरे आदमी के साथ नाजायज़ रिश्ता बना रखा है या फिर ये कि उसकी बेटी की कोख में किसी का नाजायज़ बच्चा पल रहा है।

जब राधा-कृष्ण के प्रेम को मानवजाति पवित्र मानती है, तो वही लोग किसी रिश्ते को नाजायज़ कैसे कह सकते हैं?

जो महिलाएं अपना घर चलाती हैं या अपने बच्चे पालती हैं, फिर वो महिला या लड़की अकेली हो या परिवार के साथ, उसे उस वक्त भी ऐसे ही शब्द सुनने को मिलते हैं कि उसका उसके मालिक के साथ नाजायज़ रिश्ता है तभी तो इतना ज़्यादा कमा रही है। एक औरत को अपने जीवन में हर कदम पर ऐसे शब्दों का सामना करना पड़ता है। समय के साथ हमारे समाज में बहुत कुछ बदला है लेकिन आज भी हमारे इसी समाज में लोग औरतों के बच्चे को बड़ी ही आसानी से नाजायज़ कह देते हैं।

ऐसा सिर्फ समाज के पुरुष ही नहीं बल्कि हमारे समाज में सबसे ज्यादा इस शब्द को शायद औरत ही बोलती है। ये नाजायज़ शब्द औरत की ज़िन्दगी को किस तरह से बदलकर रख देता है इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता। हमारा समाज कितनी आसानी से किसी रिश्ते को जायज़-नाजायज़ करार देता है?

आखिर जायज़ और नाजायज़ ये दो शब्द इंसान के बनाए हुए ही तो हैं वरना भगवान ने तो बस इंसान बनाये हैं जिनके प्यार से हर रिश्ता पवित्र हो जाता है। क्या केवल शादी करने मात्र से ही कोई रिश्ता जायज़-नाजायज़ कहलाया जा सकता है? इस संसार की रचना करने वाले भगवान श्रीकृष्ण-राधा के प्रेम को जब सारी मानवजाति पवित्र मानती है, उनके प्रेम को पूजती है तो वही सब लोग किसी भी रिश्ते को जायज़-नाजायज़ कैसे कह सकते हैं? एक बच्चा जब अपनी मां से पूछता है ना कि मां ये नाजायज़ क्या होता है?

तो शायद एक माँ के लिए वो पल ज़िन्दगी का सबसे बुरा पल होगा क्योंकि उस वक्त वो अपने बच्चे से कुछ कह नहीं पाती। एक माँ तब नहीं टूटती जब उसका साथी उसे छोड़ देता है या किसी और वजह से वो अलग हो जाते हैं लेकिन वो उस पल ज़रूर टूट जाती है जब सारा समाज उसके बच्चे के मन में ये बात डाल देता है तू तो नाजायज़ है। उस वक्त से ही बच्चे का पूरा जीवन इस एक शब्द के साथ बड़ा होता जाता है। बच्चे का बचपन कहीं खो जाता है।

आखिर कब ये समाज इंसानियत का रिश्ता समझेगा?

बड़ा होकर वो बच्चा इस बात को समझ जाता है। ये समाज तो बड़ी ही आसानी से किसी रिश्ते को जायज़- नाजायज़ कह देता है लेकिन उसके परिणाम की नहीं सोचता और अपना फैसला सुना देता है। क्यों नहीं समझता समाज उन बच्चों, उन लड़कियों, उन औरतों का दर्द जिनपर बड़ी आसानी से ये नाजायज़ शब्द की मोहर लगा देते हैं? आखिर कब तक हमारे समाज मे एक स्त्री-पुरुष के संबंध को जायज़-नाजायज़ के बोझ तले दबाया जाएगा? स्त्री के जीवन को हर कदम पर कष्ट से भर देता है समाज के द्वारा बनाया गया जायज़-नाजायज़ का रिश्ता।

केवल स्त्री के आज को ही नहीं बल्कि उसके आने वाले कल को भी तबाह कर देता है। इतना ही नहीं उस स्त्री से जुड़े बाकी सभी रिश्तों पर भी इसका गहरा असर पड़ता है। क्या जायज़ रिश्ता केवल शादी से ही कहा जा सकता है या फिर उसके लिए आपको या तो कोई बड़ी हस्ती बनना होता है या फिर भगवान?

वरना ये समाज तो आपको नाजायज़ शब्द के बोझ तले दबा देता है और आपका जीवन अंधकार में कहीं खो सा जाता है। कई लोग इस एक शब्द के कारण अपनी जान गंवा देते हैं तो कई इसी शब्द के कारण मजबूत बन जाते हैं। आखिर कब ये समाज इंसानियत का रिश्ता समझेगा? कब ये जायज़-नाजायज़ शब्द बोलना बंद होगा? आखिर कब इस नाजायज़ शब्द की दीवार गिरेगी? आखिर कब?

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