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क्या किसान आंदोलन की असली शक्ति वहां बैठी महिलाओं में निहित है?

बीते सप्ताह किसान आंदोलन ने अपने सौ दिन से भी ज़्यादा पूरे कर लिए। कड़कड़ाती ठंड में दिल्ली की सीमाओं पर आकर बैठे किसान अब धीरे-धीरे बढ़ती गर्मी को भी झेलने के लिए कमर कस चुके हैं। आंदोलन में पुरुष और महिलाओं दोनों ने अपनी भागीदारी निभाते हुए आंदोलन को मजबूत किया है।

यह आंदोलन एक नया इतिहास लिख रहा है, जिसमें महिलाएं भी बढ़-चढ़कर नेतृत्व को अपने हाथों में ले रही हैं। समाज में महिलाओं की आवाज़ को हमेशा ही दबाने की कोशिश की गई है लेकिन इस आंदोलन ने उन्हें बोलने का, अपनी आवाज़ लोगों तक पहुंचाने का एक मौका दिया है। महिलाओं का कंधे से कंधा मिलाकर लड़ना ही अपने आप में एक बड़ी जीत है।

महिला अधिकार कार्यकर्ता सुदेश गोयत

जंतर मंतर पर वन रैंक वन पेंशन को लेकर हुए आंदोलन की आयरन लेडी कही जाने वालीं महिला अधिकार कार्यकर्ता सुदेश गोयत इस किसान आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। जंतर-मंतर के आंदोलन में वो लगातार दो सालों तक रिले हंगर स्ट्राइक पर रही थीं, वहीं इस आंदोलन में ये महिलाओं को एकत्रित और एकजुट करने की जिम्मेदारी निभा रही हैं।

हरियाणा और पंजाब से आंदोलन में महिलाओं की बड़ी भागीदारी के पीछे इनके प्रयास को टाइम मैगज़ीन ने जगह दी है। सुदेश कहती हैं,

“टाइम मैगजीन में किसान महिलाओं की फोटो छपने के बाद से महिलाओं में जोश और बढ़ गया है। अब वह पहले से भी ज़्यादा जोश के साथ प्रदर्शन में भाग ले रही हैं। पंजाब के किसान भाइयों और बहनों ने पूरे देश के किसानों को जगाया। अब यह आंदोलन बस किसानों का आंदोलन न रहकर, एक जन आंदोलन बन चुका है। आंदोलन ने पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में एक बड़ा बदलाव किया है। जिन प्रदेशों की मातृशक्ति को हमेशा पर्दे में रखा गया आज वही महिलाएं बढ़-चढ़कर इस किसान आंदोलन में हिस्सा ले रही हैं। कुछ महिलाएं जो सिर्फ घर में ही काम करती थीं, आज जब उनके पति और घरवाले दिल्ली बॉर्डर पर हैं तो वह महिलाएं ही गांव में अपना खेत संभाल रही हैं।”

सुदेश गोयत जी से जब सरकार द्वारा महिलाओं को किसान ना माने जाने पर सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “किसान तो बहुत दूर की बात है, अभी तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा भी नहीं मिला है। महिलाएं घर के काम के साथ-साथ खेतों में किसानी और मजदूरी भी करती हैं पर उनके काम की इज्ज़त नहीं की जाती। महिलाओं को आदमी के बराबर काम करने के बाद भी उनके जितने पैसे नहीं मिलते, अंग्रेजी में इसको Pay Gap कहा जाता है।”

गोयत कहती हैं, महिलाओं और पुरुषों के बीच भेदभाव को मिटाने के लिए आने वाले समय में हम दिन-रात एक कर देंगे। साथ ही कहती हैं कि “जब तक देश की सबसे बड़ी पंचायत में कम से कम 50% महिलाएं नहीं होंगी, तब तक महिलाओं को बराबरी का हक नहीं मिल सकता। आज भी बहुत से गांव में कागजों में लिखने के लिए महिलाओं को सरपंच बना दिया जाता है पर जब कोई सरकारी काम होता है या शहर से बाहर जाना होता है तो उनके पति ही सरपंच का ओहदा संभालते हैं। आज महिलाएं हर वो काम कर सकती हैं जो एक पुरुष करता है, बस उन्हें उनका अधिकार और बराबरी का मौका मिले।”

सुदेश गोयत पहली बार किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं ले रही हैं, बल्कि जंतर-मंतर पर होने वाले वन रैंक वन पेंशन के अलावा सेनानी विधवा औरतों के हक के लिए होने वाले प्रदर्शन में भी मुख्य भूमिका निभाई हैं। प्रधानमंत्री के आंदोलनजीवी वाले बयान की प्रतिक्रिया में वो कहती हैं,

“किसान की बेटी हूं, सैनिक की पत्नी हूं, आखिरी सांस तक अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाती रहूंगी। अगर अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना आंदोलनजीवी होना है, तो मैं गर्व से कहती हूं कि मैं एक आंदोलनजीवी हूं।”

ट्रॉली टाइम्स की संपादक नवकीरण नट

किसान आंदोलन की शुरुआत के कुछ ही दिनों बाद आंदोलन स्थल से ही एक अखबार प्रकाशित होने लगा “ट्रॉली टाइम्स”। किसानों के मुखपत्र इस अखबार की संपादक हैं नवकीरण नट। आंदोलन में इस अखबार की भी अपनी भूमिका है जिसके माध्यम से आंदोलन से जुड़ी सही चीज़ें हार्ड कॉपी या डिजिटल माध्यम के जरिये भी लोगों तक पहुंचती है। आखिर इस अखबार की ज़रूरत क्यों पड़ी हमने इसे लेकर नवकीरण से बात की। नवकीरण कहती हैं,

“हमारा जो नेशनल मीडिया है वो प्रो स्टेट है, और प्रतिरोध की आवाज़ को दबाने के लिए असली मुद्दों से भटकाने की कोशिश करता है। कभी किसी को टुकड़े-टुकड़े गैंग बोल दिया, किसी को माओवादी बोल दिया, किसी को आतंकवादी बोल दिया। ये हर आंदोलन को बदनाम करने का उनका पुराना पैटर्न है और इस दफा भी किया जिसके चलते हमें लगा कि उसको काउंटर किया जाना ज़रूरी है। अबतक जिस तरीके का हमलोगों को रिस्पॉन्स मिला वो अद्भुत है।”

“देहाती किसान जो गांव से उठकर आया है उनके लिए आज भी खबर के मायने अखबार की हार्ड कॉपी ही है, तो वही सब सोचकर हमने ट्रॉली टाइम्स अखबार निकालने का इनिशिएटिव लिया। हम खुद इस आंदोलन का हिस्सा होते हुए अपने अनुभव से जब कोई कहानी लिखते हैं तो उसका अलग प्रभाव होता है। कई पत्रकार भी जो फ्रीलांसिंग करते हैं, वो यहाँ पर छपे रिपोर्ट्स को बहुत गर्व से शेयर करते हैं। यह ट्रॉली टाइम्स के उद्देश्य और उसकी क्रेडिबिलिटी को दर्शाता है।

नवकीरण का आरोप है कि किसानों का मुखपत्र बने इस अखबार को भी दिल्ली पुलिस ने अपने निशाने पर ले लिया है। किसी भी रूप में इनसे जुड़े लोगों से पुलिस उनसे पूछताछ कर रही है और एक भय का माहौल बनाने की कोशिश कर रही है ताकि लोग इससे न जुड़ें।

इसपर प्रतिक्रिया देते हुए नवकीरण कहती हैं, कि

“मुझे यह जानकर बहुत हैरानी नहीं हुई। फिर भी सरकार हमारे पीछे अभी उस तरीके से पड़ी नहीं है, और उसकी एक वजह ये भी है कि हम मोर्चों के अंदर बैठे हैं और उनके लिए इतना आसान नहीं है मोर्चों के अंदर बैठे लोगों को टारगेट करना। वो अभी आंदोलन को बाहर से सपोर्ट कर रहे लोग जो इसका हिस्सा नहीं हैं उन्हें टारगेट कर रहे हैं, और उनको तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।” जैसे दिशा रवि, शांतनु, निकिता जैसे लोग जो बड़े-बड़े शहरों में बैठकर इस आंदोलन की सोलिडेरिटी में कुछ करना चाहते हैं, उनको ये सरकार टारगेट कर रही है ताकि उनके जैसे और लोग सोलिडेरिटी में खड़े न हों। तो ये सरकार के काम करने का तरीका है। हम कौन सा भाग रहे हैं उन चीज़ों से? हम जो कर रहे हैं हमारे एक-एक काम की हम पूरी जिम्मेदारी लेते हैं।”

आंदोलन में जेंडर रोल पर नवकीरण कहती हैं, कि “हमारे जो पब्लिक स्पेसेज़ हैं वो ऑल जेंडर फ्रेंडली नहीं हैं। बहुत ही मैस्क्यूलिन और मेल डॉमिनेंट पब्लिक स्पेसेज़ हैं। इसलिए महिलाओं के लिए बहुत मुश्किल था ऐसे सड़कों पर आकर बैठ जाना, वो भी एकदम कड़ाके की ठंड में। शुरुआत में यहां सैनिटेशन का वैसा इंतज़ाम नहीं था। बहुत सारी महिलाएं जो मेंस्ट्रुएट भी करती हैं, उनके लिए कोई प्रावधान नहीं। तो मुश्किलें तो थीं, लेकिन फिर भी मैं समझती हूँ कि इस मोर्चे का स्ट्रेंथ यही है कि महिलाओं ने इन सारी अड़चनों को पार करते हुए वो यहां पर डटी हुई हैं।”

“यहां पर जो लोग बैठे हैं, महिलाएं हैं, पुरुष हैं, उनमें ऐसे जेंडर डिवाइडेड काम नहीं है। यहां पर आपको जितनी महिलाएं दिख रही हैं, वो सिर्फ एक छोटा हिस्सा हैं। आप ये समझें कि जितने पुरुष यहां पर बैठे हैं उनके घरों को पीछे जो महिलाएं संभाल रही हैं ताकि वो यहां पर बैठ पाएं, उनकी भी उतनी ही भागीदारी है इस आंदोलन में जितना यहां बैठी महिलाओं का है।”

यह आंदोलन क्या सामाजिक बदलाव देकर जाएगा पूछने पर नवकीरण कहती हैं, कि “यह आंदोलन सिर्फ राजनीतिक बदलाव देकर जाएगा ऐसा नहीं है। ये आंदोलन अपने आप में बहुत मायनों में नए किस्म का आंदोलन है। इसके चलते इस समाज को जिसे हम मेल डॉमिनेंट भी कहते हैं उसमें ये बहुत किस्म के नए सामाजिक एवं सांस्कृतिक समीकरण पैदा करेगा। जब ये आंदोलन खत्म होगा, जब यही पुरुष घरों में वापस जाएंगे तब उन महिलाओं के पास एक पावर एक्सरसाइज़ करने के लिए होगा क्योंकि उन्होंने स्वतंत्र रूप से इस समय के दौरान अपने फैसले लिए हैं। पुरुष भी जो यहां खुद खाना बनाए हैं, जो घरेलू कामों को समझने की कोशिश कर रहे हैं, वो भी जब वापस जाएंगे तो वो भी चीज़ों को अलग नज़रिये से देखेंगे।”

दलित मजदूर अधिकार कार्यकर्ता नोदीप कौर

आंदोलन के दौरान एक और नाम बहुत चर्चा में रहीं। दलित मजदूर अधिकार कार्यकर्ता नोदीप कौर। मजदूरों के लिए हक की लड़ाई में डेढ़ महीने जेल में रहीं। हालांकि, कोर्ट ने पुलिस के मुकदमे और सबूत में काफी विरोधाभास पाया और नोदीप को बेल मिल गई। नोदीप कौर ने बातचीत के दौरान अपने कुछ अनुभव साझा किए।

वो कहती हैं, कि “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” सिर्फ बोलने के लिए है, मुफ्त शिक्षा की बात कोई नहीं करता। अगर शिक्षा की कोई कीमत न हो, तो न जाने कितनी लड़किया पढ़ पाएंगी। महिलाओं के साथ होने वाला शोषण किसी तय जगह पर नहीं होता। वह कहीं भी हो सकता है। कस्टडी में, खेतों में, फैक्ट्रियों में। नोदीप कौर बताती हैं कि जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो कस्टडी के दौरान उनपर उनकी जातिगत पहचान को लेकर भद्दे टिप्पणी किये गए और सेक्सुअली असॉल्ट भी किया गया।

ये बताते हुए नोदीप कहती हैं, “मजदूर महिला को हमेशा एक वस्तु समझा जाता है, कि उसके साथ कोई भी, कुछ भी कर सकता है। एक मजदूर महिला, अपर क्लास की महिला से अलग है। मजदूर महिला आज भी समान वेतन की मांग कर रही है। बहुत काम करवाने के बाद भी कंपनिया महिलाओं को वेतन देने में कंजूसी करती हैं और जब महिलाएं अपना हक मांगती हैं, तो उनकी आवाज़ को दबाया जाता है। साथ ही औरतों के लिए बोलने वाले लोगों पर भी हमले करवाए जाते हैं। मगर चाहे जितने भी उतार चढ़ाव हों, हम मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ते रहेंगे। जेल से छूटने के बाद ही मैं उनकी परेशानियों को दूर करने में लग गई हूं।

देश के बदलते माहौल और निराशा को लेकर सवाल पर वो कहती हैं, कि

“ऐसा नहीं है कि ज़ुल्म का ये दौर पहली बार आया है। पहले भी ऐसा होता रहा है, जनता ने जिसका अंत सुनिश्चित किया। इसलिये हमें किसान, मजदूर, महिला, छात्रों एवं जनहित के हर मुद्दों पर संघर्ष करते रहना चाहिए। हम चुप रहकर वक्त को खुद बदलने की अपेक्षा नहीं कर सकते।”

इस तरह से इस आंदोलन में महिलाओं ने अलग-अलग मोर्चों पर अपनी भागीदारी निभाई है, और नेतृत्व को अपने हाथ में रखा है। किसान आंदोलन की आधी से भी ज़्यादा शक्ति वहां बैठी महिलाओं में निहित है, अगर ऐसा कहा जाए तो यह बिल्कुल भी गलत नहीं होगा। इस आंदोलन ने यह तो ज़रूर तय कर दिया है कि इन राज्य की महिलाओं ने आने वाले समय में सामाजिक बदलाव के लिए एक नई इबारत लिख दी है, जो शायद इस आंदोलन के बाद से ही दिखना शुरू हो जाए।

 

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