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पत्रकारिता का सर्वोच्च संस्थान और वहां की “टू मच डेमोक्रेसी”

भारतीय जनसंचार संस्थान देश में पत्रकारिता की नींव तैयार करने वाला सर्वश्रेष्ठ संस्थान है। कोरोना महामारी की वजह से पहले सेमेस्टर की कक्षाएं ऑनलाइन माध्यम से चल रही हैं। कल सेमेस्टर का आखिरी दिन था और इस सत्र में संस्थान ने शुक्रवार संवाद नाम की श्रृंखला शुरू की है, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ व माननीय अपने विचार छात्रों से साझा करते हैं।

आखिर क्या है ये “टू मच डेमोक्रेसी” का मामला?

कुछ दिनों से अगले सेमेस्टर की क्लास ऑनलाइन होगी या ऑफलाइन, इसपर असमंजस बना हुआ है। इस मुद्दे पर कई छात्रों ने अपना मत स्पष्ट किया कि वह ऑनलाइन क्लासेज़ में अपनी पूरी क्षमता के साथ सीख नहीं पाते। पूरा दिन लैपटॉप स्क्रीन के सामने बैठने के बाद मन थक जाता है और कोई रचनात्मक चेतना नहीं बचती।

यह सारी बातें प्रशासन ने कई बार सुनी मगर ‘हमारे हाथ में कुछ नहीं है’ (जो कि ठीक भी है) कहकर टाल दिया। बीते कुछ दिनों से कोरोना के केसों में अचानक वृद्धि दिखी जिससे यह असमंजस और पेचीदा हो गया। छात्रों ने जब यह देखा कि इस वृद्धि के बावजूद दुनिया का रवैया वही रहा, तो वह अपनी ऑफलाइन कक्षाओं की मांग पर बरकरार रहे। अपना विरोध जताने के लिए छात्रों ने अपनी गूगल डिस्प्ले पिक्चर (डीपी) बदल ली। इस बदली हुई डीपी में यह लिखा हुआ था कि वह ऑनलाइन क्लासों का बहिष्कार करते हैं और संस्थान खुलवाने की मांग करते हैं।

शुक्रवार संवाद में कल के मेहमान केंद्रीय जल शक्ति मंत्री थे, जिन्हें ‘भारत की जल संस्कृति’ पर अपना वक्तव्य देना था। छात्रों का इस रचनात्मक तरीके से प्रदर्शन करने का उद्देश्य यही था कि ज़िम्मेदार पदों पर बैठे हुए लोगों का आकर्षण इस मुद्दे पर जाए और वह इस दिशा में विचार करें। गूगल मीट की लिंक पर अधिकतम 250 लोग जुड़ सकते हैं और हर शुक्रवार जुड़ते हैं। इस शुक्रवार भी जुड़े।

मंत्री जी का वक्तव्य शुरू हुआ। कुछ देर बाद कुछ लोगों ने यह लिखना शुरू किया कि सरकार शैक्षणिक संस्थानों को खुलवाने की दिशा में क्या सोच रही है? इसके तुरंत बाद झटके से यह काली डीपी वाले लोगों को प्रशासन की तरफ से निकाला जाने लगा। एक के बाद एक करके लोगों को हटा दिया गया और कुल 80 लोग इस मीटिंग में बच गए। मंत्री जी ने अपना प्री-डिसाइडेड वक्तव्य पूरा किया और चले गए।

छात्रों से उनके बोलने का हक कोई कैसे छीन सकता है?

हो सकता है कि मैं इन काली डीपी वालों के मत से सहमत ना होऊं लेकिन उन्हें अपनी बात कहने का पूरा हक है। यह हक कैसे छीना जा सकता है? और कौन इसे छीनने को अधिकृत है? यह मतभेद हो सकता है, मनभेद नहीं। मैं महामारी को बहुत गंभीरता से लेते हुए माननीय मंत्री जी से अगर यह पूछना चाहूँ कि इतनी गंभीर परिस्थिति में चुनाव क्यों हो रहे हैं तो इस सवाल को वह किस कैटेगरी में रखेंगे? मेच्योर सवाल या एमेच्योर सवाल?

कहीं प्रशासन को इस बात का डर तो नहीं कि जिस तर्ज़ पर वह बार-बार छात्रों से गंभीरता की अपेक्षा करते हुए यह याद दिलाते रहते हैं कि “आप पीजी डिप्लोमा के छात्र हैं। क्या आप इतनी बड़ी महामारी को गंभीरता से नहीं ले रहे?” यही सवाल छात्र पलटकर मंत्री जी से ना पूछ लें!

चलिए मैं प्रशासन की महामारी को लेकर संज़ीदगी समझता हूं। बेशक समझता हूं। तो क्या यह संज़ीदगी बस आईआईएमसी कैंपस तक महदूद है? क्या आईआईएमसी प्रशासन से जुड़े लोगों को स्वायत्त क्षमता में देश में हो रही गतिविधियों पर चिंता नहीं जतानी चाहिए? एक नियंत्रणीय भीड़ से भागकर आप एक आज्ञाभंगी बेकाबू भीड़ को स्वीकार कैसे कर सकते हैं?

अगर आप सच में इस महामारी को और अपने पद के सामाजिक उत्तरदायित्व को गंभीरता से लेते हैं तो मैं आपको आमंत्रण देता हूं कि मेरे साथ चलिए और हम इस मतभ्रष्ट सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते हैं। अपने प्रदर्शन में महामारी को लेकर अपनी संज़ीदगी ज़ाहिर करते हैं। इस अंधी-बहरी सरकार को याद दिलाते हैं कि चुनाव नहीं होने चाहिए। कम से कम जब “सेकंड वेव” आने की आशंका है तब तो बिल्कुल ही नहीं। कभी-कभी इस बात पर हँसी भी आती है और रोना भी कि माननीय प्रधानमंत्री स्वयं ‘स्टार प्रचारक’ बनकर बंगाल में चुनावी रैलियां कर रहे हैं और पूरे देश की जनता से सेकंड वेव को रोकने का आह्वान कर रहे हैं।

प्रशासन की तरफ से इस प्रदर्शन को मिस्ट्रीट किया जा रहा है

मैं एक दिन अपने एक साथी से इसी सिलसिले में बात कर रहा था और उसने मुझसे पूछा है कि कभी सोचा है, रैली करने वाले वाला नेता जब रैली के दौरान किसी को फोन लगाता होगा तो अपने सामने दिखता मंज़र और फोनन पर महानायक की आवाज़ में “कोरोना अभी गया नहीं है” साथ में कैसे घटता होगा?

हम कब तक “अरे नेता तो ऐसे होते ही हैं” वाले मुहावरे को वैधता देते रहेंगे? नेता ऐसे नहीं होने चाहिए, यह कौन सुनिश्चित करेगा? क्या समाज की दशा और दिशा तय करने में शिक्षकों और शैक्षणिक संस्थानों की कोई भागीदारी नहीं रह गई है? राष्ट्रकवि दिनकर के इस कथन को भी झूठा करार दे देना चाहिए कि जब राजनीति लड़खड़ाती है तो साहित्य उसे संभालता है।

कहाँ गए ऐसे साहित्यकार और साहित्य प्रेमी? और जब यही कहकर सब खारिज कर देना है कि यह बातें किताबी हैं, तो ऐसी किताबों को सिलेबस से हटा देना चाहिए। ‘एजुकेटेड’ होने का नाटक भी बंद कर देना चाहिए। मेरा यह निजी मत है कि प्रशासन की तरफ से इस प्रदर्शन को मिस-ट्रीट किया जा रहा है।

मुझे नहीं लगता अपने ही कैंपस को खुलवाने के लिए लड़ना किसी भी छात्र का ड्रीम रहा होगा। यह एक विषम परिस्थिति है और हमारे शिक्षकों ने ही सिखाया है कि आपदा में एकजुट होकर एक दूसरे के लिए सोचना चाहिए। यह वक्त इसी सिद्धांत को अपनाने का है।

जय हो!

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