आज देश की राजनीति का केंद्र किसान आंदोलन बन चुका है। नेताओं से लेकर अभिनेताओं में कृषि कानूनों को लेकर गर्म बहस देखी जा रही है। ट्विटर पर कंगना और दिलजीत दोसांझ की बहस हो या हमारे गली की नुक्कड़ पर बनी चाय की दुकान पर चर्चा। हिन्दू-मुस्लिम का विषय अब कम होना शुरू हुआ है।
नए कृषि कानूनों को लेकर सरकार और किसान संगठनों के तर्क
2020 जून माह में सरकार ने कृषि से जुड़े तीन अध्यादेश जारी किए थे जो राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद सितंबर माह में कानून बन गए।
कृषि कानून (2020) की कमियों की ओर ध्यान केंद्रित करते हुए किसान संगठनों का कहना है कि इस कानून से MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) और मंडी व्यवस्था खत्म हो जाएगी। दूसरी और सरकार का कहना है कि इस कानून के लागू होने के पश्चात कृषक वर्ग की आमदनी मे बढ़ोतरी होगी और अब वह अपना अनाज देश के किसी भी कोने में बेच सकते हैं।
कृषि कानूनों के विरोध में किसान संगठनों ने अगस्त से ही क्षेत्रीय स्तर पर अपना विरोध दर्ज कराना शुरू कर दिया था। किसानों ने सबसे पहले 25 सितंबर 2020 को भारत बंद का एलान किया था जिसका प्रभाव कुछ खास नहीं रहा था। सरकार व बड़े मीडिया संस्थानों के नज़र अंदाज के बाद 26 नवंबर 2020 को 30 किसान संगठनों ने मिलकर किसान संघर्ष समिति के बैनर तले राजधानी दिल्ली की ओर कूच किया।
दो महीने बाद किसानों ने 26 जनवरी को दिल्ली की सीमा में अपने ट्रैक्टर के साथ परेड मार्च निकाला। सरकार ने भी किसानों को अपने समर्थन में लेने के लिए कई कार्यक्रम किए हैं। सरकार के तमाम मंत्री अपनी और से पूरा जोर लगा रहे हैं। प्रधानमंत्री अपने सम्बोधन से देश की जनता को विश्वास दिलाना चाहते हैं कि तीनों कृषि कानून देश व किसानों के हित में है।
किसानों की मांग बिल्कुल स्पष्ट
किसान संगठनों और सरकार के बीच अभी तक 11 बारी बैठक हो चुकी है बावजूद इसके अभी तक कोई परिणाम नहीं निकला है। 26 जनवरी की घटना के बाद सरकार और किसानों के बीच दोबारा बातचीत शुरू नहीं हो सकी है। हमें ध्यान देना चाहिए कि किसान संगठनों की मांग तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की है। उन्होंने अपनी मांग को बिल्कुल स्पष्ट रखा है और इससे कम उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए।
देश में कृषक वर्ग की संरचना को देखने से यह मालूम चलता है कि जिस MSP और मंडी व्यवस्था को खत्म होने से बचाने के लिए यह संघर्ष चल रहा है, उसके अस्तित्व में रहने के बावजूद कृषक वर्ग के एक बड़े हिस्से के जीवन में कोई बदलाव नहीं होता।
यह सच है कि नए कृषि कानून के बाद देश की गरीब जनता (किसान-मजदूर) पर बड़ी आर्थिक चोट पहुंचेगी लेकिन केवल यही कहकर इस वर्ग का साथ ले पाना कठिन है।
भूमिहीन किसानों के मुद्दे क्यों बहुत ज़रूरी?
NSSO (National Sample Survey Office) 70वें सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले (15.614 करोड़) परिवारों में से मात्र 57.8% परिवार (9.02 करोड़) के पास खेती के लिए जमीन है। इससे यह साफ होता है कि ग्रामीण समाज का 42.2% आबादी खेतिहर मजदूर परिवारों की है जो पूर्ण रूप से भूसंपन्न किसानों पर आश्रित हैं।
भूसंपन्न किसान परिवारों में से 86.58% हिस्सा छोटे और सीमांत किसानी परिवारों का है। छोटे किसानों की आबादी का हिस्सा 30.56% है तथा सीमांत किसानों की आबादी का हिस्सा 69.44% है। सीमांत किसान उन्हें माना जाता है, जिनके पास एक हेक्टेयर से कम खेती योग्य जमीन है। औसतन इस आबादी के पास 0.41 हेक्टर की खेती योग्य जमीन है और देश में छोटे किसानों के पास औसतन 1.4 हेक्टेयर खेती के लिए जमीन है।
ग्रामीण समाज का 42.2% आबादी खेतिहर मजदूर परिवार की है जिनका जीवन बड़ी कठिनाइयों से भरा है। भूमिहीन किसान बहुत ही कम मजदूरी पर बड़े किसानों के खेतों में काम करते हैं। इन किसानों के पास जीवन यापन के लिए ज़रूरी संसाधन भी नहीं है। अक्सर किसानों की आत्महत्या की खबर जो आती है उनमें भूमिहीन वर्ग के लोग ही होते हैं।
देश के सबसे कमजोर तबके के बिना किसान आंदोलन बहुत कमजोर है, जो केवल MSP और मंडी व्यवस्था को बचा पाएगी। किसान आंदोलन के जीत के बाद भी 42.2% किसान जो भूमिहीन हैं उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आएगा। उनका शोषण फिर भी होता रहेगा।
यदि सरकार किसानों के जीवन में विकास लाना चाहती है, तो पहले उन्हें शोषित वर्ग की बात ज़रूर सुननी चाहिए। ग्रामीण इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा अन्य क्षेत्रों को मजबूत करना चाहिए। इन कृषि कानूनों को रद्द करने के साथ ही हमें गरीब किसानों पर होने वाले शोषण को भी ध्यान रखना होगा।