Site icon Youth Ki Awaaz

“कोरोना के साथ-साथ व्यवस्था और नागरिकों की लापरवाही भी बढ़ती चली गई है”

कोरोना महामारी की दूसरी लहर में लोग तेजी सी संक्रमित ही नहीं हो रहे हैं, बड़ी संख्या में मर भी रहे हैं। इस सच्चाई को स्वीकार कर लेना चाहिए कि लोगों के बीच कोरोना को लेकर सावधानी बरतने का जो नीतिगत व्यवहार होता है, वो अब नहीं रहा। चाहे वो व्यक्तिगत हो, राजनीतिक हो या सांस्कृतिक, कहीं भी इसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा।

बस सरकार ही नहीं, जनता भी बराबर लापरवाह

कोरोना महामारी अपने शुरुआत से ही जिस सतर्कता की मांग देश के हर नागरिक से करता रहा है, उस सामान्य सी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करने में एक आम नागरिक ही नहीं, हर खास नागरिक भी पूरी तरह से विफल रहा है। यह एक तरफ सरकार की प्रशासनिक विफलता को दिखाता है, तो साथ ही आम नागरिकों की लापरवाहियों पर भी सवाल उठाता है।

बस चुनावी रैलियों में ही नहीं, हर धार्मिक आयोजनों और कई अन्य गतिविधियों में भी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि और आम लोगों का लापरवाह हो जाना वह पर्याप्त कारण दे देते हैं जिसकी वजह से देश के कमोबेश हर राज्य में मौत के आकंड़े लगातार बढ़ रहे हैं।

कमोबेश हर राज्य के श्मशान से उठता धुआं लोगों को भय के हवाले तन्हा छोड़ रहा है। यह और अधिक भयावह भी हो सकता है, जिसके लिए हमें तैयार हो जाना चाहिए।

जहां एक तरफ चुनावी रैलियों में भीड़ और कोविड प्रोटोकॉल का पालन नहीं होने पर बार-बार टी.एन.शेषण जैसे चुनाव आयुक्त की कमी की याद आ रही है, वहीं अन्य जगह पर लोगों की बढ़ती भीड़ और बेहतर नीतियों को लागू करने वाले व्यक्ति या प्रशासक की कमी खल रही है।

जनप्रतिनिधियों का भी अजीबोगरीब तर्क

इस बात को संज्ञान में लिया जाना चाहिए कि किसी चैनल को इंटरव्यू देते हुए एक वरिष्ठ मंत्री ने मास्क नहीं पहनने के खिलाफ भी तर्क दिया था। यह दुखद इसलिए है कि जो जनप्रतिनिधि एक बड़े समुदाय पर अपना प्रभाव रखते हैं, वे इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना बयान कैसे दे सकते हैं? अगर ये वरिष्ठ मंत्री मास्क पहनने, महामारी के दौरान उचित व्यवहार का पालन करते और लोगों को भी इसका पालन करने के लिए जागरूक करते तो स्थिति कुछ और हो सकती थी।

तमाम तरह की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बेअदबी के बाद आज हम फिर वहीं आ खड़े हैं, जहां से शुरुआत की थी। यह स्थिति तब है जब हमारे पास असरदार वैक्सीन उपलब्ध हैं। यहां यह सवाल भी ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि अगर कार में अकेले बैठे व्यक्ति के लिए मास्क लगाना ज़रूरी है, तो फिर राजनीतिक रैलियों, धार्मिक आयोजनों और लोगों की निश्चित संख्या को लेकर कोई गाइडलाइन क्यों नहीं है?

जब शादियां और अंत्योष्टि तक में लोगों की सीमा तय है तो बाकी आयोजनों में क्यों नहीं है? पिछले दिनों मुबंई से दिल्ली विमान से आने के दौरान कोविड टेस्ट के बारे में कहीं कुछ चेक तक नहीं किया जा रहा था। ना ही मुबंई एयरपोर्ट पर न ही दिल्ली एयरपोर्ट पर। यह दिखा देता है कि कोविड महामारी को लेकर न केवल नागरिक, बल्कि हर संस्था ने चैन की नींद लेना शुरू कर दिया था।

कैसे चीज़ों को वापस बेहतर किया जा सकता है?

बहरहाल, राजनीतिक दलों, सरकारों और सरकारी-गैर-सरकारी संस्थाओं के पास जवाब देने के लिए बहुत कुछ है। उस परिस्थिति में जब हम सभी जानते हैं कि भारत में जिस तरह का जनसंख्या घनत्व है, वहां सामाजिक दूरी का पालन करना हमेशा से चुनौतिपूर्ण रहा है। सुरक्षा को लेकर लापरवाही के लिए क्या ही कहा जा सकता है?

जबकि कई छोटी-बड़ी कंपनियां केवल मास्क बनाकर ही महामारी के दौरान काफी मुनाफा कमाया है। फिर भी हम पहनने का अनुपालन केवल फाइन नहीं लगने के डर से ही कर रहे हैं।

अब जब यह भी तय लगने लगा है कि देश में फिर से लॉकडाउन लागू करना मुश्किल होगा, क्योंकि यह देश के सारी आर्थिक गतिविधियों को रोक देता है, तब नागरिक समाज की जिम्मेदारी अधिक बढ़ जाती है कि संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए, उन सभी प्रयासों पर अमल करे जिससे यह थोड़ा थम सकता है। दूसरी लहर में हमें वैक्सीन के खिलाफ जितने भी दुष्प्रचार हैं उससे भी लड़ना होगा।

इसलिए हमें, आपको और हर किसी को अपने नागरिक कर्तव्य और अधिकार के प्रति सतर्क होना पड़ेगा। अगर हम मसीहाओं के इंतज़ार में बैठे रहेंगे कि कोई हमें बचाने आएगा तो हम केवल ठगे जाएंगे। जिनको हमने प्रशासनिक मसीहा चुनकर भेजा है, उन्होंने तो हमें हमारे हाल पर ही छोड़ दिया है और जिन मसीहाओं को हम पूजते हैं, अपना अराध्य मानते हैं, उनके कपाट भी अब बंद हो चुके हैं।

अब सारी ज़िम्मेदारी हमसे और आपसे बनी नागरिक समाज की है कि वह अपना सामाजिक राष्ट्रवाद कोविड के इस दूसरे लहर के खिलाफ मजबूत करें। मानवता आधारित राष्ट्रवाद ही हमको, आपको और समाज को मौजूदा समस्या से ऊबार सकती है। यही नए भारत को कोविड के मौजूदा लहर से लड़ने का हौसला दे सकती है।

Exit mobile version