This post is a part of #JaatiNahiAdhikaar, a campaign by Youth Ki Awaaz with National Campaign on Dalit Human Rights & Safai Karamchari Andolan, to demand implementation of scholarships in higher education for SC/ST students, and to end the practice of manual scavenging. Click here to find out more.
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समाज ने इंसानों को धर्म, जाति, लिंग और भी न जाने कौन-कौन से स्तर पर हैं बांटा है। इस बंटवारे को लोग पूर्वजों की देन मानकर पूजा करते हैं। कई बार देखने में आता है “फलां आदमी मेरे घर आया मगर मज़ाल है वो कि हमारे सामने कुर्सी या बिस्तर पर बैठे”? हमारे बुजुर्गों के लिए तो वो शान है जहां दलित और नीची जाति के लोग दरवाज़े की ड्योढ़ी से कदम आगे नहीं बढ़ाते।”
जब सभ्य समाज के असभ्य लोग ऐसी बातों का गान करते हैं तब उनको ऐसा लगता है, मानो वो ही समाज के सबसे ऊपरी पद पर विराजमान हैं। मगर असलियत में ये वो बीमार और अपाहिज हैं, जिन्हें मानवता के साथ-साथ समझ भी ना के बराबर मिली है। इन्हीं सबके बीच समाज में जातिवाद के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं। यह असमानता पूरे विश्व में किसी न किसी रूप में ज़रूर सामने आती है।
भारत में तो इस असमानता को लोग अपनी जागीर समझा जाता है। इसको अपनी मिल्कियत समझते हैं, जो वास्तव में एक भयावह बीमारी है। ऐसी बीमारी जिसका शायद कोई इलाज नहीं। घर से लेकर, स्कूल, कॉलेज, ऑफिस और भी न जाने कहां-कहां लोग खुद को उच्च जाति का दिखाने में अपनी शान समझते हैं।
हिन्दू धर्म में शूद्रों को भंगी, चमार, मेहतर, और भी न जाने किन-किन नामों से बुलाया जाता रहा है। वहीं मुस्लिम धर्म में भी सिर्फ 4 जातियों सैयद, शेख, मुगल और पठान को ही उच्च माना गया है। बाकी बचे जिनको, भंगी, पासी, चमार, और भी न जाने कितने नामों से संबोधित किया जाता रहा है।
किताबों और लेखों में तो आपने खूब पढ़ा होगा इस विषय के बारे में। वहीं कभी ज़मीनी स्तर पर मौके का मुआयना करने जाएंगे, तो शायद आपकी मानवता आपकी आंखों से आंसू बहाने को मजबूर करेगी। बात है बाहरी दिल्ली में स्थित सिंघु गांव की। जहां पर दिल्ली के अन्य विद्यालयों की तरह इस विद्यालय में भी कक्षा 1 से 8वीं तक के बच्चों के लिए मिड डे मील की व्यस्था है।
11वीं कक्षा के पंकज अपनी बात को हमसे साझा करते हुए बताते हैं, “जब मैं सातवीं कक्षा में था, तब हम सभी को स्कूल से ही खाना मिलता था। हम भूखे रहते थे। मां दिन में कुछ नहीं पकाती थीं। मैं और मेरे भाई स्कूल में ही खाते थे। सभी बच्चों को घर से प्लेट लाने को कहा जाता था। मैं भी ले जाता था। एप्रैल का महीना था।
सभी बच्चों की तरह मैं भी खाना लेने के लिए लाइन में लगा था। विद्यालय में दलित बच्चों की अलग लाइन लगाई जाती थी। जब मेरा नंबर आया तो मेरी प्लेट से खाना परोसने वाला चम्मच ज़रा सा टच हो गया। उसी एक पल में ट्रैक्टर पर बैठी खाना बांटने वाली आंटी ने मेरे भूखे पेट पर लात मार दी। बोली तूने कलछुल गंदा कर दिया। हट यहां से चमार कहीं का। उस दिन मैंने खुद को पहली बार कोसा था और खुद को मारा भी था। उस दिन के बाद से मैंने कभी उस लाइन में लगकर खाना नहीं खाया। बेशक मेरी आतें सूख चुकी थीं भूखे रहकर।”
वहीं एक और रिपोर्ट के अनुसार मैंने यूथ की आवाज़ की तरफ से स्कूल के कुछ बच्चों का इंटरव्यू लिया। जिनमें से एक हैं दिनेश वाल्मीकि। वो इस समय 12वीं कक्षा में पढ़ रहे हैं। दोस्त उनको चमरौटी के राजा बुलाते हैं, वहीं टीचर उनको चिल्ला-चिल्लाकर बोलते हैं “गू राजा”। गू शब्द अक्सर मल के लिए गांव में इस्तेमाल किया जाता है।
“कभी-कभी जब स्कूल में अनुसूचित जाति के लिए स्कॉलरशिप आती है तो मेरे कक्षा अध्यापक मुझे यही कहकर पुकारते हैं कि गू राजा जी कहां हैं? आज उनके लिए सरकार ने कुछ भेजा है। उनकी ये बात सुनकर मुझे रोना भी आता है और गुस्सा भी। मुझे समझ नहीं आता कि इतने सभ्य समझे जाने वाले अध्यापक भी ऐसी ओछी और गिरी हुई बात करते हैं। ये असमानता ही है।”
समाजशास्त्र से बारहवीं करने वाले दिनेश आगे बताते हैं कि उनके समाजशास्त्र के शिक्षक अक्सर उनसे कहते हैं “समाजशास्त्र पढ़कर तुम अपना उद्धार करने की सोचते होगे। दलितों के लिए लड़ोगे? ऐसे ही एक भीमराव जी भी थे जो चमारों और भंगियों के लिए लड़ते-लड़ते दुनिया से विदा हो गए मगर समाज में बदलाव नहीं आया। ये सब भगवान ने बनाया है। कुछ तो कुकर्म रहे होंगे तुम्हारा बाप-दादा के जो इस जन्म में दलित बनकर जन्म लिया है।”
उनकी ऐसी बातें सुनकर मेरे सपने और मेरी छवि छिन्न-भिन्न हो जाती है। मैं अक्सर टूटकर रोने लगता हूं। मैं ईश्वर से यही कहता हूं, कि जैसे उनके हाथ, पैर, सिर हैं वैसे ही मेरे पास भी हैं। फिर किस बात की असमानता?”
ऐसे पंकज और दिनेश सिर्फ यहीं पढ़ने भर के लिए मौजूद नहीं हैं। समाज में उतरिये और देखिए ऐसे न जाने कितने पंकज और दिनेश होंगे जो जातिवाद के शिकार होंगे। जिनका विश्वास मानवता से उठ गया होगा। हाथ बढ़ाने का समय तो आ गया है।
हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम दलित नहीं तो इसके बदलाव में आगे क्यों आएं? मगर कभी-कभी मानवता की खातिर आपको अपना स्वार्थ त्यागना पड़े, तो कोई हर्ज़ नहीं। जातिवाद को जड़ से उखाड़ फेंको और दलित शब्द कहीं ज़मीन में दफना दो।
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