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विलुप्त होने की कगार पर असुर जनजाति की संस्कृति और पारंपरिक व्यवसाय

असुर भारत का एक प्राचीन आदिवासी समुदाय है। पुराणों में उल्लेखित असुर जनजाति की बोली भाषा विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है। सभ्य समाज के संपर्क में आने के कारण नई पीढ़ी लरिया व छत्तीसगढ़ी समेत अन्य स्थानीय बोलियों तक सिमट गई है। इस जनजाति के लोग छत्तीसगढ़ के जशपुर, झारखंड और बिहार के पठारी क्षेत्र में निवास करते हैं। इनकी आबादी भी सिमटती जा रही है।

इनकी जनसंख्या वर्ष-2011 की जनगणना के अनुसार मात्र एक लाख 25 हज़ार है। असुर जनजाति की अपनी विशिष्ट सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं हैं लेकिन सबसे अलग पहचान है इनकी भाषा। आदिकाल से यह जनजाति अपने समाज में जिस भाषा का प्रयोग करते आ रही है, इसे असुर भाषा के नाम से ही जाना जाता है। इस भाषा की लिपि नहीं है लेकिन शब्दावली और लोकगीत के लिहाज से यह बेहद समृद्ध है।

असुर कौन हैं?

असुर भारत के उन 700 आदिवासी समूहों में से एक है, जिन्हें विशेष विलुप्तप्राय जनजाति (पीवीटीजी) घोषित किया गया है। विशेष पिछड़ी जनजातियों की पहचान के लिए निम्न मानदण्ड निर्धारित किये गए हैं:

(1) आजीविका के लिए वनों पर निर्भरता (2) कृषि-पूर्व समाज (3) स्थिर या गिरती जनसंख्या (4) साक्षरता का निम्न स्तर व (5) निर्वाह अर्थव्यवस्था

छत्तीसगढ में ऐसे पांच आदिवासी समूह हैं जो इन मानदण्डों को पूरा करते हैं और असुर उनमें से एक हैं। सन 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में उनकी कुल जनसंख्या 10 हज़ार है। असुर मुख्य रूप से छत्तीसगढ के जशपुर, तहसील और मनोरा के जंगलों से घिरी पहाड़ियों में रहते हैं।

छत्तीसगढ के जशपुर जिलों – दोनापाट, बुरजूपाट, जरहापाट, हाड़ीकोना और घुईपाट – में फैला है परन्तु इनमें से दोनापाट में विशेष पिछड़ी जनजातियों और विशेषकर असुर समुदाय की सबसे बड़ी आबादी है। यूनेस्को ने असुर भाषा को ‘निश्चित रूप से लुप्तप्राय’ भाषा बतौर सूचीबद्ध किया है। यह भाषा बोलने वाले अब केवल 305 लोग बचे हैं।

इन आदिवासियों के जीवन जीने के आदिम तरीके और उनके सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के चलते सन 2006 तक इन्हें ‘आदिम जनजाति समूह’ कहा जाता था। उसके बाद इस शब्द को अपमानजनक मानते हुए उसकी जगह “विशेष विलुप्तप्राय जनजाति” शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा। विमर्श को परिवर्तित करने के इस सचेत प्रयास के बावजूद ‘आदिम जनजाति’ शब्द का इस्तेमाल सरकारी अधिकारियों और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा निरंतर किया जाता रहा है।

सन 2014 में एक उच्चस्तरीय समिति द्वारा आदिवासी समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और अन्य विकास सूचकांकों के संबंध में प्रस्तुत एक रपट, विशेष पिछड़ी जनजातियों की कमज़ोर स्थिति की चर्चा भी करती है। उनके क्षेत्रों में राज्य और बाज़ार की क्रमिक शोषक घुसपैठ के कारण इन समूहों द्वारा जीवनयापन के उनके परंपरागत साधनों, निवास स्थान और प्राकृतिक संसाधनों पर उनके पारंपरिक अधिकार को खो बैठने की रूपरेखा प्रस्तुत करते रपट कहती है। यह घुसपैठ असुर जैसे समुदायों की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार कारकों में से एक महत्वपूर्ण कारक है।

ब्रिटिश सरकार के वन संबंधी कानून से परंपरागत पेशे पर विनाशकारी प्रभाव

असुर आदिवासियों की तीन शाखायें हैं – बीर असुर, अगरिया और बिरजिया। झारखण्ड में बिरजिया को असुरों से पृथक एक अति पिछड़ी जनजाति के रूप में मान्यता दी गई है जबकि आगरिया को मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में अनुसूचित जनजाति के तहत वर्गीकृत किया गया है। मेरे अध्ययन का केंद्र बीर असुर हैं – वे शक्तिशाली लोग हैं।

जो असुर के नाम से भी जाने जाते हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों के अलावा, वैदिक और उत्तर-वैदिक साहित्य में भी लोहे को गलाने की कला को असुर विद्या कहा गया है। इसके इस तथ्य की पुष्टि होती है कि लोहे को गलाना असुरों का परंपरागत पेशा रहा है। इसके अलावा, गैर-इमारती वन उत्पाद भी उनकी आजीविका के स्रोत थे।

सन् 1868 में ब्रिटिश सरकार ने वन संबंधी कानून लागू किये, जिनके चलने असुरों की जंगलों तक पहुंच सीमित हो गयी और उनके परंपरागत पेशे पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा। वे अब जंगल से लकड़ी नहीं ला सकते थे। इसी लकड़ी को जलाकर वे कोयला बनाते थे जो लोहा गलाने के लिए ईंधन का काम करता था। नतीजे में उनके पूर्वजों को अपने भरण-पोषण के लिए वैकल्पिक साधनों की खोज करनी पड़ी।

दक्षिणी छोटानागपुर के पठार में बाक्साइट प्रचुर मात्र में उपलब्ध है, परन्तु यहां की जलवायु और मिट्टी ऐसी है कि उसमें केवल कुछ फसलें ही उपजायी जा सकती हैं। सन 1980 के दशक से इस पठार में एक बहुराष्ट्रीय खनन कंपनी और अनेक निजी छोटी कम्पनियां बाक्साइट का खनन कर रही हैं।

पिछले 30 वर्षों में असुरों ने अपनी जमीन के बहुत बड़े हिस्से को खनन कंपनियों को पट्टे पर दे दिया है। इसके बदले इन कंपनियों ने उन्हें उनकी ही ज़मीन पर मजदूर बना दिया और वह भी केवल इतने वेतन पर कि वे जिंदा भर रह सकें।

जशपुर असुर जनजाति के लोग

के.के. लेउवा ने असुरों पर अपने एक प्रामाणिक ग्रंथ में इस आदिवासी समूह की वंशावली का सूक्ष्म अध्ययन किया है। असुरों के उद्भव के विभिन्न सिद्धांतों और लिखित प्रमाणों की पड़ताल कर लेउवा इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि असुर, आर्यों से भिन्न थे और सिंधु घाटी में बसने वाले सबसे शुरुआती समूहों में से एक थे।

चूंकि असुरों ने नवागत आर्यों की राजनीतिक संरचना को अपनाने से इंकार कर दिया, इसलिए पहले उन्हें राक्षस या दैत्य करार दिया गया और बाद में उत्तर (बिहार और झारखण्ड) की ओर खदेड़ दिया गया। लेउवा कुछ पुरातत्वविदों के इस तर्क से असहमति प्रकट करते हैं कि “असुर, रांची के मुण्डा आदिवासियों की एक शाखा हैं”।

कुछ पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह तर्क दिया जाता है कि खूंटी उपसंभाग में असुरों और मुण्डाओं के बीच संघर्ष हुआ था, जिसमें असुरों को खदेड़ दिया गया और वे इस पठार (नेतरहाट की पहाड़ियों) पर बस गए। मुंडाओं के विपरीत, असुर हिंदू धर्म या ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में नहीं आये और उन सामाजिक और धार्मिक विश्वासों पर कायम रहे, जो उन्हें उनके पूर्वजों से मिले थे।

कुछ अन्य नृवंशविज्ञानियों की तरह, लेउवा का तर्क है कि असुरों और मुण्डाओं की भाषा, उनकी शारीरिक व सामाजिक संरचना और राजनीति में अत्यधिक समानताओं के बावजूद दोनों पृथक समूह हैं। असुर, मुण्डाओं की शाखा नहीं हैं। जो भी हो, मेरे मानव-वैज्ञानिक अध्ययन का विषय न तो आर्यों और असुरों के परस्पर रिश्तों की तलाश है और ना ही यह पता लगाना है कि असुर, मुण्डा लोगों से पृथक हैं या नहीं।

मेरे अध्ययन का उद्देश्य यह पता लगाना है कि किस कारण असुरों को 21वीं सदी में एक नई वैधानिक पहचान मिली और वे विशेष पिछड़ी जनजाति बन गए।

आज भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे महिसासुर के वंशज

जशपुर जिले में महिसासुर के वंशज असुर जनजाति के लोग आज भी पाठ क्षेत्रों पर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। जीवन खतरे में है और अभी भी वो मूलभूत सुविधाओं के मोहताज हैं। राज्य में इस जनजाति की जनसंख्या लगभग तीन सौ है, इसके बावजूद उन्हें शासन, प्रशासन के द्वारा संरक्षित नहीं किया जा रहा है।

मनोरा विकास खण्ड के अंतर्गत ग्राम पं गजमा बुर्जूपाठ में महिसासुर के वंशज जिनको असुर जनजाति के नाम से जाना जाता है घने जंगलों के बीच निवासरत हैं। पूरे छत्तीसगढ़ में लगभग तीन सौ महिसासुर के वंशज हैं जो जशपुर जिले के मनोरा विकास खण्ड में बसें हुए हैं। जिमेंमे सेगजमा पं० लुखी पं० काँटाबेल पं० कुलाडोर, विरला, लुखी, दौनापाठ इतने जगह पर बसे हुए हैं।

असुर जनजाति के लोगों ने बताया कि झारखंड में लगभग एक लाख से ऊपर असुर जनजाति की संख्या है। झारखंड सरकार इनको सारा कुछ जो भी उनकी ज़रूत है, वह उपलब्ध करा रही है। झारखंड में असुर जाति के लोग अगर 5वीं पास हैं तो उनको नौकरी मिल जाती है। मगर छत्तीसगढ़ में जहां उनकी जनसंख्या बहुत कम है, वे संरक्षित नहीं हैं।

जनजाति के लोग आज भी सड़क, पानी, घर जैसी अति आवश्यक सुविधाओं से वंचित हैं। इन लोगों का कहना कि आज तक असुर पर सरकार घ्यान नहीं दे रही है। यहां के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर भी बेरोजगार हैं। स्नातक करने के बाद भी वे गांव में बेरोजगारी के दंश झेल रहे हैं और मवेशी चराकर अपना जीवन यापन करते हैं। बताया जाता है कि पहले इस जनजाति की संख्या हजारों में थी, लेकिन संरक्षण के अभाव में सिमट कर इनकी जनसंख्या तीन सौ हो गई है।

लोहा पिघलाते थे पूर्वज

एक समय में लोहा पिघलाने का कार्य ही असुरों की मुख्य आजीविका का माध्यम था। असुरों के अनुसार पहले पिघलाने का ही उनका व्यवसाय था, लेकिन समय बीतने के साथ जंगल पर लगे प्रतिबंध के कारण लौह अयस्क और उससे पिघलाने के लिए ज़रूरी चारकोल उपलब्ध होना कठिन होता गया। वर्तमान समय में यह उद्योग इनके लिए अतीत की बात बन कर रह गई है।

अब कुछ गिने-चुने परिवार हैं जो लोहा पिघलाने का काम करते हैं। असुर चाहते हैं कि यदि उनके लुप्त होते इस व्यवसाय को बढ़ावा मिले तो उनकी आय बढ़ सकती है। चूंकि जंगलों के कानून की वजह से चारकोल और लौह अयस्क आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकते हैं।

असुरों में यह विश्वास है कि उनके आवास के आसपास पहाड़ियों और वृक्षों पर उनके देवी-देवता निवास करते हैं और यदि समय पर बैगा पुजारी द्वारा उन्हें प्रसन्न नहीं किया गया तो उनके परिवार और गांव पर देवी प्रकोप छूट पड़ेगा। सिगबोंग सूर्य इनका सर्वप्रथम देवता है। ये लोग अपने पूर्वजों की भी पूजा उपासाना करते हैं। सरहुल, कर्मा और दशहरा इनके मुख्य त्यौहार हैं।

इस क्षेत्र की अन्य जातियों और जनजातियों की तरह असुरों का भी जादू और डायन विद्या पर गहरा विश्वास है। असुरों की यह धरणा है कि बच्चे भगवान की देन है। यदि कोई स्त्री भगवान को प्रसन्न नहीं कर पाती है तो वह कभी मां नहीं बन सकेगी, क्योंकि इस तरह की बांझ औरतों को असुर समाज में काफी हेय दृष्टि से देखा जाता है।

असुर जनजाति नवरात्र और दशहरा नहीं मनाते

इनके सामाजिक रिति रिवाज के मुताबिक किसी बांझ औरत को उसका पति तलाक दे सकता है, या बच्चे के लिए वह दूसरी शादी कर सकता है। असुर यह जानते हैं कि नौ माह की गर्भवती महिला बच्चे को जन्म देती है, लेकिन वह महीनों की गिनती नहीं जानते है। अतः समाज की बड़ी-बूढ़ी महिलाओं के गर्भवती महिला के शारीरिक विकास के आधार पर ही गर्भकाल का आमतौर पर अंदाजा लगाती हैं।

आमतौर पर ही बच्चे को जन्म के समय चमइन (चमार जाति की महिला) मौजूद रहती है, लेकिन यदि चमाइन उपलब्ध न हो तो समाज का कोई बड़ी-बूढ़ी महिला ही देख-,रेख में प्रसव कराया जाता है। बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद वहां मौजूद किसी महिला द्वारा उसकी नाभि नाल छुरी या हंसिया से काट कर उसे किसी एकांत स्थल पर गाड़ दिया जाता है। आमतौर पर बच्चे के जन्म से पांच से छह दिनों तक असुर इसे छुवा-छूत मानते हैं।

छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में असुर समाज की सबसे वृद्ध महिला 95 वर्षीय मडवारी बाई ने बताया कि कुत्ता को सेता और बालिका को कुड़ीचेंगा कहा जाता है। हाड़ीकोना निवासी 70 वर्षीया चीरमईत बाई ने बताया कि समाज के दो-चार वृद्ध ही असुर भाषा जानते हैं। नई दुनिया के विशेष आग्रह पर उन्होंने असुर भाषा का एक लोकगीत गाकर सुनाया। इसे सुनकर मौके पर मौजूद असुर समाज के युवा भी आश्चर्यचकित हो गए।

असुर समाज की सबसे वृद्घ महिला मडवारी बाई ने बताया, असुर जनजाति स्वयं को असुरराज महिषासुर का वशंज मानती है। यही वजह है कि हम नवरात्र और दशहरा नहीं मनाते, लेकिन होली और देहदिवाली का त्योहार पूरे उत्साह के साथ मनाते हैं।

पारंपरिक व्यवसाय व तीर-धनुष चलाना भी भूले

सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक महिषासुर के वंशज माने जाने वाले असुर जनजाति के लोग बालू से लोहा निकालने में माहिर मानी जाती थी। नई पीढ़ी इस पारंपरिक व्यवसाय के साथ ही तीर-धनुष चलाना भी भूल चुकी है। कृषि और मजदूरी ही आजीविका का साधन रह गई है। आदिवासी कांग्रेस के जशपुर जिलाध्यक्ष हीरूराम निकुंज का कहना है कि असुर जनजाति की सांस्कृतिक व सामाजिक पहचान को बनाए रखने के लिए प्रयास की ज़रूरत है।

हालांकि, अब जाकर प्रदेश सरकार ने पहल शुरू की है। विशेषज्ञों के साथ मिलकर शब्दकोश तैयार करने और लोकगीतों को लिपिबद्ध करने की तैयारी की जा रही है। जनजाति के युवाओं को शिक्षा के साथ लोक संस्कृति से जुड़ने के लिए जागरूक किया जा रहा है। इसके लिए आदिवासी समाज और समाजसेवी संगठनों की मदद भी ली जा रही है।

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