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दलित महिलाओं से जुड़े जातिगत मुद्दों को नज़रअंदाज़ करता मेनस्ट्रीम मीडिया

दलित महिलाओं से जुड़ें जातिगत मुद्दों को नज़रअंदाज़ करता मेनस्ट्रीम मीडिया

70 साल पहले बाबासाहब अंबेडकर ने चिन्ता जतायी थी कि “हमारे लोगों के लिए कोई प्रेस नहीं है। हमारे लोगों का रोज़ दमन और शोषण हो रहा है, लेकिन प्रेस उन्हें कभी उजागर नहीं करती है।”

अंबेडकर ने मीडिया के इस रवैये को संगठित षड्यंत्र की संज्ञा दी थी। आज़ादी के कई दशक बीत जाने के बाद भी इस स्थिति में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ, ना ही लोगों में जाति के प्रति धारणा बदली, ना ही देश में दलित महिलाओं की स्थिति में सुधार आया और ना ही मीडिया में दलितों की समस्याओं से जुड़ी खबरो के लिए जगह बन पाई है।

क्या कहते हैं जातिगत अपराधों से सम्बन्धित आंकड़े

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार साल 2019 में 32,033 महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुआ है, जिनमें से 11 प्रतिशत महिलाएं दलित जाति की थीं यानी एक दिन में औसतन 10 दलित महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुआ है। इनमें सर्वाधिक ग्रामीण परिवेश की दलित महिलाएं हैं, जहां देश की 68 प्रतिशत आबादी रहती है। ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में जाति व्यवस्था आज भी कायम है।

ऐसे में सवाल उठता है कि मीडिया गांवों में फैली इस महामारी को कितना तवज्जो देती है? क्या मीडिया को गांवों में फैला जातिवाद नहीं दिखता? क्या मीडिया की नजर में गांव का मतलब खेती किसानी ही है? वह ग्रामीण परिवेश में मौजूद अन्य पहलूओं को क्यों नहीं तवज्जो देना चाहता? ऐसे बहुतेरे सवाल जेहन में हैं। आज कोई भी मीडिया हाउस आखिर इन जातियों के उन्मूलन की बात क्यों नहीं करना चाहता है।

हम बात अगर भारतीय मीडिया चैनलों की करें तो मीडिया अपने खबरों के मामले में काफी सिलेक्टिव रहता है, कई मामलों में अगर दुष्कर्म की शिकार महिला ऊंची जाति की है तो मीडिया उसे तत्काल संज्ञान में लेती है। वहीं अगर महिला ग्रामीण पृष्ठभूमि और निचली जाति की है तो उस पर मीडिया चुप्पी साध लेती है। दलित महिला के साथ हुई घटना इन न्यूज चैनलों के लिए तब तक कोई मुद्दा नहीं बनता, जब तक कि वह मुद्दा किसी आंदोलन का रूप ना ले ले।

जाति हमारे समाज एवं संस्कृति का प्रमुख तत्व

सामान्यतया महिलाओं का शोषण उनके महिला होने के कारण होता है, परंतु दलित महिलाओं का शोषण उनकी  जाति के कारण भी होता है। इस पित्तृसत्तात्मक समाज में महिलाएं वैसे भी कमजोर हैं, उस पर भी अगर महिला दलित है तो वह और भी कमजोर हो जाती है। यदि हम भारत में बलात्कार की घटनाओं का सामाजिक विश्लेषण करें, तो देश में जितनी भी बलात्कार की घटनाएं होती हैं, उनमें से ज्यादातर पुरुष अपना पौरुष व जाति का आधिपत्य जताने के लिए ऐसा करते हैं।

 इसे दो आधारों पर देखा जा सकता है। पहला, सामाजिक अपराध और दूसरा व्यक्तिगत अपराध। अधिकतर देश के पत्रकार इन मूल अंतर को नहीं समझ पाते हैं। उनको लगता है कि किसी दलित महिला के खिलाफ जाति आधारित यौन हिंसा, किसी अन्य बलात्कार की घटना से अलग नहीं है। जबकि ऊंची जाति की महिलाओं के साथ दुष्कर्म इसलिए होता है, क्योंकि वे महिला हैं। जबकि दलित महिला के साथ ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वे दलित हैं। इसमें पहली घटना परिस्थिति पर आधारित है तो दूसरी जन्म के समय ही तय हो जाती है।

हमारे तथाकथित सभ्य समाज की संकीर्ण मानसिकता

हाथरस में हुई घटना सिर्फ दुष्कर्म की घटना नही थी। यह एक प्रकार से जातीय दुष्कर्म का मामला था। जहां  दुष्कर्म की घटना पर अफसोस जताने के बजाय, यह गांव वालों की इज्जत या कहें कि उनके लिए अपनी साख का मुद्दा बन गया था। जिस तरह से गांव में जातीय गोलबंदी की गई। यह उस समाज की मानसिक विकृति को दर्शाती है। मीडिया ने घटना पर सरकार और प्रशासन से तो सवाल किए पर जातिवादी धारणाओं को लेकर जो गोलबंदी हो रही थी, उस पर उसने कभी सवाल नहीं किए।

 मुंबई में डॉक्टर पायल तडवी ने अपने साथ के सहपाठी एवं दोस्तों के जातिसूचक शब्दों और आरक्षण के तानों से परेशान होकर आत्महत्या कर ली थी। इस घटना पर शायद ही किसी मीडिया चैनल ने इसे सामाजिक बुराई बताकर इसके खिलाफ कोई कार्यक्रम चलाया हो।

हमारे भारतीय मेनस्ट्रीम मीडिया की असल तस्वीर

कहते हैं “जिस पर बीती, वही जाने”। जब बात दलित महिला की है तो कहने वाली भी कोई दलित महिला ही होनी चाहिए। साल 2019 में छपी अनिल चामड़िया की रिपोर्ट, जिसमें उन्होंने मीडिया हाउसों में जातीय असमानता को लेकर रिपोर्ट तैयार की थी। इसमें उन्होंने बताया कि भारतीय मीडिया भले ही कितनी सामाजिक समानता की बात करे, मगर मीडिया चैनलों के अंदर यह समानता नहीं दिखती है।

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की मीडिया के 85 प्रतिशत भाग पर देश के 16 प्रतिशत उच्च वर्ण का ही आधिपत्य है। जबकि निम्न वर्णो की बात करें तो अन्य पिछड़ा वर्ग जो देश में 32 प्रतिशत है, उसका प्रतिनिधित्व 4 प्रतिशत है। वहीं 17 प्रतिशत की जनसंख्या वाले अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व शून्य (0) प्रतिशत है। इसमें दलित महिलाओं के प्रतिनिधित्व का जिक्र करना व्यर्थ ही है। इन आंकड़ों पर यदि विचार किया जाए, तो दिमाग में यह बात कौंधती है कि जब मीडिया में दलित महिला का प्रतिनिधित्व ही नहीं, तो उनके हिस्से की बात कौन करेगा?

मीडिया हाउसों में होती जातिगत पत्रकारिता

दलित महिला पत्रकार व एक्टिविस्ट मीना कोटवाल बताती हैं कि “हाल ही में एक समारोह आयोजक का उनके पास फोन आया, उन्होंने पूछा कि तुम्हारी नजर में कोई दलित महिला पत्रकार है? जो दिल्ली में हो और रिपोर्टर हो!इसके जवाब में मीणा कहती हैं कि वह तो मैं भी हूं!! नहीं, तुम्हारे अलावा कोई और हो उसको बताओ (क्योंकि इससे पहले वो इसी समारोह में जा चुकी थीं)।

मीना ने जवाब दिया, मुझे अभी नाम नहीं याद आ रहा है, कुछ देर में सोच कर बताती हूं। मीना कहती हैं कि दलित महिला एक्टिविस्ट और पत्रकार होने के बावजूद काफी देर तक सोचने पर मुझे दो दलित महिला पत्रकारों के नाम याद आए। परंतु, काफी पता करने पर जानकारी मिली कि एक राजस्थान पत्रिका में काम करती थी, अभी कहां है पता नहीं? जबकि दूसरी ने पत्रकारिता छोड़ दी है और अब वह कहीं काम नही कर रही है।

 इसके अलावा कोई दलित महिला पत्रकार उनकी नजर में नहीं है। वो कहती हैं कि दलित महिला पत्रकार की कमी इस कदर है कि वह मेरे ध्यान में ही क्या, बड़े बड़े पत्रकारों के भी ध्यान में नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो वह मुझसे पूछते ही क्यों? मीना कहती हैं कि मुझे काफी दुःख हुआ कि दिल्ली में कोई दलित महिला पत्रकार नहीं मिली, प्रोग्राम के लिए दिल्ली के बाहर से दलित महिला पत्रकार को बुलाना पड़ा।

मीना कोतवाल की इन बातों से समझा जा सकता है कि जब दिल्ली जैसे शहर में, जहां इतने मीडिया हाउस हैं, वहां यह हाल है तो दिल्ली से बाहर के राज्यों में हम क्या ही उम्मीद कर सकते हैं? हाल के कुछ वर्षों में डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर कुछ चैनल इन मुद्दों पर आगे आए हैं, जिन्होंने मेनस्ट्रीम मीडिया के एक वर्ग विशेष की खबरों से इतर शोषित वंचितों की आवाज उठाने का काम किया है। इन डिजिटल प्लेटफार्म में दलित वर्ग की महिलाएं भी हैं। उनकी खबरों में आम महिलाओं की वास्तविक समस्याएं होती हैं। उन खबरों में शोषितों, दलितों की आवाज होती है।

 ये काफी सुखद होता है, महिलाओं का अपने मुद्दे पर बात करते हुए देखना। आज की महिलाओं के लिए यही कहा जा सकता है कि वर्षों से शोषित, दलित महिला वर्ग जब तक अपना प्रतिनिधित्व खुद नहीं करेगा, तब तक दूसरे उसके दर्द को यूं हीं नजर अंदाज करते रहेंगें।

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