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क्यों अदालतों से न्याय मिलने की उम्मीद लगातार कम होती जा रही है?

क्यों अदालतों से न्याय मिलने की उम्मीद लगातार कम होती जा रही है?

जब भी हम न्यायपालिका की बात करते हैं, उस समय न्याय का विचार हमारे दिमाग में घूमता है। आम आदमी न्यायालय को पीड़ित व्यक्ति को न्याय देने के लिए एक तंत्र के रूप में मानता है। यह सच है कि जब कभी देश में प्रशासनिक या कार्यकारी तंत्र में अनियमितता होती है तो व्यवस्था को दुरुस्त करके उसे चलायमान रखने में न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

स्वतंत्रता के बाद के भारत में कई उदाहरण हैं, जब समय समय पर बार-बार ये साबित हुआ है कि भारतीय न्यायपालिका ने भारतीय लोकतंत्र के ताने-बाने को मजबूती से बचाए रखा है।

जब भी किसी सरकार में तानाशाही प्रवृत्ति उजागर हुई है, तब भारतीय अदालतों ने उन पर अंकुश लगाने का काम बखूबी किया है। भारतीय न्याय व्यवस्था द्वारा कई उपाय किए गए हैं, जिनके माध्यम से भारत के लोकतंत्र को मजबूत रखा जाता है, जैसे कि निष्पक्ष और निष्पक्ष चुनाव प्रणाली, चुनाव आचार संहिता आदि। न्यायालयों ने समय-समय पर बड़े घोटाले करने वालों को जेल भेजकर भारतीय न्याय प्रणाली ने तंत्र में आम जनता का भरोसा बहाल किया गया है।

न्यायपालिका ने संविधान के मूलढ़ांचे की अक्षुण्णता को बरकरार रखा है

भारतीय न्यायपालिका द्वारा ये भी एक महत्वपूर्ण महत्वपूर्ण कार्य किया गया है कि इसने भारत के संविधान की मूलभूत संरचना को लगभग अपरिवर्तनीय बना दिया है। हालांकि, इसे बाद में भारतीय विधायिका द्वारा भी अपना लिया गया।

इससे अब भारतीय संविधान की मूल संरचना को बदलना लगभग असंभव हो गया है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह भारतीय न्याय प्रणाली का ही असर है कि चारों ओर से नाउम्मीद होकर लोग अभी भी आशा की दृष्टि से न्यायालयों में आते हैं।

हालांकि, भारतीय न्यायपालिका द्वारा लोकतंत्र को जीवित रखा गया है, फिर भी न्याय वितरण प्रणाली में बहुत सारी बाधाएं हैं। कोर्ट में बहुत सारे मामले लंबित हैं। न्यायालय में लंबित मामलों के बढ़ते दबाव के बावजूद, ना केवल उच्च न्यायालयों में बल्कि भारत भर के विभिन्न ज़िलों में ज़िला न्यायालयों में न्यायाधीशों के लिए बहुत सारे रिक्त पद हैं।

अदालत का रुख करना बहुत आसान है। एक आम आदमी बड़ी उम्मीदों के साथ एक अदालत का दरवाजा खटखटाता है और निश्चित रूप से, न्यायपालिका प्रणाली न्याय देने के लिए तटस्थ और सक्षम है। लेकिन, असली सवाल यह है कि किसी मामले के निपटारे में अदालत को कितना समय लगता है?

लचर न्याय व्यवस्था एवं त्वरित न्याय प्रणाली के अभाव में आम जनमानस की स्वतंत्रताओं का होता हनन

एक काल्पनिक उदाहरण लीजिए। एक महिला है, जो एक पुरुष के साथ रिश्ते में है। दोनों ने शादी करने का फैसला किया। हालांकि, पुरुष के माता-पिता अपने बेटे की इच्छा के विरोध में होते हैं और वे अपने बेटे की जबरन दूसरी लड़की से शादी करा देते हैं। इस बात से दुःखी होकर महिला ने पुरुष पर बलात्कार के आरोप लगाए, जो कि प्रथम दृष्टया एफ.आई.आर. दर्ज करने के लिए काफी होते हैं। इसके परिणामस्वरूप आदमी को जेल के पीछे भेजा जाता है।

लंबे समय तक कानूनी प्रक्रिया और ट्रायल के बाद उस आदमी को 15 साल बाद उचित निर्णय मिल पाता है और उसे बरी कर दिया जाता है। हालांकि, उसे उचित निर्णय मिल तो जाता है, लेकिन इस निर्णय का क्या औचित्य है? अदालत इस तरह के उदाहरणों से भरी पड़ी है। लेकिन, इतनी देरी से सुनाया गया फैसला किस दृष्टि से न्याय कहा जा सकता है।

जो व्यक्ति गलत आरोपों के कारण अपने जीवन के महत्वपूर्ण साल जेल के भीतर बिता देता है उसका क्या?

कानूनों के दुरुपयोग एवं लचर न्याय प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए हमें उचित कदम उठाने होंगे

यह कहा जाता है कि न्याय में देरी, न्याय नही मिलने के बराबर होता है। हालांकि, भारतीय न्यायपालिका काफी हद तक अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रही है, फिर भी निर्णय लेने में लम्बा समय खपत होने के कारण उचित निर्णय तो आ जाता है पर सच्चे अर्थों में न्याय नहीं हो पाता है। यह सही समय है कि भारत सरकार को इस दिशा में उचित कदम उठाने  चाहिए।

मसलन जिस तरीके से ट्रायल के लिए एक लोकल कमिश्नर बनाया जा सकता है, उसी तरीके के अनुभवी वकीलों  को कुछ केस निपटारे के लिए दिए जाएं। एक पैनल बनाया जाए जिसमे अनुभवी वकीलों की लिस्ट तैयार की जाए, जो ऐसे केसों को निपटा सकते हों। जिस तरीके से एक आर्बिट्रेटर बनाया जाता है, उसी तरह से कुछ केसों के लिए कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को केस निपटारे के लिए दिए जाए, ताकि निर्णय देने में लगने वाले समय को उचित रूप से रोका जा सके।

इससे लंबित मामलों का बोझ घटेगा और आम जनमानस को त्वरित न्याय मिलने में सुविधा भी होगी तब भारतीय न्यायपालिका से ना केवल उचित निर्णय आएगा वरन आमजनमानस को न्याय भी मिल पाएगा।

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