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बाल विवाह: आज भी कायम है इस कुप्रथा का दंश

"बाल विवाह : आज भी कायम है इस कुप्रथा का दंश"

मध्य प्रदेश के उज्जैन ज़िले के कुछ गाँवों की लड़कियों के साथ मैं लिंगभेद के काम के माध्यम से जुड़ी हई हूं। ग्रुप में ऐसी लड़कियां भी हैं जिन्होंने पांचवी या आठवीं  के बाद स्कूल जाना छोड़ दिया है। उसकी वजह वे बताती हैं कि उनके समाज में लड़कियों को आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाते नहीं हैं बल्कि, उनकी शादी करा दी जाती है।

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ग्रुप में मैंने सहज़ता से प्रश्न पूछा था कि पढ़ने में मन नहीं लगता? उस समय पांचवी कक्षा की लड़की का जवाब आया, अभी दो साल बाद शादी ही करनी पड़ेगी तो पढ़ाई में मन लगा कर क्या करेंगें? पढ़ाई करने के लिए बैठते हैं तो काम करने को कहा जाता है, बोलते हैं क्या करेगी पढ़के? पांचवी कक्षा की लड़की ने शादी करने की मानसिकता को इतनी सहज़ता से कैसे स्वीकार कर लिया?

यहां के गाँवों में सरकारी स्कूल गाँव से थोड़ी दूर होता है इसलिए लड़कियों के साथ में जाने वाला कोई नहीं होता है तो वे स्कूल नहीं जा पाती हैं। गाँव के गली-मोहल्लों की लड़कियां मिल-जुलकर स्कूल जाती है। खेत में फसल निकलवाने के वक्त अगर इनमें से कुछ लड़कियां खेत जा रहीं है तो बाकी लड़कियों को भी फसल हो जाने तक स्कूल में भेजा नहीं जाता है। जो प्राइवेट स्कूल गाँव के पास होते हैं वहां का खर्चा घरवाले उठा नहीं सकते हैं। यहां  के लोगों में लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाते नहीं हैं।

 यह बात एक रीति-रिवाज की तरह स्थाई बन गई है। गाँव वालो की मनोवृत्ति इस तरह है कि वे लड़कियों को अपनी घर या गली के बाहर जाने से भी रोकते हैं तो ऐसे माहौल में लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए उनको असुरक्षित ही लगता है। उनका मानना है कि लड़कियां बाहर निकलेंगी तो बिगड़ जाएंगी। बाहरी दुनिया से लड़कियों की पहचान होने से वे डरते हैं, ऐसा मुझे उनके व्यवहार और बोलचाल से लगता है। घर में टीवी पर लड़कियों को शादी के बाद के संस्कार सिखाने वाले सीरियल दिखाई जाते हैं।

वे अपनी माँ, दादी, बहन, भाभी, सहेलियों और सीरियल में संस्कारी बहूओं को देखते-देखते बड़ी हो जाती हैं। इसलिए शायद जीवन जीने की सोच खासकर लड़कियों की, शादी करने तक ही सीमित रह जाती है। गाँव के पास प्राइवेट स्कूल रहते हैं पर वहां लड़कियों के ऊपर शिक्षा के लिए खर्चा करना उनके घर वालों को या तो उचित नहीं लगता हैं या वे कर नहीं पाते हैं। ऐसी बात उनके सामाजिक व्यवहार में नहीं आती है। वे लड़कों को पढ़ाना चाहते हैं।

इसलिए लड़कों को शादी करने के बाद भी अधिक पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया जाता है और उनकी बीवियां घर और खेत का काम संभालने का काम करती हैं। लड़का पढ़ाई ,जॉब और अपना विकास करने में मशगूल रहता है और उसके पीछे उसकी ब्याही हुई स्त्री जीवन भर सिर्फ एक माध्यम बन कर रह जाती है। यहां की सामाजिक व्यवस्था बचपन से ही लड़के और लड़कियों का यही जीवन जीने का नज़रिया बनाती रहती है। उनको जीवन के दूसरे दृष्टिकोण या नज़रिया बनाने से बचाती रहती है।

 यहां के पुलिस अधिकारियों के साथ शादी के समय कार्यवाही रुकवाने के लिए पैसे देकर कम उम्र में शादी करा देने का समझौता किया जाता है। इसके लिए एक राजनैतिक दबाव भी बना रहता है। पुलिस और नेता खुद ऐसी शादियों में बड़ी खुशी से शामिल होते हैं।

यहां के गाँवों में आठवीं कक्षा तक ही लड़कियों को पढ़ाना ज़रूरी समझते हैं, क्योंकि तब तक लड़कियों को माहवारी शुरु हो जाती है और स्कूल भी इसलिए ताकि वे थोड़ा बहुत घर या खेत के काम में आ पाएं और उतनी गिनती और पढ़ना-लिखना सीख सकें।  फिर यहां की सामाजिक व्यवस्था स्त्रियों को अपने जीने के दौरान काम, ज़रूरत और विलास का एक माध्यम बनाने तक सीमित रखने के दृष्टिकोण तक सीमित रखती हैं।

यहां के अधिकारियों को स्थानीय या राजनीतिक दबावों में दबना नहीं चाहिए बल्कि, समाज के बदलाव के लिए उनके माध्यम से, ऐसे लोगों और समुदायों पर दबाव/समझाईश के ज़रिये ऐसे मुद्दों पर तीव्रता से कुछ कदम उठाने की दिशा में हिम्मत भरे काम करने चाहिए।

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