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“रावत जी, समाज को एक महिला की फटी जींस से नहीं, बल्कि उनकी आज़ादी से खतरा है”

हमारा समाज संस्कारों के नाम पर महिलाविरोधी संकीर्ण मानसिकता से पोषित है

मैं अभी हाल ही में बाज़ार गई तो देखा हर कोई चीख-चीख कर मुझे अपनी तरफ बुला रहा था और कह रहा था “अरे मैडम रिप्ड जींस चाहिए क्या?” समाज के लिए, मुझसे जब रहा नहीं गया तो मैंने पूछ ही लिया “आखिर क्या खास है इस बार के रिप्ड जींस में?”

तब दुकानदार ने खुश होकर कहा “ यही तो हैं जिन पर हंगामा है बरपा! नए-नवेले उत्तराखंड सीएम ने इन्हीं ‘फटी जींस’ को तो हमारी संस्कृति के लिए खतरा बताया है और इनको ही पहनने से घर-परिवार संस्कार विहीन हो रहे हैं।”

उसने आश्चर्य से कहा, “आपको नहीं पता क्या?”

तब जाकर मैं इस रिप्ड जींस वाले मुद्दे को समझी। आप भी समझ ही गए होंगे। जी हां, मैं बात कर रही हूं, उत्तराखंड सीएम के दिए गए उस बयान पर जिसमें उन्होंने कहा है कि अगर इस तरह की महिलाएं समाज में बाहर जाकर लोगों की समस्याएं सुलझाएंगी, तब इससे समाज को किस तरह का मैसेज मिलेगा, हम समाज को अपने बच्चों को क्या संदेश देंगे?

खैर! रावत कोई पहले इंसान नहीं हैं, जिन्होंने इस तरह का बयान दिया हो और उनके आखिरी होने का तो सवाल ही नहीं उठता।

वैसे, यूं भी हमारे देश, हमारे समाज और हमारे घरों में किसी लड़की का चरित्र विश्लेषण करने का सबसे सहज तरीका है, उसके कपड़े, उसके पहनावे का विश्लेषण करना।

क्या वाकई एक फटी जीन्स या एक साड़ी समाज की दिशा तय कर सकती है? 

आप जरा सोचिए, रिप्ड जींस में जब सीएम साहब को समाज के लिए इतना खतरा नज़र आता है, तब शॉर्ट्स पहने मिली किसी लड़की को देखकर जाने उन्हें उसकी फिक्र में नींद भी आती होगी या नहीं और रावत कोई अकेले नहीं हैं। हमारे समाज में उन जैसे सैकड़ों लोग होंगे, जिनमें महिलाएं, युवा, बुज़ुर्ग सब शामिल हैं, जिन्हें लगता है कि लड़कियों का आधुनिक पहनावा समाज को बिगाड़ रहा है।

आखिर समाज को सुधारने-बिगाड़ने का ठेका एक लड़की पर ही क्यों?

मैंने कई दफे घर-बाहर लोगों को कहते सुना है “देखो आजकल की लड़कियां कितनी बेशर्म हो गई हैं, अब वे उनकी जो मर्जी होती है, वह पहनकर निकल जाती हैं।” यदि वाकई ऐसा है तो समाज में फिर यह भी स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि नंग-धड़ंग होकर, घर के छज्जों (बालकनी)पर खड़े होकर, नदियों, स्विमिंग पूल में नहाते हुए पुरुष किन्हें संस्कारवान बना रहे होते हैं?

हमारे समाज में क्यों ! किसी लड़की के छोटे या इस समाज की चालू भाषा में कहूं तो फटे कपड़े समाज को बर्दाश्त नहीं होते? वाकई उनमें अपनी संस्कृति के संस्कारों के खो जाने का डर होता है या अपनी संकुचित संकीर्ण मानसिकता के बढ़ जाने का डर होता है।

किसी लड़की के फटे जीन्स ने नहीं बल्कि, इस समाज की सडांध भरी सोच ने हमें संस्कार विहीन बनाया है

हमारे समाज में हमारी संस्कृति एवं सभ्यता के संस्कारों का पैमाना कौन तय करेगा, वो लोग? जो एक लड़की और उसके चरित्र को उसके कपड़ों से आंकते हैं और वही लोग फिर अपने घर की लड़कियों को डरा-धमकाकर उन्हें भी ढंकते हैं।

अगर हम संस्कारों की बात करें तो तब इस सभ्य समाज में एक लड़की का चुप रहना, घर से बेपर्दा ना निकलना और बगैर किसी क्या, क्यों के अत्याचार सहना भी संस्कार है। आखिर भला कब तक लड़कियों को हर अच्छे-बुरे का सर्टिफिकेट इस समाज से लेना होगा? कहीं कोई घटना अपराध घटित होते ही लोग कहने से नहीं चूकते, उसके साथ आज नहीं तो कल ये होना ही था। देखा नहीं कैसे रहती थी?

फिर,यदि रिप्ड जीन्स पहनने से ही घर संस्कार विहीन हुए हैं, तब सदियों से चली आ रही पर्दा प्रथा ने हमारे इस सभ्य समाज के संस्कार क्यों नहीं बचा लिए?

ऐसा विवादित बयान चाहे उत्तराखंड के सीएम का हो या किसी आम जन का, हमारे समाज के संस्कारों की असल बात सिर्फ इतनी है कि हमारे समाज के सभ्य पुरुष समाज को एक महिला की फटी जींस नहीं उसकी आज़ादी से खतरा है, उन्हें उसके मुक्त हो जाने से डर लगता है। क्योंकि, एक बार जब वो अपनी सोच, अपने दम पर चलना सीख गई तब कोई उसे संस्कार, समाज परिवार के नाम पर अपनी लकीर पर चलने को मजबूर नहीं कर पाएगा।

यह एक लड़की का व्यक्तिगत फैसला है कि वो साड़ी पहनना पसन्द करती है या शॉर्ट्स! तो ख्याल रखें, आगे से जब-जब संस्कारों को रिप्ड जींस से जोड़ा जाएगा, तब-तब रिप्ड जींस और भी तेजी से बाजार में बेचा जाएगा।

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