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होली से पहले मस्जिदों को ढककर, क्या हम त्योहारों के असली मकसद भूलते जा रहे हैं?

भारत को त्योहार और मेलों का देश माना जाता है। अक्सर वर्ष के प्रत्‍येक दिन उत्‍सव मनाया जाता है। वहीं भारत में पूरे विश्‍व की तुलना में कहीं अधिक त्योहार मनाए जाते हैं। हर त्योहार अलग-अलग अवसरों से संबंधित है, वहीं कुछ वर्ष की ऋतुओं का, फसल कटाई का, वर्षा ऋतु का अथवा पूर्णिमा का स्‍वागत करते हैं।

इससे अलग हटकर देखें तो दूसरों में धार्मिक अवसर, ईश्‍वरीय सत्‍ता/परमात्‍मा व संतों के जन्‍मदिन अथवा नए वर्ष की शरूआत के अवसर पर भी त्योहार मनाए जाते हैं। इनमें से अधिकांश त्योहार भारत के अधिकांश भागों में समान रूप से मनाए जाते हैं। यह हो सकता है‍ कि उन्‍हें देश के विभिन्‍न भागों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता हो अथवा अलग-अलग तरीके से मनाया जाता हो। कुछ ऐसे त्‍योहार हैं जो पूरे भारत में मनाए जाते हैं। जैसे दीवाली, होली, गणेश चतुर्थी, ईद, आदि।

शाहजहांपुर की जूता मार होली

ताज़े-ताज़े रंग बिरंगे फूलों और बसंत की बहार के बीच मनाया जाने वाला होली का त्योहार अपने आप में कई धारणाओं को समेटे हुए है। देश में कहीं लठमार होली खेली जाती है, तो कहीं जूतों से खेलकर होली को मनाया जाता है। उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर में होली खेलने का ढंग ही निराला है। यहां जूतामार होली खेली जाती है। यहां कई वर्षों से चली आ रही यह होली अपने आप में विशेष महत्व रखती है।

इसमें बैलगाड़ी पर आदमी के पुतले को बैठाया जाता है और सब उसपर जूता मारते हैं। यह आदमी कोई और नहीं बल्कि अंग्रेजी सियासतदान का पुतला होता है। जिसको जूता मारकर लोग अपना विरोध दर्ज करवाते हैं। अंग्रेजों के ज़ुल्म के खिलाफ एक आवाज़ के तौर पर इस परंपरा को निभाया जाता है। इस होली में हज़ारों लोग शामिल होते हैं। इसमें लोग हुड़दंग करते हैं और एल दूसरों पर रंग उड़ाते हैं।

मस्जिदों को ढकना कितना जायज़?

इसी लाट साहब की होली के दौरान आज कल शाहजहांपुर में तैयारियां बड़े ही ज़ोरों-शोरों से चल रही हैं। यहां एक विशेष समुदाय के लोगों की भावनाओं को आहत किया जा रहा है, वहीं होली की प्रचलित परंपरा के लिए तैयारियां की जा रही हैं। इस परंपरा में न तो किसी देवता की पूजा है और न किसी प्रकार का धार्मिक महत्व।

ऐसे में दूसरे धर्म के लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाना कहां तक जायज़ है? पुलिस की मौजूदगी में मस्जिदों को प्लास्टिक की शीट से ढका जा रहा है जो अपने आप में एक अप्रिय घटना है। पुलिस समाज में फैली कुकृत्यों और अपराधों का सही से न्याय करने के लिए जानी जाती हैं मगर यहां का दृश्य तो कुछ और ही बयां कर रहा है।

यहां लगभग 40 मस्जिदों को ढक दिया गया है। किसी भी समुदाय के धार्मिक स्थलों के साथ ऐसा करना शोभा नहीं देता।

त्योहारों के असली मकसद को भूलता समाज

ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूलकर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। यहां तो दृश्य बिल्कुल ही उलट है। लोग त्योहार को त्योहारों की तरह नहीं मनाते। यहां भी लोग एक-दूसरे के धर्म पर उनकी आस्थाओं पर कीचड़ उछालने से गुरेज़ नहीं करते। ऐसी स्थिति में कौन से देवता होंगे जो इस कृत्य को मान्यता देंगे? ज़रा सा गौर करने की ज़रूरत है।

हम देख सकते हैं और धार्मिक ग्रंथों में पढ़ सकते हैं कि कोई भी ऐसा धर्म नहीं जो मानवता के खिलाफ हो। सभी धर्म मानवता के संदेश देते हैं। आपस में भाईचारे का संदेश देते हैं। एकता को प्राथमिकता दी जाती है, मगर हम मौजूदा हालातों पर नज़र डालें तो देखेंगे कि सभी काम इसके हो रहे हैं।

पुलिसिया पहनावे में घूमते देश को तोड़ने वाले लोग

यदि कहीं भी, कोई भी कार्यक्रम हो जा राजनीतिक रैली, इन सभी के लिए सुरक्षा प्रबंध करने में पुलिस का बहुत बड़ा योगदान होता है। उनके हाथों में पड़ी लाठियां अच्छे-अच्छों को तोड़ देती हैं। मगर यहां शर्त ये है कि हाथों में पड़ी लाठियां और हिम्मत दोनों मजबूत हाथों में होनी चाहिए।

आप धार्मिक स्थलों को ढकना छोड़कर लोगों को एकता का ऐसा पाठ पढ़ाएं जहां से उनको कोई डर ही न हो कि लोग माहौल को बिगाड़ सकें। सबको आज़ादी है किसी भी प्रकार की रैली निकालने की, कोई भी धार्मिक अनुष्ठान करने की। मगर यहां सबसे बड़ी बात आती है सेक्युलर होने की। आप अपने धर्म के साथ औरों के धर्म की कितनी फिक्र कर रहे हैं?

पुलिस फोर्स लगाने की बजाय लोगों को शिक्षित किया जाए कि हर धर्म को पावन मानो और सुरक्षित रखो। आप देश के नागरिक हैं, यदि आप देश में अपने भाइयों की रक्षा नहीं करेंगे तो कौन करेगा? यह एक ऐसा सवाल है जो मेरे मन को सदा से कोंचता आया है।

 

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