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पश्चिम बंगाल के सियासी दंगल में राजनीतिक पार्टियों की साख दांव पर

मां, माटी और मानुष बंगाल की राजनीति में अहम पहलू

चुनाव आयोग की घोषणा के बाद कोरोना काल में 18 करोड़ मतदाता और कुल 824 विधानसभा सीटों पर नई लोकतांत्रिक सरकार चुनने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, वह भारत की विविधता के सामाजिक संस्कृति के परिचायक हैं। फिर चाहे बंगाली भाषी समाज हो या असमिया भाषी समाज या तमिल और मलयाली भाषी समाज सभी की सभ्यता संस्कृति एक-दूसरे से बिल्कुल ही अलग है।

इन चारों राज्यों में सबसे लंबी चुनावी प्रक्रिया पश्चिम बंगाल में आठ चरणों में चलने वाली है, जहां सबसे बड़ा चुनावी दंगल भी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मात्र तीन विधायक का दम रखने वाली भारतीय जनता पार्टी ममता दीदी के सामने जिस तरह की चुनौती पेश कर रही है, वह बहुत अधिक आश्वर्यजनक है।

यह भी सच है कि ममता दीदी के पार्टी से टूटे विधायक भारतीय जनता पार्टी को विशेष आत्मविश्वास दे रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी को यह आत्मविश्वास लोकसभा चुनाव में अपने प्रदर्शन से भी मिला है। परंतु, उनका सारा आत्मविश्वास ममता बर्नजी के सामने कोई स्थानीय मज़बूत चेहरा नहीं मिलने पर खोखला सा भी दिखता है।

मां, माटी और मानुष बंगाल की राजनीति में अहम पहलू

“मां, माटी, मानुष” के नारे पर राजनीति करने वाली ममता दीदी ने अब की बार चुनावों में स्वयं को बंगाल की बेटी के तौर पर पेश तो कर दिया है। पर, बंगाल में मां दुर्गा का किला भेद कर भगवान राम के नाम पर हिंदुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा ने अभी तक बंगाली मानुष के नाम की घोषणा तक नहीं की है।

वह जरूर अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती, क्रिकेटर सौरव गांगुली और अन्य बड़ी बंगाली हस्तियों को अपने पाले में दिखा रही है। पर, इन चेहरों पर पश्विम बंगाल की जनता का विश्वास बनना मुश्किल है। इसलिए सबको साथ लेकर चलने वाली तर्ज पर प्रधानमंत्री के नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा है।

यह एक नया मॉडल है, जिसे पश्चिम बंगाल के लोगों ने भी अभी तक नहीं देखा है। सिद्धांत शंकर रे से लेकर ज्योति बसु और उसके बाद ममता बर्नजी तक के दौर में हमेशा से पश्चिम बंगाल के चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा? यह पश्चिम बंगाल की जनता देखती आ रही है।

मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों का चुनावों में महत्व

पश्चिम बंगाल के इस चुनाव में ममता दीदी के खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान कितना है, यह तो चुनावों के परिणाम में पता चलेगा कि कांग्रेस और वाम मोर्चे और भाजपा कितनी सीटों पर सेंध लगा पाती है। इसके साथ-साथ पश्चिम बंगाल में रहने वाले 31 फीसदी मुस्लिम मतदाता जो कमोबेश सौ से अधिक सीटों पर प्रभाव रखते हैं, वे “किंग मेकर” की भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं।

पश्चिम बंगाल चुनाव में हिंदुत्व की राजनीति के प्रयोग से मुस्लिम मतदाता दोराहे पर खड़ा है, जिसका फायदा लेने के लिए ओवैसी की पार्टी भी अपने दांव पेंच लगाना चाहती है। पश्चिम बंगाल चुनाव में अब्बास सिद्दीकी और ओवैसी की पार्टी का एक साथ में आना एक बड़ा उलट-फेर कर सकता है। यह गठबंधन कांग्रेस के मतदाताओं को भी अपने तरफ आकर्षित कर सकती है। 

बड़े राजनीतिक दल ही नहीं, यहां तक कि क्षेत्रीय पार्टियां भी मुस्लिम मतदाताओं में मौजूद बैचेनी को पकड़ने में नाकामयाब रही हैं। यही कारण है कि ओवैसी की पार्टी धीरे-धीरे कई राज्यों में अपना वोट प्रतिशत मजबूत कर कुछ सीट भी निकाल लेती है तो उनकी पार्टी को वोटकटवा कहा जाने लगता है।

बांग्ला भाषा का ना आना अन्य राजनीतिक दलों की की सबसे बड़ी चुनौती

पश्चिम बंगाल के चुनाव में ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम का अपना पूरा दम मुर्शिदाबाद जिले की  22 विधानसभा सीटों पर होगा। जहां मुस्लिम आबादी का कमोबेश 47 लाख मतदाता अपने मतों का प्रयोग करता है। वैसे, इस इलाके में एआइएमआइएम के वरिष्ठ नेताओं के लिए बांग्ला भाषा भी एक बड़ी बाधा मतदाताओं से जनंसम्पर्क के दौरान हो सकती है।

इस इलाके में किसानों के बीच उनकी पकड़ अधिक मजबूत नहीं है। भले ही वह स्कूल-कॉलेज और मुस्लिम मध्यवर्ग के बीच लोकप्रिय है। ओवेसी और उनका गठबंधन किंग मेकर होगा या नहीं, यह 2 मई को परिणाम आने पर ही तय होगा। पर पश्चिम बंगाल के चुनाव हर राजनीतिक दल के माथे पर पसीना जरूर ला देंगे। कुल मिलाकर ,अब की बार पश्चिम बंगाल में सबसे बड़ा सियासी दंगल है, जिसकी शुरुआत लोकसभा चुनाव के समय से हो गई थी और अंत 2 मई के चुनावी परिणाम के बाद देखने को मिलेगा।

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