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तरजीह

तरजीह

नौकरी नहीं है, पर ऐसा नहीं है

काम नहीं है, काम तो बहुत है

पर उस काम का मेहताना नहीं है।

मेहताना नही है, तो बचत नहीं

बचत तो नहीं है,पर खर्चा

वह बहुत है।

पर, आजकल

दुनिया वालों ने इंसान का वजूद

इन्ही से समझ रखा है

और बार-बार अहसास भी

कराती रहती है कि

नौकरी और रूपयों के बिना

इंसान का वजूद कुछ भी नहीं है।

वह भूल चुके है कि

जब कोई जन्म लेता है

तब हाथ में सोने-चांदी

रुपयों से भरा थैला हाथ

में लेकर नहीं जन्म लेता है।

इन्सान खाली हाथ

इस धरा पर आता है

और खाली हाथ ही

इस धरा से विदा लेता है।

वह संचय करता है

अपने कर्मशील से

वह मनुष्य के साथ

मनुष्यता का दावा

कर सकता है

अपनी आदतों से

खर्चा किसी के

हाथ में नहीं है।

 

उस पर नियंत्रण किया जा सकता है

मेहताना वह मजदूरी करके

मेहनत करके कमाया जा सकता है

पर रुपयों से भरा थैला

चापलूसी के साथ

ज़मीर बेच के भी

भरा जा सकता है।

हां, ऐसे तो कम वक्त में

दिखावटी ऊंचाई तक पहुंचा

जा सकता है पर वह

जमीं पर भी गिरा रहता है

अब यह तो हमारी व्यक्तिगत

सोच पर निर्भर करता है।

वह चाहता क्या है?

दिखावटी दुनिया के साथ

दिखावा करना या फिर

अपनी सादगी बनायें रखना

अपनी आत्म-संतुष्टि जरूरी है

या फिर तृष्णा की तरजीह?

 

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