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देश के अल्पसंख्यकों को हमेशा देशभक्ति साबित करने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ता है?

शाहरुख खान, आमिर खान और सलमान खान को पसंद करने वाले पूरी दुनिया में हैं। जहां भारत ये बड़े गर्व से कहता है कि हम एक लोकतांत्रिक देश हैं जहां कोई भी व्यक्ति अपनी आस्था और धर्म को मानते हुए अपना जीवन व्यतीत कर सकता है। यही वजह है कि भारत जो कि एक हिंदू बहुताय देश है, वहीं हमारे देश में सांवैधानिक पदों पर राष्ट्रपति से लेकर क्रिकेट टीम में कप्तान तक मुसलमान रह चुके हैं।

कई भारतीय फिल्म स्टार मुसलमान हैं और जिनकी लोकप्रियता वर्तमान समय में शायद सबसे ज़्यादा है। हमारे देश के नागरिक जाति और धर्म से ऊपर उठकर उन्हें न सिर्फ स्वीकार करते हैं बल्कि सिर आंखों पर बिठा लेते हैं। मगर इसकी एक बड़ी सच्चाई सीधे उलट है।

मुसलमानों पर हमेशा देशभक्ति साबित करने का दबाव होता है

फिल्म “मुल्क” एक बहुत ही बड़ा संदेश देती है। जहां ऋषि कपूर का किरदार एक मुसलमान का है। पहनावे में कुर्ता, पायजामा और सिर पर जालीदार टोपी। फिल्म में इनका नाम मुराद अली मोहम्मद है। मुराद के भतीजे का नाम शाहिद मोहम्मद है जो कि एक बम ब्लास्ट में शामिल था और फिर पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारा गया।

शाहिद के उस आचरण का पता उसके घर वालों को नहीं था। इस घटना के बाद कई हिन्दू परिवार जो मुराद के पुराने दोस्त थे उससे मुंह फेरते चले गए। मुराद एक सामान्य इंसान है। इतना सामान्य कि उसके यहां दावत तो ज़रूर रखी जाती है लेकिन इस बात की चिंता भी रहती है कि गोश्त कितना चाहिए? शाहिद के उस वारदात के बाद पुलिस मुराद के छोटे भाई और शाहिद के पिता बिलाल अली मोहम्मद को भी उठा लेती है। पूछताछ के लिए उसकी अम्मी और बहन को भी बुलाया जाता है।

अब निर्देशक बहुत ही चतुराई से एक और आतंकवाद दिखाता है। मुराद के घर पर “पाकिस्तान” लिखा दिखाया जाता है। इसके बाद लोग उसके घर पर पत्थर मारते हैं। मुराद के घर की गली में रात को जगराता शुरू हो जाता है। कार्यक्रम का आयोजक राष्ट्रवाद की बात कहकर भड़काने की कोशिश करता है मगर पुलिस मूकदर्शक बनी रहती है।

मानो कह रही हो धर्म, राष्ट्रवाद और सरकारी व्यवस्था तीनों एक ही चीज़ है। जहां अपराध है मगर उन्हें न तो आतंकवादी कहा जा रहा है और ना ही देशभक्ति साबित करने कहा जा रहा है। वहीं मुराद अली को अदालत में अपनी देशभक्ति साबित करनी पड़ जाती है। आखिरकार वह जज के सामने खुद को देशभक्त साबित कर पाता है और उसकी रिहाई हो जाती है।

मगर इस पूरी कार्यवाही के दौरान बिलाल की मौत हो जाती है। आखिर उसके मौत का जिम्मेदार किसे माना जाए? इस सवाल को निर्देशक ने नहीं उठाया। शायद दर्शकों के लिए छोड़ दिया हो। शाहिद को तो उसका परिवार भी मौत के बाद नहीं अपनाता लेकिन मुराद के परिवार पर लगातार हमला करने वाले एक राष्ट्रवादी कलाकार को उसका पिता छाती से लगा लेता है।

दूसरे खेमे का आतंक राष्ट्रवाद कहलाता है

आतंकवाद दोनों जगह मौजूद है। मगर एक जगह आप आतंकवादी न भी हों तो आपको देशभक्ति साबित करनी पड़ती है। दूसरे तरफ का आतंकवाद राष्ट्रवाद का मुखौटा पहना हुआ है। वह जितना बड़ा आतंकी होगा उतना ही बड़ा राष्ट्रवादी कहलाएगा। कहानीकार ने बहुत ही चतुरता से नायक और खलनायक की भूमिका को स्पष्ट नहीं किया और ये समझने के लिए दर्शकों पर छोड़ दिया।

इससे फिल्म दर्शकों को अपनी ओर ज़्यादा आकर्षित नहीं कर पाई। जब रामजन्म भूमि आंदोलन के समय बाबरी मस्जिद को ढाहा गया और नेता लोग अपनी पीठ थपथपा रहे थे, तभी 1992 में ही एक फिल्म ने सिनेमा घरों में दस्तक दिया। नाम था “रोज़ा” इस फिल्म को मैं सिनेमाघर में ही देखा था और जब भी मौका मिला बार-बार देखता रहा।

फिल्म में कैमरा वर्क, कहानी, निर्देशन, संवाद, अभिनय, दक्षिण भारत के खूबसूरत गांव और कश्मीर घाटी सबकुछ इतना खूबसूरत कि मैं इस फिल्म के प्रति काफी भावुक रहता हूं। इस फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे दक्षिण भारत एकदम शांत है और पूरा कश्मीर घाटी हमेशा बंदूकों के साये में डर-डरकर जी रहा है। फिल्म की नायिका रोज़ा द्वारा एक नारियल फोड़ने मात्र से आसपास के सारे सैनिक वहां जमा हो जाते हैं। उन्हें नारियल फोड़ने की आवाज़ में भी विस्फोट की आवाज़ सुनाई देती है।

इस फिल्म में एक और किरदार है लियाकत। पंकज कपूर ने इस किरदार को निभाया है। कश्मीरी दहशतगर्द का किरदार। एक पढ़ा-लिखा किरदार जो कुर्ता-पायजामा, बड़ी दाढ़ी, सफाचट मूंछ और जालीदार सफेद टोपी के साथ हाथ में स्टेनगन लिए हुए है। सिनेमा हॉल में इसे देखते हुए एक भय का वातारण बन जाता है। कमजोर दिल वाला इंसान इस वेशभूषा को ही आतंकवादी समझ ले।

इस सिनेमा में दिखाए गए आतंकवाद से मुसलमानों की छवि को काफी नुकसान हुआ। राम मंदिर आंदोलन में भी इस फिल्म का प्रभाव देखने को मिला। फिल्म में लियाकत नायक ऋषि कुमार को हथियार के दम पर अगवा कर लेता है और उसे बहुत ही बेरहमी से मारने की धमकी देता है।

संवाद से बदल सकते हैं हालात

वहीं फिल्म कहीं न कहीं यह भी दिखाने की कोशिश करता है कि लायक भारत में रहकर भी भारत से कटा हुआ है। उसे एक ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर अपना मोर्चा संभाले दहशतगर्द के रूप में दिखाया गया है जो कि संवादों से कोसों दूर है। इस मानसिकता को बदलने की ज़रूरत है जो भारतीय सिनेमा कहीं करता हुआ नहीं नहीं दिखता। यह फिल्म कई मोड़ लेती है जहां आखिर में ये दहशतगर्द हथियार को छोड़कर अमन चैन के पैगाम को चुनता है। इस बदलाव का कारण सिर्फ और सिर्फ संवाद था।

मुख्य नायक और लियाकत के बीच पूरी फिल्म में कई बार इस बात को लेकर संवाद होता था जिसका नतीजा इस रूप में सामने आया। मुझे जहां तक याद है भारतीय सिनेमाघरों में रोज़ा ही वो पहली फिल्म थी जहां खलनायक की भूमिका में एक मजहब को लाया गया था। इससे पहले खलनायक के किरदार में किसी भी मज़हब को बाहर रखा जाता था।

इससे पहले खलनायक कोई खादी या खाकी वर्दी वाला भ्रष्ट नेता या अफसर होता था। मगर इस फिल्म के बाद खलनायक आतंकवाद पर केंद्रित हो गया, और सिनेमा के अनुसार आतंकवाद मतलब कुर्ता-पायजामा, बड़ी दाढ़ी और सिर पर जालीदार टोपी। अब फिल्म इंडस्ट्री सिर्फ और सिर्फ व्यवसाय के लिए है। फिल्में ऐसी बनाई जाती है जिससे बहुसंख्यक नाराज़ न हों। फिल्म और मीडिया दोनों ने अपनी-अपनी मर्ज़ी से अपने आतंकवाद चुन लिए हैं।

सिर पर जालीदार टोपी है तो कट्टर मुसलमान के साथ आतंकवादी वाली छवि और सिर पर पगड़ी के साथ अगर दाढ़ी है तो खालिस्तानी आतंकवादी। अल्पसंख्यकों की यही छवि सामने ला-लाकर सब अपना दुकान चला रहे हैं। रोज़ा में दहशतगर्द ने अमन चैन को अपनाया फिर भी 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढाह दी गई। मुल्क में मुराद जो कि दहशतगर्द नहीं था उसे भी देशभक्ति साबित करनी पड़ी।

फिर भी छवि को बदलने की कोई कोशिश क्यों नहीं हुई? मुसलमान और सिख दोनों अल्पसंख्यक समुदाय की छवि को इस तरह से गढ़कर संवाद को एकदम खत्म कर दिया गया है। हमने अगर इस तरीके को अपनाकर भाईचारा बढ़ाने की कोशिश करते तो कई चीज़ें बहुत अच्छे रूप में बदली जा सकती थी। हालात को समझने की कभी न की गई कोशिश देश के लोकतंत्र पर एक धब्बा साबित होता जा रहा है।

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