कोरोना संकट में पहले लाॅक डाउन और फिर हुए अनलाॅक के बाद से देश की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे पटरी पर लौटने लगी है। शहरों के साथ-साथ देश के ग्रामीण इलाकों में भी लोग पुरानी दिनचर्या में वापस लौट आए हैं, लेकिन इन सब में मज़दूर तबका ही ऐसा प्रभावित हुआ है, जिसका जीवन अभी भी पूरी तरह से पटरी पर लौट नहीं सका है।
दो वक्त की रोटी की जुगत में लाॅक डाउन में घर लौटे मज़दूर अब फिर सुबह से शाम तक अपने जीवन में दो रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, फिर भी परिवार की ज़रूरतों को पूरी करना उनके लिए मुश्किल हो रहा है। रोज़ाना हो रही दिक्कतों से अब इन मज़दूरों को एक बार फिर शहरों की याद आने लगी है, जब वे शहरों में रहकर आसानी से परिवार का पेट पाल रहे थे।
वहीं अपने गांव क्षेत्र के आस-पास रोज़गार की समस्या और कम मेहनताने के चलते इनके कदम फिर दूसरे प्रदेशों की ओर बढ़ने लगे हैं।
लॉक डाउन के दौरान प्रवासी मज़दूर बड़ी मुश्किल से कई प्रकार के जतन कर इस उम्मीद में अपने-अपने गांव लौटे थे कि यहां कुछ भी करके परिवार वालों के साथ जीवन-यापन कर लेंगे। लेकिन, उनकी अपेक्षा के अनुरूप मज़दूरी का काम नहीं मिलने पर ज़्यादातर गांवों से मजदूर काम की तलाश में फिर बड़े शहरों की ओर पलायन करने लगे हैं।
छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िला स्थित भानुप्रतापपुर ब्लॉक के बैजनपुरी गांव और उसके आसपास के क्षेत्रों के ज़्यादातर मजदूरों ने दूसरे राज्यों की ओर पलायन करना शुरू कर दिया है। उन्हें उम्मीद है कि वहां वापस मजदूरी का काम मिलेगा, जिससे वह अपने परिवार का अच्छी तरह से भरण-पोषण कर सकेंगे।
लाॅक डाउन से पहले अपने गांव बैजनपुरी से 300 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के चंद्रपुर क्षेत्र में बिल्डिंग मिस्त्री का कार्य करने वाले गजेन्द्र रावटे ने बताया कि लाॅक डाउन से ठीक एक माह पहले ही काम पर गए थे। जिस उम्मीद से गए थे ,उतना नहीं कमा सके और वहीं फंस गए फिर घर लौटने के लिए उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
वो कहते हैं, अब यहां छोटे-छोटे काम करके घर चला रहा हूं, लेकिन इससे भी मैं संतुष्ट नहीं हूं। इसी तरह गांव के ही डालेश्वर कोरेटिया, सुरेश यादव और माखन कोरेटिया ने भी बताया कि वह भी गजेन्द्र रावटे के साथ काम करने के लिए महाराष्ट्र गए थे। अब यहां लौटकर लोकल ठेकेदारों के पास काम तो कर रहे हैं, मगर यहां पैसा बहुत कम मिलता है, जिसके कारण हम सब वापस महाराष्ट्र जाने की भी सोच रहे हैं।
ग्राम पंचायत कनेचुर के आश्रित ग्राम जामपारा के सभी मज़दूर काम की कमी के कारण फिर से पलायन कर चले गए हैं। इन्हीं मज़दूरों के समूह से बैजनपुरी के मुकेश कुमार और सुरेश कुमार ने अपनी स्थिति पर बात करते हुए कहा कि हमारे गांव क्षेत्र में धान कटाई होने के बाद पर्याप्त काम नहीं मिलता है, इसलिए हम बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों की ओर रुख करते हैं।
जब तक दूसरे फसल का समय नहीं आता तब तक हम वहां काम करते हैं और फिर अगले सीज़न में खेतों में काम करने लौट आते हैं यानी कोरोना संकट से स्थिति जैसे-जैसे सामान्य होते जा रही है, वैसे ही कुछ मजदूर फिर लौट गए हैं या लौटने की तैयारी में हैं।
हालांकि, कुछ ऐसे भी हैं जिन्होनें अभी तक जाने का नहीं सोचा है और अपने गांव क्षेत्र में ही परिवार के बीच रहकर छोटा-मोटा काम करके गुजारा कर रहे हैं।
ऐसे ही आंध्र प्रदेश की बोरवेल्स गाड़ियों में काम कर घर वापस आए मधु शोरी ने अपनी पत्नी के साथ मिलकर चिकन बेचने का व्यवसाय शुरू किया है और वह अपने गांव के साथ-साथ क्षेत्र के आस-पास के अन्य गांवों में हाट-बाज़ारों में जाकर दुकान लगाते हैं।
फिर भी उन्हें पर्याप्त कमाई नहीं हो रही है, वह कहते हैं कि वहां हमें एक दिन का 300 रूपए मिल जाता था, लेकिन यहां किसी दिन कमाई होती है तो किसी दिन नहीं भी।
इसी प्रकार भैंसाकन्हार गांव के युवक डोमन उई के राज्य सरकार के कौशल विकास योजना अन्तर्गत मिले प्लेसमेंट के माध्यम से आंध्र प्रदेश में काम करने गए थे, जहां लाॅक डाउन में खाने और रहने की दिक्कत होने की वजह से गांव लौट आए और अब यहां आकर घर के खेतों में काम कर रहे हैं।
मज़दूरों के एक बार फिर पलायन का एक अन्य पहलू यह भी है कि बड़ी संख्या में मज़दूरों के अपने-अपने राज्य लौट जाने से दूसरे प्रदेशों में काम प्रभावित होने लगा है। बाहर जाकर मज़दूरी करने पर मज़दूरों को एक दिन की दिहाड़ी करीब 300 से 400 रुपए तक मिल जाता था, जो यहां मनरेगा में इसका आधा भी नहीं मिल रहा है।
वर्तमान में मनरेगा में एक दिन के हिसाब से 190 रुपए मज़दूरी मिलती है। बाहर जाकर मज़दूरी करने पर यही राशि दोगुनी हो जाती है। वर्तमान में बैजनपुरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति मज़दूरी दर 150 से 200 रुपये है। मज़दूर बताते हैं कि बाहर 300 से 400 रुपये तक एक दिन में मिलते हैं।
वहीं कुछ का कहना है कि बड़े शहरों में जाकर एकमुश्त पैसे लेकर आने से घर के कार्यों में बहुत सहूलियत हो जाती है, साथ ही अन्य राज्यों में काम पर बुलाने वाली कंपनियां ठेकेदारों, मज़दूरों को आने-जाने का किराया, रहने व खाने-पीने की सुविधाएं भी उपलब्ध करवा देते हैं। इससे भी उनका बहुत पैसा बच जाता है। मज़दूर बताते हैं कि उनके परिजन बाहर काम करने नहीं जाने देते लेकिन, ज़्यादातर लोग अधिक पैसे के लालच में चोरी-छिपे गांव से चले जाते हैं।
मज़दूरों के पलायन पर ज़िला श्रम अधिकारी पंकज बृजपुरिया कहते हैं कि लाॅकडाउन के दौरान जिले में करीब 3700 मज़दूर लौटे थे। मज़दूरों को मनरेगा के तहत गांवों में रोज़गार दिया जा रहा है, इसके बावजूद कुछ मज़दूर अन्य जगहों पर कार्य करने जा रहे हैं, इसे रोकना संभव नहीं है।
हालांकि, इसकी जानकारी स्थानीय स्तर पर पंचायत सचिव के माध्यम से रखी जाती है। सरकार रोज़गार के अवसर सृजित करने और प्रवासी मज़दूरों को स्थानीय स्तर पर रोज़गार उपलब्ध कराने के दावे भी करती है, लेकिन हकीकत इसके विपरीत है।
मनरेगा कार्य कई जगह शुरू हो चुके हैं तो कई जगहों पर नहीं भी। कुछ जगहों पर तो मशीनों से ही मज़दूरों का काम करवा दिया गया है। यही कारण है कि मज़दूरों को स्थानीय स्तर पर काम नहीं मिल रहा है और पलायन ही एकमात्र उपाय दिख रहा है। बहरहाल, लाॅक डाउन में मज़दूरों के घर लौटने की स्थिति को पूरे देश ने देखा है, शायद मज़दूरों की ज़िदगी का वह सबसे कठिन दौर रहा है।
इस सबके बावजूद अब एक बार फिर श्रमिक उन्हीं राज्यों और शहरों की ओर लौटने लगे हैं, जहां से वह लॉक डाउन के वक्त बुरा अनुभव लेकर लौटे थे। ऐसे में उनकी समस्या और पुनः पलायन की मजबूरी की गंभीरता को आसानी से समझा जा सकता है। इस दिशा में सरकार को भी गंभीरता से विचार करके विशेष पहल करने की आवश्यकता है, ताकि मज़दूरों को स्थानीय स्तर पर पर्याप्त रोज़गार मिले और उन्हें पलायन करने की ज़रूरत भी ना हो।
नोट- यह आलेख भानुप्रतापपुर, छत्तीसगढ़ से लीलाधर निर्मलकर ने चरखा फीचर के लिए लिखा है
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