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मैं दलित हूं, इसलिए समाज में हर जगह नकारा जाता हूं

मैं दलित हूं, इसलिए समाज में हर जगह नकारा जाता हूं

हमारा देश क्या पूरा विश्व भेदभाव के वातावरण में पोषित हो रहा है। देश-विदेशों में काले-गोरे का भेदभाव,  महिलाओं और पुरुषों का भेदभाव, धर्म का भेदभाव और इसके साथ-साथ सबसे प्राचीनतम हमारे समाज का जातिगत भेदभाव।

जातिगत भेदभाव कई सदियों से समाज के कुछ तत्वों के पैर की बेड़ी बना हुआ है। जब बेड़ी युक्त पैर विकास के रास्तों पर चलेंगे तो कहीं ना कहीं जाकर थक जाएंगे। या फिर हार मान लेंगे। कितना अद्भुत लगता होगा ऐसा दृश्य उन लोगों को जिन्होंने उनको बेड़ियां पहनाईं हुई हैं।

हमारे समाज में दलित शब्द, भेदभाव का पर्याय बन चुका है 

दलित समाज में एक ऐसा शब्द बन चुका है। जिसके लिए ना तो मूलभूत आवश्यकताओं का कोई हक है और ना ही शिक्षा का कोई हक है। आज़ादी से पहले ब्रिटिश सरकार इनको दबे-कुचले वर्ग के नाम से बुलाती थी। 1850 से 1936 तक दलितों की ऐसी दुर्गति हुई जिसका कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता है। हां,  मगर उस भेदभाव का असर आज भी हम देख सकते हैं।

 वैसे तो देखा जाए तो हिन्दू दलितों की संख्या भारत में 20 करोड़ है (2011 जनगणना के अनुसार) अब तो इन आंकड़ों में इजाफा होना तय है। वहीं अगर हम 2 करोड़ ईसाई और 10 करोड़ मुस्लिम दलितों को इनमें गिन पाएं तो देखेंगे, यह संख्या 32 करोड़ तक पहुंचती है। इन आंकड़ों से अगर हम बात करें इनके विकास और शिक्षा की तो शायद हमको शर्मिंदगी महसूस हो सकती है।

सबसे अधिक भेदभाव के केस शिक्षा के क्षेत्र में देखने को मिलते हैं  

सबसे बदतरीन हालात शिक्षा के क्षेत्र के हैं। बेसिक और मिडिल स्कूलों में भी बच्चों के साथ भेदभाव तो होता ही है। हायर एजुकेशन में आते-आते दलित छात्र रोहित वेमुला बन जाते हैं। ऐसे अनेक राज्य हैं जैसे- केरल, गोरखपुर आदि। हायर एजुकेशन में अपनी पैठ जमाना या वहां से अपनी एजुकेशन  को जारी रखना दलित समाज के लोगों के लिए नामुमकिन होता जा रहा है।

कई छात्र संघ और संस्थाएं आंकड़े इकठ्ठा करने के लिए आगे आए हैं। जिनमें से कई केस ऐसे हैं, जिन्होंने सही में प्रसाशन और जातिवादी आंधी को और हवा दी। ताज़ा मामले की ओर गौर करें तो हम पाएंगे कि सफदरजंग अस्पताल में दलित छात्रों के साथ भेदभाव किया गया।

इस मामले की जानकारी देने वाले अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष श्री पूनिया जी बताते हैं कि दलित छात्रों को जानबूझ कर फेल किया गया है। उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बताया कि ऐसा सिर्फ इस संस्थान में नहीं हुआ, बल्कि देश के विभिन्न संस्थान ऐसे कर्मकांडों को अंजाम दे रहे हैं।

केवल ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं, वरन देश के केंद्रीय एवं हायर एजुकेशन में ऐसे मामले बहुत हैं 

कागज़ों में लिखे बड़े-बड़े नियम, बड़ी बड़ी बातें सिर्फ और सिर्फ कागज़ों तक ही सीमित हैं। ज़मीनी स्तर पर दृश्य कुछ और ही है। देश के बड़े -बड़े संस्थान जैसे IIT, IIM,  AIIMS और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में भी ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहां दलित छात्र-छात्राओं के साथ भेदभाव किया जा रहा है। जिस वजह से दलित समुदाय के विद्यार्थी अपना आत्मविश्वास खो रहे हैं और आगे बढ़ने की बजाय पीछे की ओर मुड़ रहे हैं।

विश्व में मशहूर लोकतांत्रिक और कई जातियों के देश के नाम से मशहूर भारत आज इस दोराहे  पर खड़ा है, जहां इसकी छवि में सिर्फ और सिर्फ कलंकित बाते हैं। देश में किस तरह की अमानवता को अंजाम दिया जा रहा है।

जाति हमारे समाज में एक अहम् सवाल 

शिक्षा के क्षेत्र में हर कदम पर अनुसूचित जाति के लिए खतरा ही है। सरकारें कितनी भी बातें बना लें, कितने भी नियम व कानून लिख लें मगर ज़मीनी तौर पर जो दृश्य है वह काफी दुखद है। बात करें रोहित वेमुला की तो वह एक शोधकर्ता थे। इस स्थान पर पहुंचने के लिए उन्होंने ना जाने कितने कंटीले रास्तों को पार किया होगा और आखिरी में हमारे समाज में फैले ब्राह्मणवाद के दंश ने उनको निगल लिया। हमको लगता था जातिगत भेदभाव सिर्फ और सिर्फ गाँव तक ही सीमित होगा, मगर जब धरातल की दृष्टि से देखेंगे तो भेदभाव करने में महानगर भी पीछे नहीं हैं।

सनी ने भेदभाव के चलते बीच में ही अपनी पढाई छोड़ दी 

24 साल के सनी गोहरी जो कि हरिजन समाज से आते हैं। जब इन्होंने 11 वीं कक्षा में अपना दाखिला लिया तो कुछ लड़कों ने इनके साथ कई ऐसे कृत्यों को अंजाम दिया, जिसका हम कभी सपनो में भी नहीं सोच सकते। सनी बताते हैं मुझे वहां पर सिर्फ सनी चपरासी कह कर पुकारते थे। उन्होंने स्कूल में शुरुआती दिनों में मेरे साथ ओरल सेक्स किया और उन्होंने कहा तू पढ़ने के लायक नहीं, यही करने के लायक है।

 इसके बाद उन्होंने मुझे टॉयलेट में बंद कर दिया था। जहां से मैं शाम को ही निकल पाया, जब स्कूल के सफाई कर्मचारियों ने साफ करने के किये दरवाज़ा खोला। उस दिन के बाद से मैंने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। उसके बाद मैंने कभी भी स्कूल की सूरत नहीं देखी। मैंने अपनी परास्नातक तक कि पढ़ाई डिस्टेंस से ही प्राप्त की है।

महरोलीय ने भेदभाव के चलते अपनी जान लेने की कोशिश की 

26 वर्षीय प्रथम महरोलीय बताते हैं कि उनके बारहवीं कक्षा में 93% अंक प्राप्त हुए थे। उनको ऐसा लगने लगा था, जैसे उनके सारे सपने पूरे होने वाले हैं। उनका सपना था कि वह दिल्ली के हिन्दू कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी करें। उन्होंने अंग्रेजी ऑनर्स के लिए प्रवेश परीक्षा भी पास कर ली थी।कॉलेज में दाखिले के बाद अक्सर साथी उनके सरनेम के लिए टोकते थे। तभी एक लड़के ने उनको बताया प्रथम भंगी है, इसका बाप सूअर खाता होगा।

बात यहीं नहीं रुकी उन्होंने मुझे इस हद तक परेशान किया कि मैंने चलती बस से खुद को गिरा लिया ताकि मेरी सासें रुक जाएं। मैं मर जाऊं। मगर वही कहावत सामने आई  “जाको राखे साइयां, मार सके न कोय”

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