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भाजपा के एजेंडे पर होता बंगाल चुनाव और दीदी का बिखरता कैडर

विगत एक-दो महीनों में बंगाल की राजनीति को करीब से देखा-पढ़ा है। टीएमसी का चुनावी कैंपेन देखा है और तभी मैं यह लिख रहा हूं! विधानसभा चुनाव के नतीजे चाहें जिसके भी पक्ष में आएं, एक बात पारदर्शी है कि जो ममता बनर्जी बंगाल की सबसे बेहतरीन मुख्यमंत्री रहीं लेकिन विगत दो वर्षों में एक नेता के तौर पर बुरी तरह लड़खड़ा चुकी हैं। विफल हो रही हैं।

ये अब वो ममता नहीं हैं, जिसने कांग्रेस को ललकारते हुए अपनी पार्टी बनाई थी। बल्कि भाजपा शीर्ष नेतृत्व द्वारा डराई गई महज एक मुख्यमंत्री उम्मीद्वार हैं।

हिंदुत्व कार्ड के सामने फेल होती दिख रहीं ममता

ये दीदी की कमजोरी ही है जिसने उन्हें जय श्री राम के जवाब में देवी दुर्गा को खड़ा करने पर मजबूर किया। उनका राजनैतिक अंदाज़ ऐसा कभी था ही नहीं।

विपक्ष की टीका-टिप्पणी से वो असहज हो जाती हैं। वो इतना घबरा जाती हैं कि बौखलाहट में उन्हें अपना गोत्र बताना पड़ता है। उन्हें बंगाल की बात करनी थी, विकास की बात करनी थी, मुद्दे की बात करनी थी! लेकिन भाजपा के हर सवाल में वो और उलझती चली गईं।

इनके पास अपनी योजनाओं के बारे में काफ़ी कुछ कहने को हो सकता था। बहुत सारे मुद्दों पर भाजपा को घेरा जा सकता था। केंद्र की कई नाकामियां हैं जिसे ये भुना सकती थीं, लेकिन फिलहाल ये भाजपा के लाइन में खेलने को मजबूर हैं। कोई दो मत नहीं कि इस बार बंगाल का चुनाव भाजपा के सेट किये एजेंडे पर होता दिख रहा है।

दीदी की ब्रांड ऑफ पॉलिटिक्स का आखिरी दौर

इसमें कोई दो राय नहीं है कि चुनाव परिणाम के बाद सरकार बनाने के लिए जो भी आंकड़े चहिए वो तृणमूल कांग्रेस के पास मौजूद रहेंगे। बेशक दीदी इस बार भी सत्ता में आएंगी। मगर इसमें भी कोई दो राय नहीं होनी चाहिए, कि बंगाल की राजनीति में दीदी और उनकी पार्टी अब उसी दौर से गुजर रही है जिस दौर से बिहार में नीतीश कुमार और उनकी जदयू। 

ये दीदी की ब्रांड ऑफ पॉलिटिक्स का आखिरी दौर है जो 2024 के लोकसभा चुनाव आते-आते खत्म भी हो सकता है। कांग्रेस से अलग हटकर जब दीदी ने नई पार्टी बनाई, तब वो संघर्षशील और गंभीर थीं। लेफ्ट के मज़बूत वट वृक्ष को उन्होंने अकेले चुनौती दिया था। मगर आज वो बेबस हैं। मोदी-शाह की जोड़ी उनके सामने बंगाल को अपना गढ़ बना रही है और वो चुप-चाप देख रही हैं।

बुद्धदेव भट्टाचार्य को मात देने में दीदी को सबसे ज़्यादा मदद लेफ्ट के नेताओं ने किया था। जब दीदी सत्ता में आईं तो वही लोग दीदी के साथ आ गए। इतिहास खुद को दोहरा रहा है। आज दीदी के लोग भाजपा में जा रहे हैं। दीदी जितनी कमजोर हो रही हैं, भाजपा उतनी तेज़ी से पांव पसार रही है। यही कारण है कि 2014 लोकसभा चुनाव में प्रचंड लहर होने के बावजूद महज दो सीटें जीतने वाली भाजपा 2019 के लोकसभा में 18 सीटें जीत जाती है। 2016 विधानसभा चुनाव में महज तीन सीटों पर सिमटने वाली पार्टी 2021 आते-आते 200 सीटें जीतने का दंभ भरने लगती है।

नतीजे मुमकिन हो कि दीदी के पक्ष में ही आये, लेकिन भाजपा ने अपनी जमीन बहुत ही तेजी में और अप्रत्याशित रूप से मजबूत करने में सफलता हासिल की है। मोमेंटम शिफ्ट को अगर देखा जाए तो वह भाजपा के ही पक्ष में है। भले वह जीत दिला पाने भर सक्षम न हो।

भारत के लोकतंत्र के लिए बंगाल में “खेला” होना ज़रूरी

खैर, पिछले एक दशक से दीदी खुद हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेलकर कांग्रेस और लेफ्ट को सत्ता से दूर भेज रही थी और आज उनके साथ भी वही हो रहा है। आज भाजपा के अधिकतर उम्मीद्वार टीएमसी के कैडर वाले हैं। मोदी-शाह की जोड़ी जिन लोगों पर भरोसा करके 200 सीटें जीतने का दावा कर रही है वो भी टीएमसी से भागे हुए लोग ही हैं।

इसीलिए नतीजों का इंतज़ार कीजिए। देश और बंगाल में हेल्दी डेमोक्रेसी के लिए ममता बनर्जी का जीतना बेहद ज़रूरी है। भारत के लोकतंत्र के लिए बंगाल में “खेला” होना ज़रूरी है।

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