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कोरोना काल में एक मजदूर की आत्मव्यथा

प्रवासी मजदूर

कोरोना के कारण हमारे देश के साथ-साथ पिछले एक साल से पूरा विश्व त्रस्त है। इसके साथ ही हमारी ज़िन्दगी में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं मानसिक हालातों के साथ-साथ जीवन जीने के तौर तरीकों में भारी बदलाव और तनाव शामिल हो गए हैं। दुनिया ने शायद ऐसा मंज़र कभी ना देखा हो। महामारी तो इससे पहले भी कई बार आई, लेकिन एक साथ पूरी दुनिया एकाएक ठप, शायद कभी नहीं हुई होगी।

एक आम मज़दूर की कहानी

मैं अपने एक काम से हाल ही में द्वारका गया हुआ था। अपना काम खत्म कर मेट्रो स्टेशन जाने के लिए बैट्री रिक्शा पर बैठ गया। 10 मिनट बीतने के बाद मैंने रिक्शे वाले से कहा “चलो अब” उसने जवाब दिया कि साहब आप तीस रूपए दे दोगे? मैंने उसके जवाब में मोबाइल इस्तेमाल करते हुए, सर हिलाकर “ना ” कहा, और अपने काम में लगा रहा।

वह भी फिर इधर-उधर सवारी की जोह देखता रहा, फिर थोड़ा आगे बढ़ एक चौक पर रुक गया। मैंने देखा मार्केट में आने जाने वाले लोग बहुत कम हैं। मैंने सोचा इनसे कुछ बात करते हैं और मैंने उससे कोरोना और लॉक डाउन के बारे में बात छेड़ दी।

मेरा पहले सवाल, क्या आपको लॉक डाउन में कोई परेशानी हुई?

पहला सवाल पूछने के बाद मुझे ऐसा लगा, जैसे मैंने पहला ही सवाल गलत पूछ लिया हो। खैर, उनका चेहरा पहले से ही सवारी नहीं के कारण उदास लग रहा था। मेरे इस सवाल ने मानो उनको और मुसीबत में डाल दिया हो। थोड़ी देर रुक कर वह बोले- मैं अपनी परेशानी क्या बताऊं साहब, इससे क्या हो जायेगा? और उनकी आंखें नम हो गईं। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की और बात को दूसरी और मोड़ दिया।

बात के दौरान उन्होंने बताया कि लॉक डाउन के समय बहुत से लोग यहां से अपने गांव गए, लेकिन मैं नहीं गया और अपने परिवार के साथ यहीं दिल्ली में ही रहा।

वह आगे कहते हैं कि मैं बिहार के भागलपुर ज़िले का रहने वाला हूं। यहां साल 2003 से रह रहा हूं, लेकिन ऐसा मुश्किल दौर कभी नहीं देखा। मेरे परिवार में पत्नी और मेरे अलावा तीन बच्चे हैं। जो कि अभी पढ़ाई करते हैं। सबकी पढ़ाई रुकी पड़ी है। स्कूल बंद हैं और ट्यूशन भी नहीं भेज पा रहा हूं। ट्यूशन वाले एक बच्चे का 500 से 800 रुपए फीस लेते हैं, खाने के ही पैसे नहीं हैं, पढ़ाएंगे कैसे?

मेरे पूछने पर कि क्या आपको लॉक डाउन के दौरान राशन या फिर खाना मिला? उन्होंने बताया कि नहीं, मुझे कुछ भी नहीं मिला हां, कुछ लोगों को ज़रूर मिला परंतु मुझे नहीं मिला। मैंने कई दिन लाइन में लगकर पका हुआ खाना लिया, लेकिन वह खाना इतना पर्याप्त नहीं रहता था, जिसमें पूरा परिवार खा सके। कभी-कभी खाना बचने पर पर्याप्त मात्रा में मिल जाया करता था, तब ही हम लोग भर पेट खाना खा पाते थे।

मैं किराए के मकान में रहता हूं, जिसका किराया 3500 रुपया महीना है। कोरोना के कारण मकान मालिक का 13000 हज़ार किराया बाकी हो गया है। यह कर्ज़ मुझे रात दिन सताता है। आमदनी है नहीं, कहां से अदा करूंगा समझ नहीं आता है।

प्रतिदिन 100 से 150 रुपया ही कमा पता हूं

आमदनी के नाम पर 100 रुपये की आय प्रतिदिन खाने में ही खत्म हो जाती है। लॉक डाउन खत्म होने के बाद रिक्शा निकालने के लिए बड़ी मुश्किल से हाथ पैर जोड़ कर एक सेठ से 35000 हज़ार रुपया उधार लिया है, उसको भी अदा करना है। साहब क्या बताऊं, इस साल दीपावली के त्योहार पर भी बच्चों के नए कपड़े नहीं बनवा पाया।

मेरा मकान मालिक पास में ही रहता है। लॉक डाउन के दौरान वह हमेशा हम पर नज़र रखता था। किसी को भी, कहीं आने-जाने की इजाज़त नहीं थी। यहां तक कि मकान मालिक बच्चों के घर के दरवाज़े पर भी निकलने पर उन्हें गंदी-गंदी गलियां देता था। बाहर से तो किसी को आने की इज़ाज़त ही नहीं थी। हमको तो जो परेशानी हुई वह तो हुई ही।

इस दौरान मैंने बड़े तथाकथित धनिक लोगों में इस बीमारी से मरने का डर और छुआछूत जैसी स्थिति साफ तौर पर देखी। इस बीमारी ने हमें बता दिया कि कोई किसी का नहीं है।

हम तो अपना हमेशा मास्क और सेनेटाईज़र साथ रखते हैं, बाकी मरना जीना तो भगवान के हाथ में है। पेट भरने और घर चलाने के लिए तो बाहर निकलना ही पड़ता है, इससे कैसे बचें? बातों के दौरान ही मैंने देखा कि एक भी सवारी नहीं आई तो मैंने तीस  रुपए के लिए हामी भर दी थी। जाते-जाते उन्होंने बताया कि, साहब आप अभी छुआछूत की बात कर रहे थे, तो मैं आपको बताऊं कुछ दिन पहले की बात है। मेरे गले की थोड़ी सी खड़खड़ाहट सुनकर एक साहब रिक्शे से उतर गए थे, जबकि मैंने मास्क लगाया हुआ था। मैं बुलाता रह गया पर वह नहीं आए।

अंत में मैंने उनको कोरोना से जुड़ी कुछ बातें समझाईं, राम-सलाम किया और मैं अपनी मंज़िल की ओर निकल पड़ा। मजदूरों के नाम मेरी एक कविता जो कि मैंने लॉक डाउन के समय 16 मज़दूरों के रेलवे पटरी पर सो जाने के कारण हुई मौत की भयावह तस्वीर को देखकर बड़े ही भारी मन से लिखा था। उसका शीर्षक है, “मैं मज़दूर हूं “ आप भी पढ़िए।

 

मैं मज़दूर हूं

मैं मज़दूर था

मैं चला था अपने चमन से

तब भी मज़दूर था

अब भी मज़दूर हूं।

 

मुझे मज़दूर रोटियों ने बनाया

मैं मर गया,

रोटियां बिखरी पड़ी थीं

मैं खड़ा हो कर देखता रहा

मरा मैं नहीं, रोटियां थीं

मेरे लाश के टुकड़ों के साथ

रोटियां भी बिखरी पड़ी थीं

तब भी मज़दूर था

अब भी मज़दूर हूं।

 

मेहनत मैं तय करता हूं

मज़दूरी वह

मेहनत मेरी, मुनाफा उनका

मजबूरी मेरी, फायदा उनका

गांव से शहर घूमने नहीं आया था मैं

घसीटा था मुझे रोटियों ने

उसका भी साथ छूट गया आज

मैं मज़दूर हूं

मुझे मालूम है रोटियों की कीमत

 

मैं मज़दूर हूं

तुम्हारे बिन जी लूंगा मैं

मेरे बिन तुम नहीं

मैं तब भी मज़दूर था

अब भी मज़दूर हूं।

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