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“एक पुरुष का रोना उतना ही सहज़ है, जितना एक स्त्री का रोना”

"एक पुरुष का रोना उतना ही सहज़ है, जितना एक स्त्री का रोना"

आपने कुछ कहावतें तो सुनी ही होंगी जैसे- क्या यार औरतों की तरह क्यों रो रहा है या अक्सर माँअपने छोटे बच्चे से कहती हैं तुम तो स्ट्रॉग बॉय (लड़के) होना फिर अपनी बहन की तरह क्यों रो रहे हो? और यह अगर कोई लड़का आपके सामने रो सकता है तब उसके लिए आप खास हो? क्योंकि हम मानकर चलते हैं लड़के आसानी से नहीं रोते। खैर, यह तो कुछ मिसालें हैं बाकी हम ऐसी ही अनन्त धारणाओं से घिरे हुए हैं, जिन्हें हमने सदियों से अपने आस-पास बुन लिया है।

औरतें क्या करती हैं और पुरुष क्या नहीं कर सकते हैं? वगैरह-वगैरह और इन धारणाओं ने एक पुरुष की तस्वीर को इतनी मज़बूती से सामने लाकर रख दिया है कि एक पुरुष यह कहने की हिम्मत ही नहीं कर पाता कि नहीं यह तस्वीर उसकी नहीं है। वो नहीं कह पाता कि उसे भी अंधेरे से उतना ही डर लग सकता है, जितना एक छोटे बच्चे को। वो नहीं कह सकता कि उसके भीतर एक औरत से कहीं ज़्यादा छटपटाहट है। वो घबरा रहा है, वो कांप भी सकता है।

जैसे हमारे समाज ने एक स्त्री को देवी का दर्ज़ा दे रखा है मतलब एक माँ, एक बीबी, एक बहन क्या हो सकती हैं? उससे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन क्या नहीं हो सकती यह तो साफ है, यह पहले से ही हमारे समाज में तय कर दिया गया है।

ठीक इसी तरह हमने एक पुरुष को रक्षक की तरह गढ़ लिया है। हम यह सोचना ही नहीं चाहते कि उसकी भी कुछ चिंताएं, डर, सम्वेदनाएं या अपराधबोध हो सकते हैं। ज़रूरी नहीं कि वो एक सुरक्षा कवच की तरह ही रहना चाहे? उसके भीतर भी संवेदनाएं हो सकती हैं। शायद ही किसी ने अपने घरों में भाई, पति, पिता को रोते देखा हो। जबकि ऐसा नहीं है कि उन्होंने कभी रोना ना चाहा होगा! बस वो नहीं रो सकते, क्योंकि वो यह सुन-सुनकर बड़े हुए हैं तुम तो स्ट्रांग बॉय होना! एक लड़की की तरह क्यों रो रहे हो?

मगर यह किस किताब में लिखा है कि रोना आपको कमज़ोर बनाता है और अपनी सम्वेदनाएं, अपनी भावनाएं छुपाना ही आपको पुरुष बनाता है। याद कीजिए क्या कभी आपके भाई, पिता, पति या मित्र ने आपको बताया कि वो बहुत ज़्यादा परेशान हैं? नहीं! आप नहीं याद कर सकते, क्योंकि हमने एक ऐसा माहौल तैयार कर लिया है जहां पुरुषों की मानसिकता या कहें मज़बूरी यह है कि वो मानकर चलते हैं कि वो यह सब किसी को नहीं कह सकते, वर्ना उन्हें कमज़ोर समझ लिया जाएगा।

बेशक एक महिला को घर से बाहर तक बहुत कुछ झेलना पड़ता है लेकिन, इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि एक पुरुष के लिए यह दुनिया, यह समाज एक सीधी-साधी लकीर है जहां कोई उसे डरा-धमका या गिरा नहीं सकता है। यही वजह है कि पुरुषों में मेंटल हेल्थ और आत्महत्या की समस्या महिलाओं की अपेक्षा कहीं ज़्यादा है। जहां एक और किसी को जॉब छूटने का डर है, तो कहीं किसी को जॉब ना मिलने का डर सताता रहता है।

NCRB के आकंड़ों के अनुसार 

आपको जानकर आश्चर्य हो सकता है लेकिन पुरुषों के साथ कार्यस्थल पर महिलाओं से ज़्यादा यौन शोषण होता है और हाल ही में NCRB के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं से कहीं ज़्यादा पुरुषों की आत्महत्या का आंकड़ा है। 2019 में 70.2 फीसदी पुरुषों ने और 29.8 फीसदी महिलाओं ने इसके चलते आत्महत्या की थी। यह लिखते वक्त मुझे एक छोटी सी घटना याद आ गई जो शायद इसका उदहारण बन सकती है।

पुरुषों का भी विभिन्न रूपों में यौन शोषण होता है 

मेरे एक मित्र के आस-पड़ोस में कुछ रिटायर्ड अंकल थे, जो हर 15 दिन में किसी धार्मिक टूर पर जाते थे और उनका ड्राइवर था 20-21 साल का एक लड़का था। एक दिन यूं ही बातों ही बातों में मैंने कह दिया कितना अच्छा है ना हर बार उस लड़के को ही ले जाना इस बहाने वो घूम भी लेता होगा और चार पैसे भी मिल जाते होंगे तब मेरे मित्र ने कहा तुम्हें नहीं पता वहां वो सब मिलकर उसके साथ क्या करते हैं? यकीन मानिए मुझे तो अंदाज़ा भी नहीं था ऐसा कुछ कहीं होता होगा। मैंने बहुत आश्चर्य से पूछा था क्या मतलब! क्या करते होंगे?

वो मुझे साफ-साफ बता नहीं पाया लेकिन मैं समझ गई थी कि वो क्या कह रहा था (वो सारे मिलकर उसका यौन शोषण करते थे।) मैं अगले कुछ दिनों तक तय ही नहीं कर पाई क्या वाकई ऐसा होता होगा? ऐसी कई कहानियां हैं, जहां काम के नाम पर शोषण और प्रताड़ना दोनों ही पुरुषों को झेलने पड़ते हैं लेकिन, जॉब जाने का डर या लोग क्या कहेंगे? वाली मानसिकता उन्हें चुपचाप सब झेलने पर मज़बूर करती है।

रोना लैंगिक कमज़ोरी नहीं, हमारी भावनाओं का रूप है

रोना, चीखना, मुस्कुराना, भावुकता और गुस्सा यह सब किसी जेंडर के साथ नहीं जुड़े हैं बल्कि, यह तो वो सारे इमोशंस हैं जिन्हें प्रकृति ने एक मानव के तौर पर हमें दिया है। एक पुरुष का रोना उतना ही सहज़ है जितना एक स्त्री का ना रोना यह सब मानसिक तनाव हैं जो परिस्थितियों पर निर्भर भले ही कर सकते हैं लेकिन, हमारे या आपके लिंग पर नहीं। इस धारणा से आगे आइए और अपने बच्चों को रोना और दिल खोलना दोनों ही सहज़ भाव से सिखाइए ताकि जब वो परेशान हो तब यह ना सोचे कि कुछ कहना और रोना उसकी प्रकृति नहीं है।

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