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महिला सशक्तिकरण से महिलाओं की स्थिति में कितना बदलाव आया है?

महिला सशक्तिकरण से महिलाओं की स्थिति में कितना बदलाव आया है?

एक बार फिर हम 8 मार्च को महिलाओं के लिए “महिला दिवस ” मनाएंगे और याद करेंगे और सदियों से चले आ रहे महिलाओं के प्रति अत्याचारों एवं उनसे छुटकारा पाने के लिए महिलाओं के द्वारा किये गए संघर्षों को अपनी वही घिसी-पिटी संकीर्ण मानसिकता से बड़े-बड़े मंचों से बताएंगे।

हमारे समाज की जड़ों में पितृसत्ता हावी है 

पितृसत्ता की मानसिकता से ग्रसित कुछ चंद नारीवादी महिलाएं और पुरुष जोर-जोर से कहेंगे कि महिला समाज आज कहां से कहां तक पहुंच गया है। पहले हम क्या थे और अब क्या हो गए हैं? और तालियों के बीच ये 8 मार्च भी आंखों से ओझल हो जाएगा।

कुछ स्वघोषित चंद विद्वान फेसबुक ट्वीटर व्हाट्सएप पर स्टेटस लगाएंगे और हमारी जनता भी याद करेगी रामाबाई, सावित्री बाई, अम्बेडकर, राजा राम मोहन राय जैसे महान सुधारवादियों के नामों को और ये भोली-भाली जनता भी पितृसत्ता की मानसिकता से ग्रसित 8 मार्च के बाद सब भूल जाएगी। 

पर कहीं ना कहीं यह बात सोचनीय है कि क्या इन हज़ारो,लाखों प्रयासों के बावजूद आज महिलाओं की स्थिति में कोई परिवर्तन आया है? अगर आया है तो कितना और उस परिवर्तन के क्या मायने हैं? इसे देखने के लिए हमें आज के परिदृश्य में हो रही घटनाओं को समझना होगा और इन्हे समझने पर लगता है कि जो परिवर्तन है, वो शायद ही काफी है।

वैसे, आज लोगों का कहना है कि महिलाओं ने चांद पर कदम रख लिया, बात तो सही है पर चांद वो सुधार है। जहां अभी हर महिला की पहुंच धूमिल है और महिला और चांद के बीच जो दूरी है, उसमें कई नकारात्मक पहलू सामने आते हैं जैसे- रेप, छेड़छाड़, एसिड अटैक, दहेज़ प्रथा, डोमेस्टिक वॉइलेन्स ( घरेलू हिंसा ), भ्रूण हत्या, मानसिक तनाव  इत्यादि। और ना जाने कितने ऐसे मील के पत्थर हैं, जो महिलाओं को कभी चांद तक शायद ही पहुंचने दें और ये ऐसी घटनाएं महज़ कोई संयोग नहीं हैं।

आयशा और उन्नाव की घटना हमारी पितृसत्ता के लिए ज्वलंत सवाल है 

हाल ही में आयशा का अहमदाबाद में आत्महत्या कर लेना, उन्नाव में गैंग रेप की घटना, उन्नाव में ही प्रेमी का लड़की को जहर खिला के मार देना, एक पिता का अपनी बच्ची का सिर काट देना और रोज होती ऑनर-किलिंग की घटनाएं हमें आज भी बताती हैं कि हमारे समाज में पितृसत्ता की जड़ें कितनी गहराई तक आज भी अपना आधिपत्य जमाए हुई हैं।

समाज में होती ऐसी घटनाएं, ऐसे तथ्य और महिलाविरोधी व्यवहार कहीं ना कहीं इन सभी सुधारवादियों की हंसी उड़ाते हैं, मुख्यतया उन महान नारीवादियों की जो मोटी-मोटी तन्खाह लेकर 8 मार्च को बड़े-बड़े मंचों और भाषणों में महिलाओं की झूठी उपलब्धियों को गिनवाती हैं और नाच-नाच कर बोलती हैं कि महिलाओं ने अपने स्थान को पा लिया है। 

महिला सशक्तिकरण एवं इससे जुडी योजनाएं महज़ कागज़ों में हैं 

वहीं हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों द्वारा महिलाओं की सुरक्षा एवं उनकी शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए चलाई गईं योजनाएं जैसे- बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, कन्या विद्या धन योजना, सुकन्या धन योजना इत्यादि एक ढकोसला सा लगता है।

जहां हमें यह सुनने क़ो मिले कि भारत में 70%  महिलाएं आज भी खुलकर माहवारी की बात भी करने में असहज हैं,  SEX  शब्द सुनकर ही हमारे देश की महिलाएं आज भी दांतो तले अपनी उंगलियां दबा लेती हैं। 

इन सब बातों से मेरा अभिप्राय सिर्फ इतना है कि चंद महिलाओं के विकास को पूरे देश के महिलाओं का विकास समझना बंद करें और झूठे नारीवाद का गुणगान करना बंद करें और असल ज़िन्दगी में महिलाओं के लिए जो कठिनाइयां हैं, उन्हें देखें और जो नारीवाद अपनी सही दिशा से भटक कर अपना रास्ता खो बैठा है, उसे फिर से सही रास्ते पर लगाने का प्रयास करें।

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