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देश में शिक्षण संस्थानों का खुलना क्यों अब बहुत ज़रूरी हो गया है?

हम जानते है कि बच्चों के शुरुआती सर्वांगीण विकास के लिए घर का होना बेहद ज़रूरी है। उसी तरह छात्रों के लिए शिक्षण संस्थान का होना बेहद ज़रूरी है। ताकि वो यहां आकर पढ़ाई कर सके और उसके ज्ञान और अनुभव का विकास समग्रता और संपूर्णता के साथ हो सके। किसी भी मछली के लिए समुद्र, नदी व तालाब का होना उसके जीवन के विकास के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।

आप उसे एक्वेरियम या फिश बाउल में रखकर ज़िन्दगी या ज़िन्दगी जैसा ही कुछ नहीं दे सकते हैं। ऐसे संकुचित और कूपमण्डूक जीवन किसी भी जीव के जीवन की चुनौतियों और खतरों को बढ़ा देता है। ऑनलाइन शिक्षा का अंतिम परिणाम भी कुछ इसी तरह का है। आभाषी दुनिया कभी भी वास्तविक दुनिया का विकल्प नहीं हो सकता है। आभाषी दुनिया की एक सीमा है, जिसे हमें लांघना न चाहिए।

तकनीक का पूरक प्रयोग सही है पर उस तकनीक के माध्यम से इंसानी ज़रूरतों का बेइंतहा दोहन बिल्कुल गलत है। अति अंत का प्रारंभ है। अत्याधिक तेज विकास ही प्राकृतिक आपदा लाती है। उसी तरह तकनीक के अंतहीन प्रयोग मानवनिर्मित आपदा लाती है। जिसके कारण इंसानी जीवन में अवसाद व अकेलापन आता है। जो तकनीक के अत्याधिक प्रयोग का ही परिणाम है।

भारतीय शिक्षा पद्धति और तकनीक रामबाण के नुकसान

आधुनिक भारतीय शिक्षण व्यवस्था में रटंत विद्या काफी हावी रही। जिसका नुकसान यह हुआ कि ‘शर्मा गेस पेपर’ और ‘वर्मा गाइड’ पढ़कर छात्र पास तो हो जाते थे पर उनमें व्यवहारिक और अन्तरर्वस्तु का ज्ञान न के बराबर हो पाता था। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में न तो लिटमस पेपर होता था और न ही कंप्यूटर। मामला नील बट्टे सन्नाटा। मगर हाल के वर्षों में मामला उल्टा हो चुका है।

कॉस्ट कटिंग और रिसोर्स मोबिलाईजेशन के नाम पर तकनीक को रामबाण बतला दिया गया है, जो वास्तव में शिक्षा की सारी खामियों को दूर करने का विकल्प नहीं हो सकता है। अब तकनीक के माध्यम से शिक्षण देना एक बहुत बड़ा बाजार हो गया है। आज अनएकडेमी जैसा ऑनलाइन लर्निंग वेबसाइट विज्ञापन के बल पर हज़ारों करोड़ों का मुनाफ़ा कमा रहा है और इतना मुनाफा कि आईपीएल मैच को भी अपने नाम से स्पॉन्सर कर रहा है।

वही सरकारी यूनिवर्सिटी और संस्थान कॉस्ट कटिंग के नाम पर अपने सारे प्रिंटेड जर्नल और पत्र-पत्रिका को खरीदकर छात्रों के लिए मुहैया कराना बंद कर दिया है। अब छोटे-छोटे स्कूल भी लॉकडाउन में अपने एप्प बनाकर खूब पैसे कमा रहे हैं। उनका काम डिजिटल तरीके से व्हाट्सप्प पर और विद्यालय के निजी एप्प पर प्रश्नपत्र और पाठ्य सामग्री स्कैन करके भेजना। साथ में फीस के नोटिफिकेशन भेजना और एक दिन भी फीस भरने में देरी हुई तो उन्हें एप्प के माध्यम से ब्लॉक कर देना। ताकि वे फीस तुरंत भरने को बाध्य हों।

तकनीक के नकारात्मक पहलू और गलत प्रयोग पर बोलना ज़रूरी

खैर तकनीक के अपने फायदे भी हैं। मगर आजकल तकनीक का प्रयोग ज़्यादातर मामलों में निजी मुनाफाखोरी और कॉस्ट कटिंग के नाम पर कम संसाधन संस्थान और छात्र को देने के लिए सरकार और निजी कंपनियां कर रही हैं। अब हर शैक्षणिक संस्थानों में केंद्रीकृत डिजिटल सिस्टम बना रही है।

परीक्षा शुल्क, रूम रेंट, बिजली शुल्क, पानी शुल्क, मेंटेनेंस चार्ज, सर्विस चार्ज , रजिस्ट्रेशन चार्ज, ट्यूशन फीस, सेमेस्टर फीस, सिक्योरिटी फण्ड, मेस एडवांस फण्ड, लेट फाइन, एस्टेब्लिशमेंट फण्ड, डिग्री और कॉन्वोकेशन चार्ज और तरह-तरह के फाइन जो प्रॉक्टर द्वारा छात्रों पर बतौर जुर्माना लगाया जाता है। यह सब सारे शुल्क को वसूलने का आसान तरीका तकनीक में ढूंढ निकाला है।

इसलिये आज शिक्षण संस्थाओं में तकनीक का प्रयोग शिक्षा के साथ-साथ शिक्षकों की छंटनी के लिए भी किया जा रहा है। आज संस्थान प्रमुख के द्वारा इस तकनीक का प्रयोग मॉनिटरिंग, सर्विलांस और दंड देने के लिए भी किया जा रहा है। तकनीक के इन नकारात्मक पहलू और गलत प्रयोग पर बोलना आज बेहद ज़रूरी है। आज तकनीकी रूप से सक्षम होने के लिए सभी को कहा जा रहा है, वरना उन्हें नौकरी, प्रोमोशन, शिक्षा और सुविधा से वंचित किया जा रहा है।

छात्र और कैंपस जीवन का अन्योन्याश्रित संबंध

छात्र जीवन में छात्र जितना क्लास से सीखता है, उतना ही जीवन के व्यवहारिक पक्ष को कैंपस जीवन से सीखता है। आप किताब व तकनीक की शिक्षा क्लास में लेते हैं। समाज की जटिलता, समाज की विविधता, जेंडर के सवाल, जाति के सवाल, धर्म के सवाल और समानता के सवाल किताबों से ज़्यादा कैंटीन और ढाबों पर होने वाले बहसों और सामूहिक वार्तालाप से सीखते हैं।

इसलिए ये कहा जाता है कि युवावस्था में छात्र जीवन और छात्र जीवन में कैंपस लाइफ सीखने के लिए बहुत ज़रूरी होता है। यह छात्रों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को निखारता है। अगर आपको आम और आम का गोल्डन फ्रेम वाली ड्राइंग दिया जाय तो आप किसे चुनना पसंद करेंगे, जो आपकी भूख और आम की बारें में आपकी वास्तविक तथ्यपूर्ण समझ दोनों के उपयोगी हो? तो बेशक हम आम को चुनना पसंद करेंगे।

आभाषी और वास्तविक क्लासरूम में यही अंतर है। इसीलिये सभी छात्र चाहते हैं कि शिक्षण संस्थान खुले। जिससे पत्रकारिता और तकनीक का ज्ञान आभाषी क्लासरूम की तरह आभाषी न रह जाए। पाश की शब्दों में यदि कहें तो छात्र झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते हैं। उनकी कविता से हम जान सकते हैं कि सच का सच में होना कितना ज़रूरी है। अवतार सिंह पाश की कविता इस प्रकार है-

हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
जिस तरह हमारे बाजुओं में मछलियां हैं,
जिस तरह बैलों की पीठ पर उभरे
सोटियों के निशान हैं,
जिस तरह कर्ज़ के कागज़ों में
हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्‍य है
हम ज़िन्दगी, बराबरी या कुछ भी और
इसी तरह सचमुच का चाहते हैं
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
और हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं

एक साल के लॉकडाउन के बाद सारे देश में कैंपस के छात्रों की भावनाएं कुछ इस प्रकार की ही है। इसीलिए वे चिंतित, व्यथित और आंदोलित हैं। छात्रों की कैंपस खोलने की अपनी सारी कवायद इसी कविता की भावना को कर्म के रूप में व्यक्त करती है।

सरकार और उनके द्वारा उठाये गए कदमों का विरोधभास

सरकार ने सिनेमा हॉल, थियेटर हॉल, स्विमिंग पुल, जिम, बाज़ार और कई पब्लिक प्लेस को खोल दिया है। कोई भी देश जो ज्ञान को प्राथमिकता देता हो, वो पहले चाहेगा कि शिक्षण संस्थान कैसे खुलें? ताकि ज्ञान का सृजन न रुके। लेकिन मूर्खता तो यहां है कि देश में चुनावी रैली व धर्मिक जमावड़ा सब आराम से चल रहा है।

नेता लोग दूसरे राज्य जा जाकर रोड शो और भाषणबाजी सब कर रहे हैं। मगर रोक केवल शिक्षण संस्थान को खोलने पर लगाया गया है, जो अपने आप मे एक बहुत बड़ा विरोधभास को दिखलाता है।

छात्रों को संस्थान की सारी सुविधाओं का एक्सेस होना चाहिए

कोई भी संस्थान कितना लोकतांत्रिक और उदार है, यह उस संस्थान के पॉलिसी और मुश्किल समय मे संस्थान के द्वारा लिये जाने वाले मुश्किल फैसलों और नैतिक जिम्मेदारियों से पता चलता है। शिक्षण संस्थान प्रश्न पूछना ही नहीं सिखाते हैं, समाधान निकालना भी बतलाते हैं। मगर संस्थान में जब सवाल पूछने को ही दबाया जाने लगे तो यह छात्र से ज़्यादा संस्थान के विकास के लिए घातक है।

यह तब और ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है जब ये सारे सवाल छात्र के शैक्षणिक अधिकारों और करियर से जुड़ा हो। सवाल तो उठेगा ही कैंपस केवल छात्रों के लिए ही बंद क्यों रखा गया? जब सारे प्रशासनिक अधिकारी, शिक्षक, कर्मचारी, मजदूर और सुरक्षाकर्मी बाहर से अंदर रोजाना कैंपस में आते हैं। ऐसी स्थिति में छात्रों के मन में यह सवाल उठना जायज़ है कि वो केवल छात्रों के आ जाने से कोरोना बढ़ जाएगा?

जबकि संस्थान के बाकी लोग प्रतिदिन संस्थान में आ रहे हैं। जब एलुमनाई मीट में लोग बड़ी संख्या कैंपस आ सकते हैं। कैंपस के अंदर आये दिन पब्लिक प्रोग्राम और पखवाड़ा आयोजित किया जा सकता है, तो फिर संस्थान के छात्रों को ऐसी सुविधा और अपने कक्षा से क्यों वंचित रखा जाए?

संस्थान के भीतर कोरोना से लड़ने के लिए हर संभव ज़रूरी उपाय किये जाने चाहिए ताकि छात्र अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें। उसे संस्थान के लैब, पुस्कालय और हॉस्टल का उपयोग करने की प्रतिदिन अनुमति होनी चाहिए। ताकि गरीब और ज़रूरतमंद छात्रों के सिर पर संस्थान का छत हो। उन्हें पढ़ाई के साथ-साथ रहने और खाने की चिन्ता न करनी पड़े और वह अपना बहुमूल्य समय पढ़ाई में लगाए। ताकि आर्थिक तंगी और बेहाली से परेशान होकर मानसिक अवसाद, तनाव और अकेलापन की ज़िन्दगी संस्थान के छात्रों को न बितानी पड़े।

संस्थान को अपने छात्रों की समस्याओं को सुनने चाहिए और उसे सुलझाने के हर संभव प्रयास करना चाहिए, जो कि जमीन पर दिखना भी चाहिए। जिससे संस्थान सुचारू रूप से चले और संस्थान के छात्र अपने और सामाजिक जीवन में अच्छा कर संस्थान का नाम रोशन करें।

 

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