“यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।।
परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे ।।”
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता, चत्रैनास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्त्राफला: क्रिया:।”
मानव ही सृष्टि का केंद्र बिंदु है लेकिन विडंबना यह है कि आज सबसे ज़्यादा उपेक्षित कोई प्राणी है तो वह मानव ही है। शक्तिशाली देश, समुदाय और संस्थाएं अपनी सुविधानुसार किसी वर्ग, समुदाय या विचार में आस्था रखने वालों को आतंकवादी या अवांक्षित करार देकर उनके विरुद्ध जंग छेड़ देते हैं और विश्व की बड़ी-बड़ी संस्थाएं भी मूक दर्शक बनी तमाशा देखती हैं।
मीडिया न हो तो मानवाधिकार हनन की खबरें ओझल हो जाए
ऐसे समय में मीडिया ही होता है जो बिना किसी भय और पक्षपात के सारी दुनिया को हकीकत से अवगत कराता है। अगर मीडिया अपनी आंखें बंद कर ले तो मानवाधिकार के हनन की शर्मनाक घटनाएं हमेशा के लिए संसार की नज़रों से ओझल रह जाएं। भारत एक ऐसा देश है जहां ऋग्वैदिक काल से ही ग्रंथों, शास्त्रों, उपनिषदों और समाज में नारी के सम्मान का उल्लेख मिलता है।
नारी को ही देवी, श्री, आदिशक्ति आदि की संज्ञा दी गई है। हर युग और हर समाज में नारी को देवी और पूज्या बताया गया है। हमारे वेदों में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता, चत्रैनास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्त्राफला: क्रिया:’ जैसी धारणा नारी के लिए रखी जाती है। अर्थात जिस कुल, समाज या देश में नारियों की पूजा होती है या सम्मान किया जाता है वहां भगवान का निवास होता है।
मगर जिस कुल, समाज या देश में नारियों की पूजा या सम्मान नहीं होता वहां पर सारे प्रयास विफल हो जाते हैं। जिस भारत में ऋग्वैदिक काल से नारियों का सम्मान होता आया है और महिलाएं चहुंमुखी विकास कर रही हैं, उसी भारत में दूसरी तरफ कई तरह से महिलाओं के अधिकारों के हनन और उनके अधिकारों के कुचले जाने की खबरों को मीडिया अपनी खुली आंखों से दिखाता रहता है।
महिलाओं से जुड़े अपराध को प्रमुखता से जगह मिल रही है
यह मीडिया के ही पुरुषार्थ का नतीजाहै कि पुरुष प्रधान देश में कल तक जिन महिला अपराधों को दबा दिया जाता था आज छोटे से गांव में भी होने वाली घटनाओं को मीडिया हम तक पहुंचा देता है। आज का तो मंज़र ये है कि सुबह अखबार उठाते ही किसी न किसी तरह से महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार की खबर दिख ही जाएगी।
जैसे – बलात्कार, हत्या, लूट-पाट, मार-पीट, बिन ब्याही मां बनती किशोरियां, बाल विवाह, घरेलू हिंसा, शिक्षा से वंचित रखना, यौन शोषण, दहेज की मांग आदि। इसी तरह सतना से प्रकाशित होने वाले अखबार शहर, गांव, दुर्गम और पिछड़े इलाकों में हो रहे महिला अपराधों की खबरों को भी बेबाकी से छाप रहे हैं।
कई बार तो ऐसा भी देखने को मिलता है कि जिन दुर्गम इलाकों में शासन या प्रशासन नहीं पहुंच पाता या शासन या प्रशासन को घटना या दुर्घटना की खबर तक नहीं हो पाती उसकी जानकारी मीडिया या अखबारों से होती है। अखबारों में छपी खबरों के आधार पर कार्यवाही की जाती है। आजादी प्राप्ति के पहले से लेकर आज तक सतना से प्रकाशित होने वाले अखबार अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहन कर रहे हैं।
जिनमें दैनिक भास्कर, नव स्वदेश, पत्रिका, स्टार समाचार, जनसंदेश, दैनिक जागरण-रीवा आदि प्रमुख हैं। कुछ साल पहले तक तो मध्यप्रदेश अपराध मुक्त राज्य माना जाता था पर अब यहां भी अपराधों का ग्राफ बढ़ा है और उसमें भी जनजातीय इलाकों में महिलाओं पर अपराध की स्थिति तो काफी भयावह है।
लोक-लाज के चलते कई अपराध दबा दिए जाते हैं
कोई भी दिन ऐसा नहीं गुज़रता जब हमें अखबार, टेलीविजन या मीडिया पर छेड़छाड़ से लेकर बलात्कार तक की खबरें पढ़ने या देखेने को न मिलती हों। इससे भी ज्यादा दुख की बात तो यह है कि परिवार की मान-मर्यादा के नाम पर इस तरह के अधिकांश मामलों को घर की चारदीवारी में ही दफना दिया जाता है।
महिलाओं पर होने वाले अपराधों पर जब शोध किया जाता है तो पता चलता है कि अधिकांश महिलाएं अपनों और रिश्तेदारों की ही हवस का शिकार होती हैं। और जब अपराधियों से लड़ने के बजाय लोक-लाज के डर से मामलों को दबा दिया जाता है तो और भी ज्यादा अपराध बढ़ने लगते हैं।
एक तरफ जहां राज्य और केंद्र सरकार द्वारा महिलाओं को हक दिलाने और इनके उत्थान के लिए लाडली लक्ष्मी योजना, गोदभराई कार्यक्रम, अन्नप्राशन कार्यक्रम, जन्मदिवस कार्यक्रम, किशोरी बालिका दिवस कार्यक्रम, सबला, किशोरी शक्ति योजना, मातृत्व सहयोग योजना आदि चलाकर आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर मजबूत करने का प्रयास किया जा रहा है।
सरकारों के अलावा अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर महिला आयोग, एन.जी.ओ. समेत कई ऐसे संगठन हैं जो महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कार्य कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर अपने और तथाकथित शिक्षित कहे जाने वाले समाज और अपनों के बीच ही महिला अधिकारों से वंचित रह जाती है। महिला की बात तो दूर आज किशोरी या बच्ची भी सुरक्षित नहीं।
अपने घर की चोरी का हम हाल सुनाएं कैसे? चोरों की ही बस्ती है और चोरों का ही पहरा है
सिर्फ सीधी जिले में 2011 में 20 और 2012 में सिर्फ 6 माह में 9 से ज़्यादा मामले सामने आए। रीवा – 2011 में 33, 2012 में 28, 2013 में 25, सतना – 2012 में 24, सिंगरौली – 2012 में 17 मामले सामने आए। हलांकि ताजा आंकड़ों के अनुसार महिला अपराधों की संख्या 10 फीसदी से ज़्यादा बढ़ी है। जिसमें मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों में कामकाजी और घरेलू सभी तरह की महिलाओं के अधिकार हनन की खबरें शामिल हैं।
प्रस्तुत आंकड़े मध्यप्रदेश महिला आयोग से लिए गए हैं। हालांकि मीडिया की जागरूकता और सजगता के कारण आज लोग मीडिया की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं। मध्यप्रदेश या सतना से प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र इस मुद्दे को मिशन के तौर पर ले रहे हैं। शहर हो, गांव हो या पिछड़ा इलाका सभी जगह से अपराध की खबरें बाहर आ रही हैं।
बावजूद इसके भी अपराध क्यों बढ़ रहे हैं इसी का पता लगाना इस शोध का ध्येय है। मध्यप्रदेश के रीवा संभाग से प्रकाशित दैनिक समाचार-पत्र दैनिक भास्कर, नव भारत, पत्रिका, स्टार समाचार, जनसंदेश, नव स्वदेश, सांध्य दैनिक मारुति एक्सप्रेस, नेजा और रीवा से दैनिक जागरण क्षेत्र में होने वाली घटनाओं को आइने की तरह समाज के सामने रखते रहते हैं।
अखबार जाति, धर्म, समुदाय, क्षेत्र, रंग, भाषा, काल आदि का भेद-भाव किए बगैर बड़ी बेबाकी से समाज की स्थिति को समाज के सामने रख रहे हैं। जब आदिवासी, पिछड़े या किसी भी परिस्थिति में रहने वाला संवैधानिक तौर पर बनाए गए तानेबाने से भी हार जाता है और सत्य को सामने नहीं ला पाता तो फिर मीडिया को अपना सच्चा साथी समझकर अपनी बात रखता है। मीडिया में पहुंचने के बाद सत्य की एक चिंगारी असत्य के विशाल लंका को भी जलाकर खाक कर देती है। यही कारण है कि आज मानव मीडिया की तरफ टकटकी लगाए देख रहा है।
मध्यप्रदेश में 1998 से 2013 के बीच महिला अपराधों का विवरण
क्रमांक | वर्ष | महिला अपराधों की संख्या |
01 | 1998-99 | 376 |
02 | 1999-2000 | 895 |
03 | 2000-01 | 1149 |
04 | 2001-02 | 1505 |
05 | 2002-03 | 1935 |
06 | 2003-04 | 1676 |
07 | 2004-05 | 2062 |
08 | 2005-06 | 3514 |
09 | 2006-07 | 5978 |
10 | 2007-08 | 3863 |
11 | 2008-09 | 3172 |
12 | 2009-10 | 2833 |
13 | 2010-11 | 3232 |
14 | 2011-12 | 5594 |
15 | 2012-13 | 4198 |
मानवाधिकार/महिला अधिकार का इतिहास
मानवाधिकार शब्द की अवधारणा उसी दिन अस्तित्व में आ गई थी जिस दिन मानव ने धरती पर पहला कदम रखा था। यह बात अलग हो सकती है कि इसकी परिभाषाएं बाद में अस्तित्व में आईं और वादों (ism) की तरह इस वाद का जन्म और इसे शाब्दिक जामा पहनाने का कार्य मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ हुआ।
इस बात का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जितने भी ग्रंथों के प्रमाण मिले हैं सबमें मानव मात्र की रक्षा और मानव के हित में प्रमाण मिलते हैं। जैसे कि उदाहरण के लिए रामायण, बाइबल, कुरान, गुरुग्रंथ साहब आदि सभी धार्मिक ग्रंथों में जाति, धर्म, समुदाय, लिंग, देश, काल, रंग, परिस्थिति आदि से दूर रहकर सिर्फ मानव मात्र की रक्षा और मानव के हित में काम करने की बात कही गई है।
जैसे श्रीमद्भागवतगीता में :- “यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।“ “Whenever there is Decline of righteousness , And rise of unrighteousness, I incarnate myself To protect the virtuous An to destroy the wicked, From Age to Age”. इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब द्वारा मदीन-ए-आइना में मानव की रक्षा की बात कहना।
मगध राज्य के शासक सम्राट अशोक द्वारा मानता की रक्षा करने के उद्देश्य से 230 ई. पूर्व बौद्ध धर्म अपनाकर पूरी दुनिया में मानवाधिकारों का प्रचार-प्रसार करना। ये सारे उदाहरण बताते हैं कि जैसे-जैसे मानव सभ्य होता गया समय के हिसाब से मानवाधिकारों की परिभाषा गढ़ता चला गया।
- विश्व मानवाधिकार दिवस 10 दिसंबर – संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा-पत्र को आधिकारिक मान्यता प्रदान की।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस 28 सितंबर – भारत में 28 सितंबर 1993 को मानव अधिकार कानून अमल में लाया गया और 12 अक्टूबर 1993 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया।
- विश्व महिला दिवस 8 मार्च – 8 मार्च 1910 को अंतर्राष्ट्रीय महिला आयोग बनाया गया। संयुक्त राष्ट्र का महिला दिवस पर वर्ष 2015 की थीम है “सशक्त महिला-सशक्त मानता”।
- राष्ट्रीय महिला दिवस जनवरी 1992 – राष्ट्रीय महिला आयोग भारतीय संसद द्वारा 1990 में पारित अधिनियम के तहत जनवरी 1992 में गठित एक संवैधानिक निकाय है।
- मध्यप्रदेश मानवाधिकार आयोग का गठन सितंबर 1995 में किया गया।
- मध्यप्रदेश महिला दिवस 23 मार्च 1998 – मध्यप्रदेश राज्य महिला आयोग का गठन राज्य सरकार द्वारा 23 मार्च 1998 को मध्यप्रदेश राज्य महिला आयोग अधिनियम 1995 (क्र. 20 सन 1996) की धारा 3 के तहत किया गया।
भारत में मानवाधिकारों से संबंधित प्रमुख घटनाएं
- 1829 – हिंदू धर्म में सती प्रथा के खिलाफ राजा राममोहन राय के कठिन परिश्रम और प्रचार-प्रसार के बाद गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक ने औपचारिकत रूप से समाप्त कर दिया।
- 1929 – बाल विवाह निषेध अधिनियम में 14 साल से कम उम्र के नाबालिगों के विवाह पर निषेधाज्ञा पारित कर दी गई।
- 1947 – भारत ने ब्रिटेन से राजनीतिक आजादी हासिल की
- 1950 – भारत के संविधान ने वयस्क मताधिकार के साथ संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकारों का विधेयक भी शामिल है
- 1952 – आपराधिक जनजाति अधिनियम को पूर्ववर्ती आपराधिक जनजातियों को अनधिसूचित के रूप में सरकार द्वारा वर्गीकृत किया गया और आभ्यासिक अपराधियों का अधिनियम 1952 पारित हुआ।
- 1955 – हिंदू परिवार कानून में महिलाओं को अधिक अधिकार प्रदान किए गए।
- 1958 – सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम।
- 1973 – भारतीय उच्चतम न्यायालय में केसवानंद भारती के मामले में कानून लागू किया गया कि संविधान की मौलिक संरचना कई मौलिक अधिकारों सहित संवैधानिक संशोधन के द्वारा अपरिवर्तनीय है।
- 1975-77 – आपातकाल की स्थिति, अधिकारों के व्यापक उल्लंघन की घटनाएं।
- 1978 – मेनका गांधी बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कानून लागू किया कि आपात स्थिति में भी अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता।
- 1978 – जम्मू और कश्मीर जन सुरक्षा अधिनियम 1978 ।
- 1984 – ऑपरेशन ब्लू स्टार और उसके तुरंतबाद सिख विरोधी दंगे
- 1985-86 – शाहबानो मामला जिसमें उच्चतम न्यायालय ने तलाक-शुदा मुस्लिम महिला के अधिकार को मान्यता प्रदान की जिसका मौलानाओं ने विरोध कर दिया। न्यायालय के फैसले को अमान्य करार करने के लिए राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया।
- 1989 – अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम पारित।
- 1989 – कश्मीरी बगावत ने कश्मीरी पंडितों का नस्लीय तौर पर सफाया, हिंदू मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट करना, हिंदुओं और सिखों की हत्या, विदेशी पर्यटकों और सरकारी कर्मचारियों का अपहरण।
- 1992 – संवैधानिक संशोधन ने स्थानीय स्व-शासन (पंचायती राज) की स्थापना, महिलाओं के लिए एक तिहाई सीट आरक्षित, अनुसूचित जातियों के लिए अलग से प्रावधान।
- 1992 – हिंदू जनसमूह द्वारा बाबरी मस्जिद ध्वस्त करना, परिणामस्वरूप देश भर में दंगे।
- 1993 – मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना।
- 2001 – उच्चतम न्यायालय ने भोजन का अधिकार लागू करने के लिए व्यापक आदेश जारी किए।
- 2002 – गुजरात दंगा, मुख्य रूप से मुस्लिमों को लक्ष्य बनाया गया, कई जानें गईं।
- 2005 – सूचना का अधिकार अधिनियम पारित।
- 2005 – घरेलू हिंसा के विरुद्ध अधिनियम।
- 2005 – राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरईजीए) लागू।
- 2006 – उच्चतम न्यायालय ने भारतीय पुलिस के अपर्याप्त मानवाधिकारों के प्रतिक्रिया स्वरूप पुलिस सुधार के आदेश दिए।
- 2009 – समलैंगिक कानून को मान्यता – दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की घोषणा की जिसके अनिर्दिष्ट “अप्राकृतिक यौनाचरणों” के सिलसिले को ही गैरकानूनी करार कर दिया गया, लेकिन जब यह व्यक्तिगत तौर पर दो लोगों के बीच सहमति के साथ समलैंगिक यौनाचरण के मामले में लागू किया गया तो संवैधानिक हो गया।
भारत में अख़बार/पत्रकारिता का इतिहास
मानवाधिकार के संदर्भ में खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो। गर तोप मुकाबिल हो तो, अखबार निकालो। अखबार के महत्व को समझाते हुए अकबर इलाहाबादी जी ने साफ कर दिया कि जो जंग तलवार, तोप या हथियार से भी नहीं जीती जा सकती उसे अखबार के माध्यम से जीता जा सकता है। समय और समाज के संदर्भ में सजग रहकर नागरिकों में दायित्व बोध कराना ही अखबार का लक्ष्य है।
प्राचीन भारतीय ग्रंथों में प्रथम पत्रकार होने का गौरव त्रिलोकदर्शी महर्षि नारद को है। प्रथम की-मॉनिटरिंग संवाददाता, महाभारत युद्ध का आंखोंदेखा हाल दृष्टिहीन धृत राष्ट्र को सुनाने वाले संजय को माना जाता है। युद्ध में सैनिक, दूत, हस्तलिखित-पत्र, कबूतर, तोता, व्यक्ति विशेष, संदेश वाहक, हरकारे और अनन्य दक्ष एवं प्रशिक्षित लोग जन संचार व्यवस्था में सहभागी बनते रहे हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले तक अखबारों ने भारतीयों पर जुल्म करने वाली ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठाने और लोगों को जगाने का काम किया। आजादी के बाद देश की आंतरिक व्यवस्थाओं को ठीक करने और आम आदमी के हित में आवाज़ उठाने का काम किया। 29 जनवरी 1780 में एक अंग्रेज जेम्स आगस्टक हिक्की ने “बंगाल गजट” नाम से एक अख़बार निकाला जो भारत का पहला अखबार माना गया।
12 अक्टूबर 1785 में रिचर्ड जॉन्सन ने मद्रास से “मद्रास केरियर” सप्ताहिक अखबार निकाला। 1789 से “बाम्बे हेराल्ड” साप्ताहिक अख़बार निकाला गया। 30 मई 1826 को श्री युगल किशोर ने हिंदी का प्रथम अखबार “उदत्त मार्तण्ड” निकाला। 1854 में हिंदी का प्रथम दैनिक अखबार “सुधा वर्षण” प्रकाशित हुआ।
मध्यप्रदेश में समाचार-पत्रों का विकास
रीवा संभाग के संदर्भ में वर्तमान मध्यप्रदेश स्वतंत्रोत्तर भारत की देन है। ब्रिटिश शसन काल में सेंट्रल प्रॉविंसेज और बरार नाम का एक प्रांत था। 1947 में सेंट्रल प्रॉविंसेज और बरार में बघेल खंड और छत्तीसगढ़ की रियासतों को शामिल कर मध्यप्रदेश राज्य बनाया गया। 1956 के राज्य पुनर्गठन आयोग के पूर्व वर्तमान मध्यप्रदेश, मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और पूर्वी मध्यप्रदेश में बंटा हुआ था।
01 नवंबर 1956 को नए मध्यप्रदेश का गठन किया गया। संपूर्ण राष्ट्र के समान मध्यप्रदेश में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अखबारों ने अंग्रेजी हुकूमत की दमनकारी नीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। मध्यप्रदेश का पहला अख़बार होने का गौरव 1827 में प्रेमनाथ के नेतृत्व में “मालवा” को जाता है। यह बाईं तरफ हिंदी और दाईं तरफ उर्दू में प्रकाशित होता था।
1853 में मध्यप्रदेश का दूसरा अखबार लक्ष्मण दास के नेतृत्व में “ग्वालियर-गजट”, ग्वालियर से प्रकाशित हुआ। 1876 में पं.कृष्णाराव के संपादन में जबलपुर से “जबलपुर-समाजार”, 1880 में जबलपुर से ही रामगुलाब के संपादन में “शुभचिंतक” प्रकाशित हुआ।
1880 में राघव राव और रामा राव के नेतृत्व में पेंड्रा से ‘छत्तीगढ़ मित्र’, 1889 में होशंगाबाद से ‘ज्योति प्रभा’, ‘शिक्षा प्रकाश’, ’हितकारिणी’, 1914 में खंडवा से ‘स्वराज्य’, ग्वालियर से हिंदी ‘सर्वस्व’, 1920 में ‘कर्मवीर’, 1926 में ‘वीणा’, 1930 में सेठ गोविंद दास के संपादन में ‘दैनिक लोकमत’, 1942 में के.पी. शर्मा के संपादन में रायपुर (अब छत्तीगढ़ में) से ‘उग्रदूत’ प्रकाशित हुए।
स्वतंत्रता के बाद 1948 में बस्तर (अब छत्तीसगढ़ में) से ‘दण्डकारण्य समाचार’, 1950 में ईश्वर चंद्र जैन के नेतृत्व में इंदौर से ‘दैनिक जागरण’ प्रकाशित हुआ। 1951 में इंदौर और भोपाल से ‘नव-भारत’, छतरपुर से ‘विंध्यांचल’, 1952 में नीमच से ‘नई विधा’, 1953 में गुरुदेव गुप्त ने रीवा से ‘दैनिक जागरण’ निकाला, शहडोल से ‘समय’, सतना से ‘साप्ताहिक निर्माण’, 1963 में ‘शुभभारत’ और 1974 में ‘जनबोध’ आदि समाचार पत्रों की लंबी श्रृंखला है।
रीवा संभाग का प्रथम समाचार-पत्र होने का गौरव ‘भारत-भ्राता’ को जाता है। अप्रैल 1887 में लाल बल्देव सिंह ने इसका प्रकाशन किया और भगवान सिंह संपादक थे। किसी कारणवश 1903 में बंद हो गया। 1910 में कवि-लेखक मधुर प्रसाद पांडेय के संपादन में ‘शुभ चिंतक’ प्रकाशित हुआ और 1918 तक प्रकाशित होता रहा। 1932 में महाराजा रीवा के सहयोग से समाचार-पत्र ‘प्रकाश’ का प्रकाशन हुआ जिसके संपादक नरसिंह राम शुक्ल थे, यह 1949 तक प्रकाशित होता रहा।
13 जून 1953 को जागेश्वर प्रसाद पांडेय के संपादन में ‘गरीब’ का प्रकाशन, 1955 में दैनिक हुआ और 1969 में आर्थिक तंगी के कारण बंद हो गया। सितंबर 1953 में गुरुदेव गुप्त ने कानपुर से प्रकाशित ‘दैनिक जागरण’ का रीवा से प्रकाशन शुरू कर दिया। यह रीवा संभाग का पहला अख़बार था जो दैनिक रूप से प्रकाशित होना शुरू हुआ और आज भी जारी है।
2 अक्टूबर 1960 को ईष्टदेव द्विवेदी ने पाक्षिक ‘विंध्य संदेश’ प्रकाशित किया जो आज भी जारी है। 15 फरवरी 1990 को डॉ. उमेश दीक्षित ने रीवा से ‘कीर्ति क्रांति’ का प्रकाशन किया जो बाद में दैनिक हो गया और आज भी प्रकाशन जारी है। 1992 में चमेली देवी ने ‘दैनिक राजरथ संदेश’ का प्रकाशन किया जो आज भी जारी है।
1988 में बालमुकुंद शर्मा द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक ‘बांध्वीय वार्ता’ जारी है। इनके अलावा सतना से दैनिक समाचार-पत्रों में दैनिक भास्कर, नव भारत, पत्रिका, स्टार समाचार, जनसंदेश, नव स्वदेश, सांध्य दैनिक में मारुति एक्सप्रेस और नेजा और रीवा से दैनिक जागरण आज भी लगातार प्रकाशित हो रहे हैं।
संबंधित साहित्य का अध्ययन A brief review of the work already done in the field
संबंधित साहित्य से तात्पर्य शोध की समस्या से संबंधित उन सभी प्रकार की पुस्तकों, ज्ञान-कोषों, पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशित और अप्रकाशित शोध-प्रबंधों और अभिलेखों आदि से है, जिनके अध्ययन से शोधकर्ता को अपनी समस्या के चयन, परिकल्पनाओं के निर्माण, अध्ययन की रूपरेखा तैयार करने और कार्य को आगे बढ़ाने में सहायता मिलती है।
साहित्य समीक्षा के महत्व को स्पष्ट करते हुए गुड, बार तथा स्केट्स ने कहा है कि : “एक कुशल चिकित्सक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने क्षेत्र में हो रही औषधि संबंधी आधुनिक खोजों से परिचित होता रहे, उसी प्रकार शिक्षा के जिज्ञासु छात्र, अनुसंधान के क्षेत्र में कार्य करने वाले तथा अनुसंधानकर्ता के लिए भी उस क्षेत्र से संबंधित सूचनाओं और खोजों से परिचित होना आवश्यक है।”
- प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने लंदन के वेम्ब्ले स्टेडियम में नवंबर 14, 2015 को इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन और 60 हज़ार से ज़्यादा भारतीयों के बीच कहा कि – “भारत में अभी भी 18 हज़ार ऐसे गांव हैं जहां बिजली नहीं पहुंची है। ऐसे आदिवासी इलाके हैं जहां पर किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं है और लोग अभाव में जीवन यापन कर रहे हैं। कई बड़े देशों के साथ मिलकर हमें सौर ऊर्जा के क्षेत्र में महान शोध कार्य करने हैं और एक हजार दिन के अंदर ऐसे 18 हजार गांवों में बिजली पहुंचानी है।
- रेहान फ़ज़ल, डेस्क एडीटर, बीबीसी हिंदी :- मानव ही सृष्टि का केंद्र बिंदु है, लेकिन विडंबना यह है कि आज सबसे ज़्यादा उपेक्षित कोई प्राणी है तो वह मानव ही है। शक्तिशाली देश, समुदाय और संस्थाएं अपनी सुविधानुसार किसी वर्ग, समुदाय या विचार में आस्था रखने वालों को आतंकवादी या अवांक्षित करार देकर उनके विरुद्ध जंग छेड़ देते हैं और विश्व की बड़ी-बड़ी संस्थाएं भी मूक दर्शक बनकर तमाशा देखती हैं। ऐसे समय में मीडिया ही होता है जो बिना किसी भय और पक्षपात के सारी दुनिया को हकीकत से अवगत कराता है। अगर मीडिया अपनी आंखें बंद कर ले तो मानवाधिकार के हनन की शर्मनाक घटनाएं हमेशा के लिए संसार की नजरों से ओझल रह जाएं।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थान, नई दिल्ली के अनुसार – भारत में समाज विज्ञान शोध द्वारा मीडिया क्षेत्र में मानवाधिकार का अध्ययन अभी पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाया है। लेकिन फिर भी पहले के मुकाबले वृद्धि हो रही है। इस शोध का मुख्य विषय है कि क्यों मीडिया में मानवाधिकार एवं नागरिक स्वतंत्रता की वकालत होती है फिर भी रोज मानवाधिकार के हनन की खबरें मीडिया के सभी माध्यमों में मिल जाती है। शोध के माध्यम से पता लगाना ज़रूरी है कि कौन की ढांचागत व्यवस्था क्षेत्र एवं समुदाय में नागरिक स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों की सुरक्षा को बढ़ावा दे सकती है।
- व्यावहारिकता का मानवाधिकार के अध्ययन में प्रयोग करने वाले प्रोफेसर डेनेस्की के अनुसार – “मानवाधिकार की व्यावहारिकता की एक बात यह भी है कि इसे वैज्ञानिक खोज में प्रयोग किया जा सकता है। मानवाधिकार से संबंधित सभी व्यवहारों को वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा तथा सर्वेक्षण पद्धति द्वारा अध्ययन किया जा सकता है। मानव द्वारा मानव के प्रति कर्तव्यों का प्रत्यक्ष ज्ञान विषय के प्रयोग जारी हैं। सभी एकत्रित आंकड़ों द्वारा मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्यों के बारे में प्रत्यक्ष ज्ञान को पहले से अधिक जान सकने में आसानी होगी। इस परिकल्पना में यह जानने में भी आसानी होगी कि आखिर क्यों एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की मानव के रूप में कल्पना करने में असमर्थ हो जाता है। मानवाधिकारों का संबंध – समाजशास्त्र, विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र, वातावरण, भूगोल आदि से है।
- कैलाश चंद पंत ने “मीडिया और सामाजिक सरोकार” शीर्षक से मार्च 2006 में आंचलिक पत्रकार नामक पत्रिका में जो लेख लिखा है कि उसका निष्कर्ष है – मीडिया सदा से ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पक्षधर रहा है, इसके साथ ही वह सामाजिक दायित्वों के प्रति भी संवेदनशील रहा है। मीडिया पर तिहरी जम्मेदारी है – व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सामाज की मर्यादा और राज्य की अनिवार्यता के बीच समन्वय बनाना। वर्तमान में मीडिया में व्यावसायीकरण का दौर चल रहा है। ऐसे में मीडिया का काम लाभ कमाना बन गया है। व्यावसायीकरण के कारण एक बड़ा संकट पैदा हो रहा है, इसका एक खतरनाक अर्थ है – सुरक्षा और स्वतंत्रता तो सामाजिक मूल्य है, उनकी चिंता करने का दावा मीडिया नहीं कर सकता है क्योंकि वह स्वत: बाजार के प्रभाव में जा चुका है और व्यावसायी हो गया है।
- झारखंड के संथाल जनजाति के विशेष संदर्भ में : डॉ. मनोज दयाल ने ‘झारखंड के दुमका जिले के संथाल जनजातियों पर अध्ययन’ किया। उन्होंने पाया कि परंपरागत संचार माध्यमों के साथ ही संचार के नए आयाम जैसे समाचार पत्र, पत्रिकाएं, टेलीविजन, इंटरनेट का उपयोग होने लगा है। इस अध्ययन में संथाल जनजाति के 200 लोगों पर संस्कृति और संचार प्रक्रिया पर अध्ययन के बाद देखा गया कि लोगों ने इन संचार माध्यमों के संपर्क में आने के बाद खुद के जीवन में सुधार किया है।
- महिलाओं पर किया गया अध्ययन : प्रो. मनोज दयाल और प्रेम मोंगे ने ‘वूमन्स परसेप्शन ऑफ साइंस कवरेज इन मास मीडिया’ शीर्षक के अंतर्गत अध्ययन किया। इस अध्ययन के निष्कर्ष इस प्रकार हैं – महिलाएं सप्ताह में सबसे अधिक समय टेलीविजन देखने में व्यतीत करती हैं। करीब 74 फीसदी महिलाएं रेडियो नहीं सुनती हैं। 60 फीसदी महिलाओं तक रेडियो और समाचार-पत्रों की पहुंच है।
- डॉ. एम. एस. परमार, विभागाध्यक्ष, पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययन शाला, देवी अहिल्या वि.वि., इंदौर ने मा.च.रा.प.एवं संचार वि.वि.,भोपाल के दिसंबर 27, 28 2011 के शोध पत्र संक्षेपिका में “लोकतंत्र एवं मीडिया” शीर्षक में लिखा है कि – भारत में लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं। प्राचीन काल में भी देश के लोगों की भावनाओं का ध्यान रखा जाता था। कई देशों में खूनी क्रांति भी हुई। बीते कुछ वर्षों में न्यायपालिका कुछ सक्रिय नजर आई। न्यायिक सक्रियता से लोगों को न्याय मिलने में तीव्रता आई एवं यह भी डर लगने लगा कि न्यायिक सक्रियता कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई है।
- संजय द्विवेदी, रीडर जनसंचार विभाग, मा.च.रा.प. एवं सं.वि.वि., भोपाल ने दिसंबर 27-28, 2011 को शोध पत्र “मीडिया में आदिवासियों व दलितों की सहभागिता : एक अध्ययन (छत्तीसगढ़ राज्य के विशेष संदर्भ में)” में लिखा है कि – आजादी के छ: दशक बीत जाने के बाद भारतीय पत्रकारिता ने काफी विकास किया है। सुदूर अंचलों से अखबार निकलने लगे हैं और देश की जनभावना को मुखरित करने का कार्य भी बखूबी कर रहे हैं। किंतु पत्रकारिता में आज भी राज्य की 5 फीसदी आबादी ही निर्णायक पदों पर है। यह अध्ययन बताता है कि राज्य की दलित और आदिवासी आबादी यानी कुल जनसंख्या के 44 फीसदी लोग मीडिया की मुख्य धारा से अब भी दूर हैं।
- सीधी जिले के ग्रामीण विकास पर अध्ययन : चौहान रोहित सिंह, “2007 में हिंदी दैनिक समाचार पत्र दैनिक भास्कर व नव भारत सतना संस्करण के आपराधिक समाचारों का तुलनात्मक अध्ययन” शीर्षक के अंतर्गत मैंने अध्ययन किया। इस अध्ययन से मुझे निष्कर्ष मिला की रीवा संभाग के शहरी और ग्रामीण विकास के लिए संचार माध्यमों ने बहुत बड़ा योगदान दिया है। कुछ अख़बार ऐसे भी प्रकाशित हो रहे हैं जिनका आजादी की लड़ाई में भी अमूल्य योगदान रहा है।
- स्टिंग ऑपरेशन : चौहान रोहित सिंह, “स्टिंग ऑपरेशन” शीर्षक के अंतर्गत मैंने अध्ययन किया। अधययन के दौरान हमें पता चला की भारत का सबसे पहला स्टिंग ऑपरेशन रेडियो पर ही ब्रॉडकास्ट किया गया था। 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के बाद कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री गुंडुराव ने पत्रकार अरुण शौरी को दिए साक्षात्कार के बाद ऑफ द रिकॉर्ड आवेश में आकर इंदिरा गांधी के बारे में अशोभनीय भाषा का इस्तेमाल किया था जिससे बहुत बवाल मचा था।
- मीडिया और मानवाधिकार : चौहान रोहित सिंह, “इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में स्टिंग ऑपरेशन और मानवाधिकार” शीर्षक के अंतर्गत मैंने अध्ययन किया। इस अध्ययन में मैंने पाया कि ख़बरों को चटपटा और मसालेदार बनाने के लिए मीडिया जितना खर्च स्टिंग ऑपरेशन में करता है वही धन अगर विकास पत्रकारिता के लिए करे तो समाज के विकास में मीडिया का और अच्छा उपयोग किया जा सकता है। ग्रामीण लोगों का मानना है कि हमारे विकास में जो बाधा बनते हैं उनका स्टिंग ऑपरेशन किया जाना ज़रूरी है। जो चीज किसी की निजी ज़िंंदगी है उससे हमें क्या लेना-देना? हमारे लिए सबसे बड़ी ज़रूरत है रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत चीज़ेें।
- अन्य : एम गंगाधररप्पा और रुकमा वासुदेव – ‘हुबली-धारवाड़ में कार्यरत महिलाओं की मीडिया आदत’, अजय कुमार – ‘सांप्रदायिक सौहार्द में आकाशवाणी की भूमिका आदि का अध्ययन।
कार्य की प्राप्तियां-(outcome of the work) शोध निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। देश, काल और समय के हिसाब से किए गए शोध कार्य में परिवर्तन आता रहता है। 5, 10 या 20 साल पहले जो शोध कार्य हो चुका होता है उसमें परिवर्तन आना निश्चित है क्योंकि परिवर्तन ही संसार का नियम है। इसलिए जिस समस्या की समाधान प्राप्ति के लिए हम शोध कार्य कर रहे हैं उसमें से निम्नलिखित प्राप्तियां हो सकती हैं।
- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े इलाकों की महिलाओं का जीवन स्तर सुधारने के लिए।
- अखबार के माध्यम से महलाओं में सशक्तिकरण के बोध का पता लगाने के लिए।
- बहुतायत में ग्रामीण महिलाएं अख़बार का उपयोग किस उद्देश्य से करती हैं का पता लगाने के लिए
- ग्रामीण इलाकों में अखबार के पाठकों की संख्या बढ़ी है या घटी है का पता लगाने के लिए।
- क्या आज भी अखबार को सबसे विश्वसनीय माध्यम माना जाता है का पता लगाने के लिए।
- संबंधित क्षेत्र में अब तक हुए कार्य के तथ्य और ज्ञान को बढ़ाने के लिए।
- शोध कार्य के दौरान समस्याओं का समाधान और आसानी से कैसे पाया जा सकता है का पता लगाने के लिए।
- मीडिया के माध्यम से महिलाएं अपने अधिकार को समझने में सक्षम हैं का पता लगाने के लिए।