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क्या महिला सशक्तिकरण एवं उनसे जुडी योजनाएं महज़ एक जुमला है?

क्या महिला सशक्तिकरण एवं उनसे जुड़ी योजनाएं महज एक जुमला है।

आज सुबह मुझे फेसबुक पर एक वीडियो के माध्यम से बिहार के एक शहर समस्तीपुर की भयावह घटना देखने को मिली, जहां दो लड़कियां जिनकी उम्र 20-22 के करीब थी। उन्हें इस वीडियो में बड़ी बेहरमी से पीटा जा रहा था, मानो वे कोई अपराधी हों।उस वीडियो में सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि उनको इस बेहरमी से पीटने वाले भी मुझ जैसे युवा ही थे। इसे देखते ही मेरा सिर शर्म से झुक गया कि भारत युवाओं का देश है तो क्या हमारे देश के युवा इस तरह की गन्दी मानसिकता से ग्रसित रहेंगे?

क्या बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ महज़ एक नारा है? और हिंदुस्तान के कुछ विकसित मेट्रोपोलिटिन शहरों के विकसित क्षेत्रों में लड़कियों को आसानी से शिक्षा लेने की जो आजादी है, क्या वह शेष भारत में संभव नहीं है? क्या महिला स्वतंत्रता और महिला सशक्तिकरण मात्र एक छलावा है?

महिलाओं पर पितृसत्तात्मक समाज का हावी होना

आज देश में अगर महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही हैं तो क्या हम उन्हें स्वच्छंद कहकर उनकी गरिमा को ठेस नहीं पहुंचा रहे है? कुछ महीने पहले न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री की काफी प्रशंसा हुई, क्योंकि वह देश पूर्णरूप से कोरोना मुक्त हो चुका है।

न्यूजीलैंड के साथ साथ डेनमार्क, ताइवान, फिनलैंड और ताइवान में भी कोरोना की स्थिति नियंत्रण में दिख रही है। इन सबमें सबसे रोचक बात यह है कि डेनमार्क और फिनलैंड की प्रधानमंत्री भी न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री की तरह “महिलाएं” हैं। 

भारत में केरल लगभग करोना मुक्त है और वहां की स्वास्थ्य मंत्री भी महिला हैं, उपरोक्त कारणों से इस बात की चर्चा लाज़िमी है कि क्या महिलाएं शासन व्यवस्था चलाने में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा सक्षम हैं? अक्सर ऐसा कहा जाता है कि महिलाओं में उनका सबसे अच्छा गुण संवेदनशील होना है, अपनी संवेदनशीलता के कारण वह सामने वाले के प्रति उदार भावना रखती हैं। एक पक्ष का कहना है कि महिलाएं किसी भी राष्ट्र की शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चला सकती हैं, वहीं एक दूसरा पक्ष इन बातों का पूर्ण रूप से खंडन करता है और केरल को एक अपवाद मानता है।

 ऐसे लोगों का मानना है कि हिंदुस्तान में जहां और जिस जगह महिलाएं शासन से लेकर नौकरी या व्यवसाय में हैं, वहां की शासन व्यवस्था पूर्णरूप से भष्टाचार रहित हो गई हो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। आजाद हिंदुस्तान में केवल एक बार घोषित तानाशाही लाई गई थी, वह भी एक महिला के द्वारा ही लायी गई थी। किसी सरकारी अस्पताल में किसी गर्भवती महिला का प्रसव ठीक से नहीं हो पाता है तो उसके लिए आशा बहुएं ही जिम्मेदार होती हैं। किसी सरकारी अस्पताल की सरकारी मुलाजिम या अधिकारी या किसी राज्य के मुख्यमंत्री के द्वारा उसी तरह भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है, जैसा पुरुषों के माध्यम से होता है।

आज अगर हमारे देश की बेटियां पढ़-लिख कर उच्च पद पर जा रही हैं तो उनकी मानसिकता भी “सुविधाभोगी” जीवन जीने की ही होती है। अगर ऐसा कोई अपवाद है तो वह दोनों जेंडरों में उपलब्ध है, ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि महिलाओं के द्वारा सुचारू रूप से शासन चलाया जा सकता है? मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि ऊपर महिलाओं के बारे में जो विचार रखे गए हैं, वह गलत नहीं हैं और सरसरी तौर पर देखने में यह भी आता है कि महिलाओं की बहुत सी खराब परिस्थितियों के लिए स्वयं महिलाएं ही पूर्णरूप से जिम्मेदार होती हैं।

महिलाओं का पुरानी कुप्रथाओं एवं पितृसत्तात्मक समाज के नियमों में जकड़ा होना

लेकिन, ऐसा मानने वाले लोग एक कारण को पूरी तरह से अनदेखी करते हैं। वह प्रमुख कारण है पिछले पांच हजार सालों की “पितृसत्तात्मक व्यवस्था” पुरुष प्रधान समाज और सामंतवादी व्यवस्था में आप इस बात की अनदेखी कैसे कर सकते हैं? पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक महिला का जीवन च्रक इस प्रकार होता है कि सबसे पहले वह एक छोटी बच्ची होती है और बाद में किशोरी होती है फिर जवान और उसकी यात्रा औरत बनने के बाद प्रौढ़ावस्था में समाप्त होती है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक वह पुरुष समाज के द्वारा बनाए गए नियमों की गुलाम होती है, उसी को देखकर उसके मन में यह बात बैठा दी जाती है कि स्त्रियों के लिए समाज के यही अलिखित नियम होते हैं।

वह अपनी पूरी ज़िन्दगी यही मानकर चलती है कि जीवन इसी तरह जिया जाता है और दूसरी महिलाओं को भी इसी तरह जीना चाहिए। एक सर्वे में (बीस साल पहले) बताया गया था कि दुनिया की आधी औरतें अपने पतियों से घरेलू हिंसा ( मार खाती)  का शिकार होती हैं और मार खाने वाली औरतों का मानना था कि अगर मैंने गलती की है तो मार खाना गलत भी नहीं है। स्त्रियों में ऐसी मानसिकता उसी “पुरुष प्रधान समाज” की देन है, अगर इस नियम का कहीं उल्लंघन होता भी है तो स्त्रियों को कई तरह की प्रताड़ना जिसमें मौत भी शामिल होती है दी जा सकती है।

ऐसी स्थिति में आप उनसे यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि किसी यूनिवर्सिटी की महिला कुलपति किसी पुरुष कुलपति के मुकाबले राजनीतिक दबाव में नहीं आएगी। दुर्भाग्यवश,अभी तक यह नियम चला आ रहा है इसलिए उदारीकरण के दौर में जिन महिलाओं को स्वतंत्रता मिली उनमें से कुछ पुरुष समाज की तरह “स्वच्छंद” भी हो गई हैं।

लेकिन, आप उनकी इस तथाकथित स्वच्छंदता का गुणगान करने वाले होते कौन हैं? पुरुष समाज तब तक यह बात बोलने का अधिकारी नहीं है, जब तक वह अपने इस पांच हजार साल पुराने चलाए जा रहे अपने सामंतवादी नियमों और मानसिकता के शासन को नहीं बदलता है।

अगर पुरुष समाज स्वच्छंद ना होकर स्वतंत्र रहे तो महिलाएं भी उनसे सौ गुना स्वतंत्र भी हो सकती हैं और संवेदनशील होकर शासन व्यवस्था उसी ढंग से चला सकती हैं, जैसी शासन व्यवस्था न्यूजीलैंड और अन्य देश की महिला प्रधानमंत्री चला रही हैं। इन सब बातों की अनदेखी करने वाले अक्सर उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती का उदाहरण देकर यह बतलाते हैं कि वहां उनके शासन में किस तरह भ्रष्टाचार को लगातार बढ़ावा दिया गया। संभव है कि उनकी बात सही हो, लेकिन क्या यह सही नहीं है कि मायावती जिस समाज और वर्ग से आती हैं अगर वह आक्रमक राजनीति नहीं करती, सिद्धांत विहीन राजनीति नहीं करती तो क्या आज के राजनीतिक मॉडल में वह खप पातीं?

 यह बात सही है कि सत्ता लोलुपता के कारण आज उनकी राजनीतिक मौत हो चुकी है, लेकिन यह बात भी उतनी ही सही है कि अगर हमारा समाज पितृसत्तात्मक व्यवस्था से ग्रसित नहीं होता तो शायद आज मायावती जी हिंदुस्तान की दूसरी “अंबेडकर” होती। यही बात स्वर्गीय जयललिता या अन्य महिला शासकों के बारे में भी कही  जा सकती है।

इसलिए संवेदनशील और जागरूक लोगों को पितृसत्तात्मक विहीन समाज बनाने का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए खुद महिलाओं को भी आगे आना होगा। इस कार्य में पुरुष समाज पीछे से मदद कर सकता है और किसी को इन बातों पर आपत्ति हो तो वह ऋग्वैदिक काल का इतिहास उठाकर देख सकते हैं, जहां पर सामंतवादी व्यवस्था नहीं थी और महिलाओं को उनके सारे अधिकार प्राप्त थे। आज सन् 2021 में भी हम समतामूलक समाज की अगर बात करते हैं तो उसी पीरियड की ओर पीछे मुड़कर देखते हैं।

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