Site icon Youth Ki Awaaz

काकोरी काण्ड के क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त की कहानी

काकोरी काण्ड के क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त की कहानी

आज हम बात करने वाले हैं एक ऐसे दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी की जो महज़ 13 साल की अल्प आयु में ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए थे। वे आगे चलकर महान भारतीय देशभक्त व भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख क्रांतिकारी, कुशल लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार बनकर उभरे।

जीवन परिचय

वाराणसी की जमीन से जन्मे “काकोरी कांड” में सक्रिय भूमिका निभाने वाले, बचपन से जवानी तक सिर्फ क्रांति देखने वाले, मन्मथनाथ गुप्त के पिता वीरेश्वर विराटनगर (नेपाल) के एक स्कूल में हेडमास्टर थे। इसलिए इनकी प्रारंभिक शिक्षा वहीं पर हुई।

मन्मथनाथ गुप्त वाराणसी से वापस आने के बाद 1921 में ब्रिटेन के युवराज के बहिष्कार का नोटिस बांटते हुए गिरफ्तार किए गए और जिसमें उनको तीन महीने की सजा हुई। उन्होंने जेल से छूटने के बाद काशी विद्यापीठ से विशारद स्नातकोत्तर की डिग्री ली। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में एक स्वयंसेवक कार्यकर्ता के रूप में शामिल हुए और कांग्रेस का प्रचार-प्रसार किया।

चौरी-चौरा कांड में सहभागिता

1922 में जब देश में असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था, उसी साल फरवरी में ‘चौरा-चौरी कांड’ हुआ गोरखपुर जिले के चौरा-चौरी में भड़के हुए कुछ आंदोलकारियों ने एक थाने को घेरकर आग लगा दी थी। जिसमें 22-23 पुलिसकर्मी जलकर मर गए थे। इस हिंसक घटना से दुखी होकर महात्मा गांधी ने अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था, जिससे पूरे देश में जबरदस्त निराशा का माहौल छा गया था। जिस कारण उन्होने कांग्रेस को छोड़ना सही समझा और उसके बाद देश के विख्यात क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) का हिस्सा बन गए।

आजादी के इतिहास में असहयोग आंदोलन के बाद काकोरी कांड को एक बहुत महत्वपूर्ण घटना के तौर पर देखा गया। क्योंकि, इसके बाद आम जनता अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए क्रांतिकारियों की तरफ और भी ज्यादा उम्मीद से देखने लगी थी।

चौरी-चौरा काण्ड की असल कहानी

एक बार काकोरी षडयंत्र के संबंध में जब एचआरए दल की बैठक हुई तो अशफाक उल्लाह खां ने ट्रेन डकैती का विरोध करते हुए कहा  ‘इस डकैती से हम सरकार को चुनौती तो अवश्य दे देंगे परंतु यहीं से पार्टी का अंत प्रारंभ हो जाएगा, क्योंकि दल इतना सुसंगठित और दृढ़ नहीं है इसलिए अभी सरकार से सीधा मोर्चा लेना सही नहीं होगा।’

लेकिन, अंत में काकोरी में ट्रेन में डकैती डालने की योजना बहुमत से पास हो गई और यह घटना इतिहास में “काकोरी-कांड” के नाम से दर्ज हो गई। इनका मकसद ट्रेन से सरकारी खजाने को लूट कर उन पैसों से हथियार खरीदना था, ताकि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को मजबूती मिल सके।

ट्रेन डकैती में कुल 4601 रुपये लूटे गए थे, इस लूट का विवरण देते हुए लखनऊ के एक पुलिस कप्तान मि. इंग्लिश ने 11 अगस्त 1925 को कहा, ‘डकैत (क्रांतिकारी) खाकी कमीज और हाफ पैंट पहने हुए थे, उनकी संख्या 25 थी, यह सब पढ़े-लिखे लग रहे थे, पिस्तौल में जो कारतूस मिले थे, वे वैसे ही थे जैसे बंगाल की राजनीतिक क्रांतिकारी घटनाओं में प्रयोग किए गए थे। इस घटना के बाद देश के कई हिस्सों में बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां होने लगी।

हालांकि, काकोरी ट्रेन डकैती में 10 आदमी ही शामिल थे, लेकिन 40 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया। अंग्रेजों की इस धरपकड़ से प्रांत में काफी हलचल मच गई। उसके बाद जवाहरलाल नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि बड़े-बड़े लोगों ने जेल में क्रांतिकारियों से मुलाकात की और उनका मुकदमा लड़ने में दिलचस्पी दिखाई। वे चाहते थे कि उनका मुकदमा सुप्रसिद्ध वकील गोविंद वल्लभ पंत लडे़ं, लेकिन उनकी फीस ज्यादा होने के कारण अंत में यह मुकदमा कलकत्ता के बीके चौधरी ने लड़ा।

एक कुशल वक्ता, साहित्यकार एवं प्रसिद्ध क्रांतिकारी

काकोरी-कांड करीब 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थिएटर में चला (आजकल इस भवन में लखनऊ का प्रधान डाकघर है)। इस पर सरकार के करीब 10 लाख रुपए खर्च हुए थे। 6 अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ जिसमें जज हैमिल्टन ने इस मुकदमे में मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सजा सुनाई थी।

26 अक्टूबर 2000 को दिवाली के दिन यह क्रांतिकारी चिराग हमेशा के लिए बुझ गया। उनकी अंग्रेजी, हिंदी और बांग्ला तीनों भाषाओं पर गज़ब की पकड़ थी, जिसके कारण उनका लेखन कार्य उल्लेखनीय रहा।

उन्होंने अपने जीवन में 80 से ज्यादा किताबें लिखीं, लेकिन उनकी कुछ प्रमुख कृतियां जैसे चंद्रशेखर आज़ाद, दे लिव्ड डेंजर डेंज़रसली, भगत सिंह एंड हिस टाइम्स, दिन दहाड़े और सिर पर कफन बांध कर इत्यादि हमेशा उनकी याद दिलाती रहेंगी।

 

Exit mobile version