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“कोविड लॉकडाउन से आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी, भुखमरी के खतरे में आदिवासी समुदाय”

आदिवासियों के जीवन पर कोरोना लॉकडाउन का प्रभाव

कोविड-19 महामारी की वजह से हमारे देश भारत में लॉकडाउन के कारण अधिकांश लोगों को किसी ना किसी प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। देश में लॉकडाउन होने के कारण समस्त आर्थिक गतिविधियों पर विराम लगा हुआ है। मज़दूरों, पिछड़ों, गरीब और आदिवासी वर्ग के लोगों पर इस तालाबंदी का सबसे ज़्यादा असर देखने को मिल रहा है। लॉकडाउन के कारण इन लोगों के सामने आर्थिक परेशानी खड़ी हो गई है, जिसके कारण इन लोगों को दो समय का राशन भी नसीब नहीं हो पा रहा है।

लॉकडाउन के कारण किसी को बाहर जाने की अनुमति नहीं है। एक गाँव का दृश्य

इसके कई कारण हैं- पहला, लॉकडाउन के कारण देश में समस्त आर्थिक गतिविधियां पूर्ण रूप से बंद हैं, जिससे लोगों को काम नहीं मिल पा रहा है और दूसरा प्रमुख कारण है कि जीवन में काम आने वाली रोज़मर्रा की आवश्यक दैनिक वस्तुओं की कीमतें बढ़ गई हैं। देश में खाद्य और घरेलू वस्तुओं की आपूर्ति श्रृंखला लॉकडाउन से बुरी तरह प्रभावित हुई है। छत्तीसगढ़ के कई गाँव राज्य की राजधानी रायपुर से रोज़मर्रा के आवश्यक दैनिक खाद्य-पदार्थों की खरीद करते हैं, लेकिन अब यह व्यवस्था बहुत धीमी हो गई है। इसके परिणामस्वरूप, खाद्य-पदार्थों की कीमतें बढ़ गई हैं। बढ़ती हुई कीमतों और रोज़गार संकट के बीच ग्राहकों(इन वर्गों के लिए) रोज़मर्रा की आवश्यक सामग्री खरीदना भी मुश्किल हो गया है।

गरियाबंद ज़िले के छुरा ब्लॉक में कई आदिवासी गाँव हैं, जहां लोगों को ना तो रोज़गार मिल पा रहा है और ना ही उन्हें उचित कीमतों पर सामान मिल पा रहा है। सप्लाई चेन में आई बाधाओं से आवश्यक वस्तुओं जैसे दाल, आटा, तेल, चीनी इत्यादि के दाम बढ़ गए हैं। आलू की कीमत 13 रुपये से बढ़कर 30 रुपये हो गई है। खाद्य-तेल की कीमत 130 रुपये थी, लेकिन अब इसे 160 रुपये में बेचा जा रहा है। प्याज 20 रुपये से बढ़कर 40 रुपये और दाल की कीमत 100 रुपये से बढ़कर 130 रुपये हो गई है।

ग्राम लादाबाहरा के दुकानदार श्रीमान हुमन लाल सोरी

श्री हुमन लाल सोरी

लादाबाहरा गाँव में किराने की दुकान चलाते हैं। उनका कहना है कि वे अपने ही गांव के ग्राहकों के लिए आवश्यक राशन की पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि दुकान में पर्याप्त सप्लाई नहीं हो पा रही है और महंगाई बहुत बढ़ गई है। कोविड -19 के लॉकडाउन के कारण सबसे ज़्यादा परेशानी सामान लाने में हो रही है। उनका कहना है कि सामान की महंगाई के कारण वे ग्रामीण क्षेत्रों में आवश्यक राशन और अन्य सामानों की पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। अमीर लोग तो अपना परिवार चला रहे हैं, लेकिन हम जैसे आम लोगों को आवश्यक राशन लेते समय दोगुना पैसा देना पड़ रहा है जिसके कारण हम लोग महंगाई से परेशान हैं।

मजदूरों की समस्याएं

छत्तीसगढ़ के गरियाबंद ज़िले के छुरा ब्लॉक में कई आदिवासी गाँव हैं, जहां कई तरह की समस्याएं पैदा हो गई हैं। पहली, इस क्षेत्र के आदिवासी अपने घरों को चलाने के लिए दैनिक मज़दूरी पर निर्भर हैं। अब वह काम बंद हो गया है। इस कारण उन्हें काफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। दूसरा संकट ये है कि जो आदिवासी खेती करते हैं और अपने खेतों में फसल उगाते हैं, वे अब अपनी उपज को बेच नहीं पा रहे हैं।

मिस्त्री शीलन ठाकुर को अपना घर चलाने के लिए पर्याप्त काम नहीं मिल पा रहा है

शीलन ठाकुर (आयु 43)

एक मकान मिस्री हैं, जो ग्राम रूवाड के रहने वाले हैं। लॉकडाउन के कारण मज़दूरों को हो रही कई दिक्कतों के बारे में बताते हुए, शीलन ठाकुर कहते हैं कि जो व्यक्ति रोजाना मज़दूरी काम करके अपने परिवार चलाते हैं, आज महंगाई बढ़ने से उनकी समस्याएं और भी बढ़ गई हैं। मैं एक दिन की मज़दूरी के काम में रोजाना 150 से 300 रुपये तक पैसा कमा लेता था, लेकिन इस लाॅकडाउन में मेरी कोई कमाई नहीं हो पा रही है। जिसके कारण हमारी आर्थिक स्थिति बहुत कमज़ोर पड़ती जा रही है।

पहले लोग काम की तलाश में इधर-उधर जाकर मज़दूरी करते थे, परंतु कोविड-19 लॉकडाउन के कारण उन्हें काम मिलना बंद हो गया है। आदिवासी लोगों के लिए चावल, चना की व्यवस्था तो सरकार कर रही है, लेकिन दाल, साग-सब्जी व तेल-मसालों के लिए उन्हें इस लाॅकडाउन में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। लाॅकडाउन के कारण कई आदिवासी परिवार भूख से जूझ रहे हैं।

 

मोहित कुमार जगत खेती किसानी करते हैं। उनकी फसल मंडी तक नहीं पहुंच पा रही है।

मोहित कुमार जगत (आयु-22)

एक किसान हैं, जो ग्राम लादाबाहरा के निवासी हैं। इनका कहना है कि छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में अधिकतर लोग अपने घरों पर अनेक प्रकार की कलात्मक वस्तु बना कर बाज़ार में बेचते हैं या फिर खेती-किसानी और मजदूरी करके पैसे कमाते हैं। लाॅकडाउन के कारण इस समय ना ही लोगों की बनाई हुई चीज़ें बिक पा रही हैं और ना ही इस समय मज़दूरों को काम मिल पा रहा है।

छोटे किसानों को अपनी साग-सब्जी को बेचने में या फिर बाहर मंडी में भेजने में काफी दिक्कतें आ रही हैं। आस-पास की दुकानों में राशन भी खत्म हो गए हैं। कुछ परिवार ऐसे हैं, जो इस संकट से निपटने के लिए अपने घर पर सब्जियों की खेती करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें बीज उपलब्ध नहीं हैं। लॉकडाउन में अंदरूनी ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब लोगों को और भी ज़्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

हम जानते हैं कि सरकार द्वारा हर एक परिवार को चावल, चना मिल जाता है, लेकिन साग-सब्जी और अन्य ज़रूरी सामान जैसे- दाल, तेल, मसाले, फल, दूध, और दवाइयों आदि की व्यवस्था करने में हमें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। बड़े परिवारों के लिए 35 किलो चावल पर्याप्त नहीं होता है। लॉकडाउन की वजह से आदिवासियों को होने वाली दिक्कतों को देखते हुए सरकार को कोई अच्छा ठोस कदम उठाना चाहिए, ताकि आगे उन्हें फिर कभी ऐसी मुश्किलों का सामना करना ना पड़े।

अफ्रीकी और दलित मामलों के हार्वार्ड स्कॉलर सूरज येंगडे कहते हैं कि कोरोना का असर जहां इन सारे मामलों पर सीधी तरह दिख रहा है। हमें इसके राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभाव को भी पूरी तरह नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। येंगडे कहते हैं कि प्रवासी मज़दूरों में अधिकतर पिछड़े, दलित और आदिवासी समाज से ताल्लुक रखते हैं और उन्होंने गांव-घर इसलिए छोड़ा था क्योंकि वो जातीय हिंसा, ग़रीबी जैसी समस्याओं से निजात चाहते थे, आज समय ने उन्हें वापिस फिर वहीं लाकर खड़ा कर दिया है। लॉकडाउन की वजह से आदिवासियों को होने वाली दिक्कतों को देखते हुए सरकार को कोई अच्छा ठोस कदम उठाना चाहिए, ताकि आगे उन्हें फिर कभी ऐसी मुश्किलों का सामना करना ना पड़े।

नोट- यह लेख पहली बार आदिवासी लाइव्स मैटर पर प्रकाशित हुआ था। 
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