प्राचीन काल से आज तक कोई भी नया शहर बसने के पीछे सबसे बड़ा कारण पानी की उपलब्धता रही है, जो पहले नदी के रूप में फिर सहायक नदी, उसके बाद नरिया के रूप में होता हुआ आया है। यही वजह है कि हमारे देश में गांव शहरों के मुकाबले कितने समृद्ध और खुशहाल हैं, यह उनकी भौगोलिक स्थिति देखकर समझा जा सकता है।
आज के वर्तमान परिदृश्य में स्विमिंग पूल से ही बच्चों को संतोष करना पड़ता है। उन्हें नदी सिर्फ पर्यटन के रूप में देखने को मिलती है। हम सभी जानते हैं कि नदी प्राकृतिक होती है परंतु, अब इसी के साथ-साथ हमें डैम, नहरें भी देखने को मिलती हैं। इनको सरकार ने बड़ी चालाकी और अपनी ज़रूरत से बनवाया है।
इसी के आधार पर किसानों से आबासी यानी पानी के बदले ‘कर’ वसूला जाने लगा। यहां तक सब ठीक था लेकिन, इस आबासी के चक्कर में सरकार ने सभी खेत, कुएं, नदी, नाले पर कर वसूलना शुरू कर दिया। यहां कर वसूलने के सम्बन्ध में तर्क दिया गया कि यह सब इसलिए सही चल रहे हैं कि हमने डैम से पानी छोड़ा, जबकि यह नहीं माना कि प्रकृति से पानी मिल रहा था।
उसी के आधार पर पूर्व में गांव भी बसाए गए। सरकार ने हर साल अपने टारगेट बढ़ाए और लोगों से ज़्यादा कर वसूला। अब पूरे गांव से कर लिया जाता है।
आज भी किसान और किसानों के नेता इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोलते हैं। यह भी सोचने की बात है कि वह इस मुद्दे को अब तक समझ ही नहीं पाए हैं। सवाल यह भी उठता कि उनका नहीं बोलना, कहीं उनकी राजनीतिक मजबूरी तो नहीं है। हर जगह नदी के नाम पर सिर्फ कुछ पानी ही नसीब है, उस पर भी आबासी देना अनिवार्य है।
दरअसल, किसान सिर्फ एक मुद्दा नहीं है ना ही यह सिर्फ बीज, ब्याज़ या सब्सिडी से पूरा किया जा सकता है। इस लिए किसान को समृद्ध बनाने के लिएहमें अपनी प्रकृति को प्राकृतिक बनाने की ज़रूरत है।
अत: सबसे पहले यदि किसी चीज़ को फ्री करने की ज़रूरत है तो वह है प्रकृति। क्योंकि उसे बनाने वाली सरकार नहीं है ना ही सरकार को प्रकृति के उपयोग पर प्रतिबंध लगाकर कर वसूलने या उसका दोहन करने की छूट प्राप्त है।
रेत नदी का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी, जो अब नीलामी और खनन की भेंट चढ़ चुकी है। इन सब मसलों पर जनता की तरफ से भी सरकार को मूक सहमति नज़र आती है, क्योंकि हर किसी को इसमें तात्कालिक फायदा दिख रहा है। इसलिए इस जगह हर कोई वर्तमान में ही जीना चाहता है।
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