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पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में विलुप्त होती हमारी संस्कृति

पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में विलुप्त होती हमारी संस्कृति

इतिहास में हमें यह बात पढ़ाई जाती रही है कि जब दुनिया की सारी सभ्यताएं अपना बर्बर जीवन व्यतीत कर रहीं थी, तब भारत में वेद की ऋचाएं गूंजती थीं। महिलाओं का भी यज्ञ में बराबर का योगदान रहता था। हमारी भारतीय संस्कृति तब पूर्ण तरीके से परिष्कृत थी, बात चाहे अध्यात्म की हो या कि आर्थिक विकास की भारतीय संस्कृति पूर्ण रूप से विकसित रही है। आर्यावर्त को सोने की चिड़िया ऐसे ही नही नहीं कहा जाता था।

औद्योगिक क्रांति, मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि

समय परिवर्तन का नाम है। बदलते हुए समय ने पश्चिमी सभ्यता में औद्योगिक क्रांति को देखा। औद्योगिक क्रांति के कारण बड़े-बड़े कारखानों और मशीनों का विकास हुआ। धीरे-धीरे इन उद्योगों और मशीनों ने मानव का जीवन बहुत आसान कर दिया। लेकिन, औद्योगिक क्रांति अपने साथ और भी परिणाम लेकर आई। आर्यावर्त इन औद्योगिक रूप से विकसित देशों के सामने टिक नहीं पाया और इसका परिणाम हुआ कि भारत राजनैतिक और आर्थिक रूप से गुलामी की बेड़ियों में जकड़ गया।

औद्योगिक क्रांति ने आदमी का जीवन आसान तो कर दिया पर इसी के साथ वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण आदि समस्याएं भी विकास के साथ आईं। बदलते हुए समय ने भारत को आज़ाद होते हुए देखा है। भारत सरकार ने भी औद्योगिक क्रांति को अपनाने में कोई कोताही नहीं की। जाहिर सी बात है, इसकी अच्छाइयों के साथ साथ इसके दुष्परिणाम भी भारत को झेलने पड़े। आज 21 वी सदी में वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण आदि पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत की भी समस्या बन चुकी है।

आजकल पूरी दुनिया और भारत वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण के गलत परिणामों के प्रति सचेत हैं और इनसे पूर्णरूप से निपटने की दिशा में अनेक कदम भी उठाए भी जा रहे हैं, पर इन सबके बीच हमारी संस्कृति के सांस्कृतिक प्रदूषण की ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।

पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण

जब भारत के लोगों ने यह महसूस किया कि वो आर्थिक और औद्योगिक रूप से पश्चिमी सभ्यता के लोगों से पिछड़े हैं तो भारतीय लोगों ने पश्चिमी सभ्यता की अच्छाइयों के साथ उसकी बुराईयों को भी अपना लिया। पश्चिमी सभ्यता के लोगों द्वारा किए जा रहे हरेक रीति-रिवाज को आंख मूंदकर अपनाया जाने लगा।

पहले भारत मे समाज सुधारक, विद्वान, धर्म विशेषज्ञ युवाओं के मार्ग प्रदर्शक होते थे। गुरु अपने शिष्यों की शिक्षा- दीक्षा पर अपना विशेष ध्यान देते थे। यौन क्रीड़ा एक दायरे में रहकर की जाती थी। अनेक कुटीर उद्योग अपने साथ एक संस्कृति को पाले रहते थे, मसलन कठपुलती का नाच आदि। गाँव, देहातों में आज भी हमारी संस्कृति की  पौराणिक कथाओं परआधारित नाटक खेले जाते हैं।

लेकिन, आज का परिदृश्य बिल्कुल बदला हुआ है। भारत की युवा पीढ़ी पश्चिमी सभ्यता के अंधाधुंध अनुकरण में कोई चूक नहीं कर रही है। अपने मोबाइल में अंग्रजी भाषा के कॉलर ट्यून को लगाने में अपना मान समझती है। विदेशी गायक, विदेशी कपडे, विदेशी खाने, विदेशी गाड़ियां इत्यादि वर्तमान में अब मान-सम्मान का प्रतीक बन गए हैं।

विलुप्त होती हमारी संस्कृति

पश्चिमी सभ्यता की अच्छाइयों का अनुकरण करने में कोई बुराई नहीं है, पर अनुकरण के नाम पर बुराइयों को अपना लेना कहां तक उचित प्रतीत होता है? यौन क्रीड़ा का खुला प्रदर्शन इत्यादि कैसे हमारे समाज के ताने-बाने का एक अभिन्न हिस्सा बन गए हैं? वैलेंटाइन डे, रोज डे, किस डे, हग डे आदि का प्रचलन भारत में क्यों शुरू हो गया? सरस्वती पूजा, गुरु पर्व आदि हमारी संस्कृति में से क्यों विलुप्त होते जा रहे हैं? इसका मुख्य कारण यह है कि हमने अपनी संस्कृति की सांस्कृतिक विरासत में स्वाभिमान का एहसास खो दिया है।

आज कल की युवा पीढ़ी के सामने भारतीय विद्वान उतने पूजनीय नहीं हैं, जितने कि बाहर के विद्वान हमारी नई युवा पीढ़ी के लिए आदर्श बनते जा रहे हैं। हद तो तब हो गई, जब विवेकानंद जी को अमेरिका में नाम और सम्मान प्राप्त हुआ, तभी जाकर उन्हें भारत मे ख्याति मिली। योगानंद परमहंस, ओशो, स्वामी राम इत्यादि इन सबके साथ भी यही हुआ।

मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि सांस्कृतिक गुलामी और सांस्कृतिक प्रदूषण के दुष्परिणाम के चंगुल से भारत को आज़ाद होना अभी रह गया है। राजनैतिक रूप से तो भारत आज़ाद हो चुका है, पर सांस्कृतिक रूप से आज़ादी को हासिल करना बहुत जरूरी हो गया है।

हमें हमारी सांस्कृतिक आज़ादी, सांस्कृतिक प्रदूषण को खत्म किए बिना नहीं प्राप्त होगी। हमें इसकी शुरुआत स्कूल और विश्वविद्यालयों से करनी होगी। अगर हमारी युवा पीढ़ी में अपनी संस्कति और अपने इतिहास के प्रति सम्मान का भाव पैदा होगा, तभी इस देश को सांस्कृतिक प्रदूषण के दुष्परिणामों से बचाया जा सकता है। इसके लिए यह बहुत जरूरी है कि भारतीय सरकार शिक्षा पद्धति में आवश्यक बदलाव करे और शिक्षकों का पूर्ण सहयोग प्राप्त हो, तभी हम कह सकेंगे कि भारत आज भी सोने की चिड़िया है।

 

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