टाइटल
- फ़ेसबुक अब खबरिया बन गया है, तब बिहार विधानसभा क्राइम रिपोर्ट का स्पॉट बन जाए तो बुरा क्या है?
- बिहार विधानसभा में घटी घटना लोकतंत्र के लिए एक ‘दुखनीय’ बात है।
- क्या बंगाल में उसी प्रोटोकॉल का पालन नहीं हो रहा जिसे बिहार में उल्लंघन कहा गया।
आज हमारे एक चाचा आये। चाचा से बचपन से ही दोस्तों वाला व्यवहार रहा है और घर में सबसे छोटा हूं तो बेमतलब के सवालो को पूछना मैं अपना जन्मसिद्व अधिकार मानता हूं। चाचा के आते ही मैंने उनसे सवाल किया, बताइए !
बिहार विधानसा के बारे में आपको अभी तक जानकारी मिली?
चाचा ने दो बिन्दुओ में जवाब दिया और दोनों बिन्दुओ के जवाब ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया।
क्या अब फेसबुक ही अखबार है?
हां पता चला है, मैंने फेसबुक पर देखा है।
ये बात उस इंसान के मुंह से सुन कर मुझे बहुत आशर्य हुआ, जो अखबार की खबर तो क्या विज्ञापन के नियम और शर्तो वाला सोलोमन भी पढ़ जाता था। क्या मोबाइल फ़ोन ने हमें इस तरह जकड लिया है? फिर मैंने सोचा की हो भी क्यों ना ?
लॉकडाउन के बाद मोबाइल ही तो लोगो का इष्ट, मित्र बना हुआ है और बने भी क्यों ना ? जिसको वैम्पायर ( नर पिचास ) पसंद है, उनके लिए सुन्दर-सुन्दर वैम्पायर “वैम्पायर डायरीज” में मौजूद हैं। जिनकी दिलचस्पी राजशाही में है उनके लिए “द क्राउन” मौजूद है।
मोबाइल में सिमटता हमारा पूरा संसार
लाखो की संख्या में गेम्स मौजूद है। यहां तक की खाने से लेकर विवाह तक का सारा काम मोबाइल से ही हो जाता है। हमारे पत्तेबाज और ज़ुआरी दोस्तों के लिए रमी कल्चर और तीन पत्ती जैसे एप भी मौजूद है यानी की अब पत्ते खेलो और घर से डाट भी नहीं पड़ेगी। यह सब तो आपका जीता-जागता दोस्त कभी नहीं कर पाता, जो आपके निर्जीव दोस्त ने कर दिखाया है।
अभी कुछ रोज़ पहले की ही बात है। माँ गोबर के लिए परेशान थी। मज़ाक मज़ाक में डैडी ने अमेज़न पर सर्च किया और हैरानी की बात है की ऐमज़ॉन पर गोबर की चिपरी भी मिल रही है और सैड़कों की संख्या में उसपे रिव्यु भी आये हुए हैं।
मार्च, होली का महीना है। हम स्कूली बच्चे थे तो २ हफ्ते पहले से हमारे मुंह रंगे होते थे लेकिन आज के बच्चों को तो अबीर से भी रिएक्शन होता है।
बच्चों का हुड़दंग भी खा गए हैं एप
कहीं आने वाले सालों में कोई ऐसा एप ना बन जाए, जो कि आपके टेलीफोन के स्क्रीन पर २-३ सेकंड के लिए लाल पीला और नीला रंग दिखा दे और आपकी होली वही मन जाए और दिवाली में दिये की जगह आप अपने छत पर फ्लैशलाइट कुछ देर के लिए दिखाकर, पड़ोसियों और रिश्तेदारों को दिवाली की शुभकामनाएं दे।
जिओ और फ्री इंटरनेट के दौर में अगर यह सब भी हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। जैसे शाम में बच्चो का हुड़हदंग और एक गेंद के लिए लड़ाई खत्म हुई है, ठीक वैसे ही होली में से रंग और दिवाली में से दीपक भी खत्म हो सकते हैं।
ये घटना बहुत ही दुखनिय है
इस दुखनिय को सुनकर मै और डैडी खूब हंसे। निंदनीय और दुःखद को मिला कर एक नया शब्द बना है! दुखनीय
लेकिन क्या ये इतनी छोटी घटना है जिसे एक शब्द से बताया जा सके ? मेरे ख्याल से तो नहीं! यह तो भारत के लोकतंत्र को अंदर तक हिला देने वाली घटना है। रात को सोने से पहले कुछ लिख रहा था दिमाग में सिर्फ विधानसभा और शहादत दिवस घूम रहा था, तभी मेरे कलम ने ये लिखा-
“शायद अपने शहादत के दिए भगत सिंह आए होंगे
और भारत की गिरी हुई राजनीति और लचर लोकतंत्र को देख घबराए होंगे”
प्रोटोकॉल का उल्लंघन कैसे तय हो?
बिहार विधानसभा में २३ मार्च को पुलिस विधेयक पर बहस हो रहे थी। विपक्ष पूरी तरह से बहस के मूड में था। तेजस्वी यादव, नेता प्रतिपक्ष कि अध्यक्षता में जेपी गोलंबर से बिहार विधानसभा तक मार्च निकला गया।
पुलिस ने भीड़ पर यह कहते हुए हमला कर दिया कि इस मार्च की ना तो परमिशन ली गयी है, ना ही भीड़ कोरोना प्रोटोकॉल का पालन कर रही है लेकिन भीड़ तो कोरोना प्रोटोकॉल का पालन कर रही थी।
ठीक वही प्रोटोकॉल, जिसका पालन बंगाल चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी, ममता बनर्जी और अन्य नेताओं की रैली में हो रहा है।
विधानसभा को शर्मसार करती घटना किस प्रोटोकॉल का पालन थी ?
इसके बाद सारे विधायक लोकतंत्र के मंदिर, विधानसभा में पहुंचे। विधानसभा में पुलिस विधेयक बिल आया। विपक्ष के बार-बार निवेदन पर भी सरकार बहस के लिए तैयार नहीं हो रही थी और विधानसभा अध्यक्ष, विपक्ष को बोलने का मौका ही नहीं दे रहे थे।
अंत में विधायकों ने हाउस में धरना दिया और बिहार सरकार के आदेश पर पुलिस बल विधान सभा के अंदर पहुंची।
ठीक वैसे ही जैसे शूल फिल्म में मनोज वाजपेयी गए थे। विधानसभा के अंदर विधायकों को मारा-पीटा गया। महिला विधायक के साथ भी मारपीट हुई। वो दृश्य ऐसा था मानो चर्च के अंदर ही क्राइस्ट को सूली पर चढ़ा दिया गया हो और वो भी चर्च में बैठे पादरी के आदेश पर।