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“समाज में महिलाओं की बराबरी के लिए उन्हें अपनी भूमिका स्वयं तय करनी होगी”

भारतीय संसद में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के लिए जब तैंतिस प्रतिशत आरक्षण की मांग जोर पकड़ने लगी, तब पुरानी धारा के लोग अपनी दलीलों से महिलाओं की काबिलियत पर सवाल खड़े करने लगे। वे महिलाओं को कुशल गृहिणी बता कर उन्हें घर की सीमाओं तक सीमित करने लगे।

ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि आखिर घर की सीमा क्या होती है, और क्या इस सीमा में मौजूद महिला समाज या देश में बदलाव करने में कोई भूमिका रखती है? आज के समय में एक घर कैसे महिलाओं को प्रतिनिधित्व दे रहा है या महिला अपने प्रतिनिधित्व के लिए कैसे जगह बना रही है?

समझदारी से घर के छोटे-बड़े फैसले खुद लेना

इन्हीं सवालों का जवाब हम उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिला स्थित रामपुर, बबुआम और हसुइ मुकुंदपुर गांव में ढूंढने की कोशिश करते हैं। जहां लालती और साधना मिश्रा से मुलाकात होती है। दोनों आसपास के गांव में रहती हैं लेकिन दोनों की ज़िंदगी और उनके हालात से पता चलता है, कि घर की चौखट से लेकर बाहर तक काम करने वाली महिलाएं कैसे अपने निर्णय लेनी की क्षमता को देखती हैं?

लालती जिनकी उम्र 32 साल है, कहती हैं-“मैं बहुत छोटी थी, तब से देखती आ रही थी कि मेरी मां घर को कैसे संभाला करती थी। हमारी बिरादरी में लड़कियों को शिक्षा देने की जगह चुल्हे-चौके तक सीमित रखा जाता है। जैसे ही लड़की बड़ी होती है, उसका ब्याह कर दिया जाता है। बिरादरी में बालिका शिक्षा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। हालांकि, मेरे परिवार की सोच इससे अलग थी।

हमारे घर में लड़कियों की शिक्षा को भी महत्त्व दिया गया, इसीलिए मैं समाजशास्त्र में बी.ए तक की पढ़ाई कर पाई। जब मैं पढ़ाई किया करती थी तो मुझे उम्मीद थी कि मैं पढ़कर नौकरी करूंगी लेकिन उससे पहले ही मेरी शादी तय कर दी गई। आज मेरे दो बच्चे हैं, जिन्हें लेकर मैं गांव में खेती का काम देखती हूं। पति शहर में किसी कोठी में सर्वेंट का काम करते हैं। मुझे अपनी समझदारी से घर से सारे छोटे-बड़े फैसले खुद लेने होते हैं। बहुत मुश्किल होता है एक महिला का ग्रामीण समाज में रहकर बच्चों को पालना।”

सबके होते हुए भी बिना दबाव अंतिम निर्णय खुद लेना होता है

उधर दूसरी तरफ साधना जिनकी उम्र 34 साल है, वह हसुइ मुकुंदपुर गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं। इसके साथ-साथ वह अपने देवर के साथ एक प्राइवेट स्कूल भी चलाती हैं। साधना के हालात लालती से थोड़े अलग हैं। वह कहती हैं “मैं अपने देवर और पति की सहमति से आंगनबाड़ी और स्कूल में काम कर रही हूं। जब भी मुझे किसी भी प्रकार की दिक्कत आती है तो मैं सभी से सलाह लेती हूं, बावजूद इसके बिना किसी दबाव के अंतिम निर्णय मेरा होता है।”

साधना आंगनबाड़ी के बाद बचे हुए समय में घर और बाहर के बहुत से काम को निपटाते हुए भी स्कूल में बच्चों का क्लास लेना नहीं छोड़ती हैं। वह कहती हैं -, “मेरा मानना है कि महिलाओं को यदि अपने लिए समाज में जगह बनानी है, तो उन्हें अपने काम और निर्णय लेने की भूमिका के तौर-तरीकों में बदलाव करना होगा।

समाज में महिलाओं को बराबरी दिलाने के लिए कोई क्रांति नहीं आने वाली है बल्कि अपनी भूमिका स्वयं तय करनी होगी। वह कहती हैं कि “ऐसा नहीं कि सरकारों ने महिलाओं के प्रतिनिधित्व के लिए कोशिश नहीं की, बल्कि कोशिशों का ही नतीजा है कि आज राशन कार्ड में मुखिया के तौर पर स्वीकार करते हुए हमारा नाम आगे किया गया है। हमारे अंगूठे के निशान के बाद ही घर में सरकारी राशन आ पाता है। यह बहुत छोटा ही है लेकिन कहीं न कहीं महिलाओं के आत्मविश्वास को बढ़ाता है।”

परिवार जितना जागरूक होता है, उसके अनुसार ही घर की महिलाओं को भागीदारी मिलती है

ज़मीनी स्तर पर इन दोनों महिलाओं से बात करते हुए यह महसूस हो रहा था कि जिस तरह से परिवार जागरूक होता है, उसी के अनुसार ही घर की महिलाओं को घर के भीतर और बाहर भागीदारी मिल पाती है। जहां एक तरफ साधना को उनके पति और देवर का पूर्ण समर्थन प्राप्त है, वहीं लालती को पीछे से थोड़ी और ज़्यादा मेहनत करनी पड़ रही है।

लालती इसी के बारे में कहती हैं – “मैं पहले अपने पति के साथ गुरुग्राम में रहती थी। तब मेरे पास बहुत अच्छे अवसर आये। जहां मैं अपने और परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधार सकती थी लेकिन उस समय मेरे पति ने मेरा साथ नहीं दिया। पहले जिस फैक्ट्री में मेरे पति कपड़ा प्रेस करने का काम कर रहे थे, उसी कम्पनी में मुझे सुपरवाइज़र की नौकरी मिल रही थी।

मगर मेरे पति ने उस नौकरी को करने से मुझे मना कर दिया। उनका कहना था कि मेरे सामने कुर्सी पर कैसे बैठ सकेगी तू!?.. खैर अब वह खुद भी अपने निर्णय पर पछताते हैं।” लालती दलित वर्ग से आने वाली महिला हैं। उसका मानना है कि परिवार अगर साथ दे तो बड़ी आसानी से घर की महिलाएं बाहर निकल आर्थिक और सामाजिक स्तर पर मजबूत हो सकती हैं। वह मजबूती से कहती हैं कि -“महिलाओं की भागीदारी के लिए परिवार की समझदारी ज़रूरी है।”

महिलाएं भेदभावपूर्ण व्यवहार को पहचान नहीं पा रहीं

लालती और साधना दोनों ही अपने अपने नज़रिये में भले ही अलग-अलग पक्ष रखती हों लेकिन एक बात तो तय है, कि दोनों के अनुसार समाज में बदलाव हो रहा है। इन दोनों से बातचीत के दौरान हमारी बात नरेश मानवी से हुई, जो एक प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संस्था के साथ जुड़े हुए हैं और पिछले कई सालों से वह और उनकी संस्था महिलाओं की सामाजिक भूमिका को सशक्त करने में लगे हैं।

नरेश का घरेलू महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर एक बेहद अलग नज़रिया है। वह कहते हैं कि “मैं अपने अनुभव से यह बता सकता हूं कि अभी भी चाहे एक मजदूर महिला हो या सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल, सभी को आज भी छोटे-छोटे निर्णय लेने में घर के पुरुषों पर आश्रित रहना पड़ता है”। नरेश अपने और अपनी जीवनसाथी के अनुभवों को साझा करते हुए कहने लगे कि – “मेरी पत्नी घर में आने वाली पूंजी की इन्वेसट्मेंट कैसे करनी है, वह मुझसे बेहतर जानती है।

घर से लेकर बाहर तक के लेन-देन में कहां नफा होगा और कहां नुकसान होगा, उसे अच्छे से मालूम है। मगर जब भी किसी आस-पड़ोस वालों को पैसे के निवेश से जुड़ी कोई बात साझा करनी होती है तो हमेशा मुझे ही बुलाया जाता है। यह एक प्रकार का सामाजिक सोच है जो घरेलू महिलाओं के प्रतिनिधित्व के अवसर को कम कर देता है।”

नरेश कहते हैं कि “पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं अपने लिए जगह बनाने की कोशिश तो करती हैं लेकिन वह स्वयं इतनी परंपरावादी समाज से आती हैं कि खुद के लिए होने वाले भेदभाव पूर्ण व्यवहार को पहचान नहीं पाती हैं।” वह कहते हैं कि “सरकार को अपने कार्यक्रम में कुछ ऐसी योजनाएं तलाशनी चाहिए जहां महिलाएं अपने शोषण और हक के बीच के अंतर को समझ सकें।”

महिलाएं अपनी भूमिका परिवार से अलग नहीं बल्कि परिवार के साथ आगे ले जाएं

परिवार की बारीकियों को समझते हुए मैं फिर उसी गांव की एक महिला रीता रानी से मिला जिनकी उम्र लगभग 33 साल है। रीता प्रतिदिन गांव से तीस किलोमीटर दूर शहर जाकर काम करती हैं। शहर में उनकी एक क्लीनिक है जहां गर्भवती महिलाओं का इलाज किया जाता है। रीता ने अपनी पढ़ाई पंजाब से की है, फिर शादी के बाद गांव आना पड़ा।

जहां पति और ससुर की सूझबूझ से उन्होनें अपना नर्सिंग का कोर्स किया और आज घर के साथ क्लीनिक के सभी फैसले खुद से लेती हैं। रीता ने बात करने पर बताया कि – “मुझे शादी के बाद लगा था कि आगे अब कैसे होगा? मेरा बचपन से सपना था कि मैं मेडिकल के क्षेत्र में काम करूं। मगर जल्दी शादी हो जाने के बाद अपना ख्वाब टूटता हुआ नज़र आने लगा।

फिर भी एक दिन मैंने अपने ससुर और पति से सलाह ली। उन्होंने मेरा बहुत साथ दिया।” रीता बताती हैं कि “आस-पड़ोस के लोग अक्सर कहा करते थे कि आपके पास किसी चीज़ की कमी नहीं है, फिर क्यों नौकरी करवानी है? लेकिन मेरे परिवार ने किसी की बात को कान नहीं लगाया। बड़ा सुकून मिलता है जब मैं अपना काम करती हूं।”

तीन महिलाएं कैसे अपनी भूमिका को इस समाज में देखती हैं, मुझे उनके चश्में से बहुत स्पष्ट दिखाई देता है। उम्मीद बस यही है कि इनकी ये बात बाकी परिवारों तक पहुंचे और रीता, साधना, लालती जैसी बहुत सी महिलाएं अपनी भूमिका को परिवार से अलग नहीं बल्कि परिवार के साथ आगे ले जाएं।

यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवॉर्ड 2020 के अंतर्गत सुल्तानपुर, यूपी से राजेश निर्मल ने चरखा फीचर के लिए लिखा है

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