तारीख थी, 27 जुलाई 1978 सदन के समर्थन के जरिए महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बाबासाहब के नाम पर रखने का एलान किया। महाराष्ट्र समेत देशभर में इस निर्णय पर खूब चर्चाएं हुईं, दलित संगठनों द्वारा इस निर्णय का स्वागत हुआ।
लेकिन, जातीय दम्भ से भरे कुछ संगठनों के दबाव में एक राजनीतिक दल द्वारा इस निर्णय के विरोध में रैलियां व मार्च आदि निकाले गए तो दूसरी तरफ दलितों / अनुसूचित जाति / जनजातियों के संगठनों द्वारा तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार द्वारा लिए गए निर्णय के समर्थन में व मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बाबासाहब के नाम पर रखने के समर्थन में रैलियां व मार्च निकाले गए ।
4 अगस्त, 1978 को जोगेंद्र कवाड़े के नेतृत्व में दीक्षाभूमि नागपुर से लेकर जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय तक एक पैदल मार्च का आयोजन किया गया, मार्च के पश्चात वापिस लौट रही भीड़ पर कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा पत्थर फेंके गए, जिसने एक बड़ी हिंसा का रूप ले लिया और जिसके फलस्वरूप फायरिंग की घटनाएं भी सामने आईं। देशभर में दलितो के बीच आक्रोश फैल गया। बड़ी संख्या में उत्तर भारत ( पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, बिहार, राजस्थान आदि ) से बड़ी संख्या में बाबासाहब की विचारधारा पर चलने वाले अनुयायी दीक्षाभूमि पहुंचे।
कुछ समय इस मूवमेंट को राज्य के हालात ठीक होने तक रोक दिया गया, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार द्वारा स्थिति देखते हुए मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के नाम को बदलने के निर्णय को कुछ समय तक टालने के प्रयास के बीच इस आंदोलन को दोबारा शुरू किया गया। दोबारा जोगेंद्र कवाड़े के नेतृत्व में 6 मार्च 1979 को उसी स्थान से एक मार्च शुरू हुआ, जिसे औरंगाबाद में समाप्त किया जाना था। इस मार्च में दलित पेंथर्स, अन्य बहुजन संगठन, रिपब्लिकन पार्टी आदि की सक्रिय रूप से भूमिका थी।
इसे धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस के दिन दीक्षाभूमि नागपुर से शुरू किया गया और 18 दिन में 470 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए प्रतिदिन 30 किलोमीटर की दूरी तय की गई । 25 नवम्बर से 6 दिसम्बर के बीच बड़ी संख्या में पुलिस के साथ झड़पें हुईं, लाठीचार्ज हुए, इसमें पुलिस की तरफ से भी गोलियां चली।
मराठवाड़ा की सीमाओं पर नागपुर, उदिगर और सतारा से चलकर आ रहे कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया गया। 6 दिसंबर, बाबासाहब के परिनिर्वाण दिवस पर उन पर लाठीचार्ज किया गया और गोलियां चलाई गईं। इस सबके विरोध में उसी दिन विदर्भ बन्द का एलान हुआ । नागपुर में पुलिस के साथ हुई झड़प में 4 दलितों की मौत हुई व सैंकड़ों घायल हुए , पुलिस ने औरंगाबाद के क्रांति चौक से विश्वविद्यालय की तरफ बढ़ रहे लगभग 12,000 कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया।
इन सब में लगातार हो रही हिंसा के बीच नजदीक के गाँवों में भय के माहौल के कारण हज़ारो दलित शहर की ओर प्रस्थान कर गए, उनके घरों में आग लगा दी गई। उनके घरों को लूट लिया गया, पालतू जानवरों को जलाकर मार दिया गया। उनके खेतो में खड़ी फसलो को जला दिया गया, मराठवाड़ा के 1200 के लगभग गांव इन दंगों से प्रभावित हुए ।
मराठवाड़ा के मुसलमानों ने दलितों के समर्थन में और जाति विशेष के दबाव में सरकार के निर्णय का विरोध कर रहे एक राजनीतिक दल के बंद के विरोध में अपने प्रतिष्ठान खोलकर रखे। बड़े पैमाने पर हत्याओं, बलात्कारों और लूटपाट के बीच अधिकारियों ने लगभग 3000 लोगों को पुलिस हिरासत में ले लिया, लेकिन पीड़ितों ने बताया कि बहुत कम लोग अदालत में गए थे और शेष मामले बहुत तेज नहीं थे।
14 जनवरी 1994 और बाबासाहब के नाम पर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम रख दिया गया। इसके बाद लगभग 35 सालों तक इस निर्णय के विरोध में धर्म व जाति विशेष के लोगो द्वारा दलितों की हत्याएं, महिलाओं के साथ बलात्कार, उनके घर जलाना ,सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार चलता रहा।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा, आज दलितों के लिए एक ऐसा प्रतीक है, जिसे दलित अपने संघर्ष के प्रतीक के तौर पर इसे गर्व से देखते हैं।
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