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“नवरात्रों में कन्या पूजन और समाज की दकियानूसी सोच”

"नवरात्रों में कन्या पूजन और समाज की दकियानूसी सोच"

हमारे देश में नवरात्र लगते ही घर-घर में जौ के बीच कलश रख देवी का आवाहन कर पूजा होती है। फिर नवें दिन नवमी या रामनवमी के रूप में समाप्त होते हैं। इस पूरे अनुष्ठान में एक मुख्य अंग है कन्या पूजन इसमें कुंवारी कन्याओं की पूजा की जाती है। शहर के अपेक्षा गाँवों में फिर भी कन्या मिलना और उनका आपके घर आना आसान है।

अधिकतर शहर के लोग मंदिरों में जाकर वहां कन्याओं को प्रसाद और कुछ दक्षिणा दे के आ जाते हैं। इसमें कोई बड़ी बात नहीं हैं पर, क्या आपने कभी सोचा कि आज जिस तरह हम स्वयं को समाज के रूप में सामाजिक आर्थिक उन्नत मानते हैं, तो वास्तव में क्या हम एक समाज के रूप में सामाजिक रूप से उन्नत हैं?

‎हम मंदिरों में जब इन लड़कियों देवियों को पैसों के लिए लड़ाई, छीनाझपटी करते हुए देखते हैं तो मन बड़ा दुःखी होता है। हम अक्सर मंदिर, मस्जिद जाते हैं, वहां हम मंदिर के पुजारी एवं वहां रखे दानपात्र में हम कुछ रुपये डालना नहीं भूलते हैं।

हमारे तथाकथित सभ्य समाज का दोगला चेहरा

लेकिन, हमारी नज़र मंदिर के बाहर बैठी कन्याओं जिन्हें हम देवी मानते हैं उन पर नहीं पड़ती है, शायद हम उस समय उन्हें देवी के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते हैं। अगर हम कुछ रूपये या खाने-पीने का सामान उन्हें देना भी चाहें तो वहां उनमें रुपयों और खाने को लेकर आपस में होने वाली लड़ाई को देखकर भी नहीं दे पाते हैं।

‎क्या हम एक समाज के रूप में मिलकर ऐसे अनाथ बच्चों के लिए कुछ नहीं कर सकते हैं! जैसे- इन्हें गोद ले कर इनकी पढाई- लिखाई का खर्चा उठा सकते हैं या इनके जीवन को एक बेहतर दिशा दे सकते हैं। क्या केवल हम नवरात्रों के दिन ही इन्हें देवी समझते हैं? हम अपने आस-पास के अनाथालयों में जाकर वहां रहने वाले अनाथ बच्चों के हितों के लिए धन राशि दे सकते हैं या उनके लिए खाने-पीने की वस्तुएं उपलब्ध करवा सकते हैं। लेकिन, हम वहां जाते नहीं हैं? क्यों?

समाज में फैली रूढ़िवादी एवं दकियानूसी सोच

अक्सर एक बात अधिकांशत लोग कहते हैं कि अनाथ आश्रमों में रहने वाली बच्चियों की हमें धर्म और जाति  मालूम नहीं होती है, अगर वे गैर हिन्दू बच्चियां हुईं तो क्या नवरात्रों में वह मान्य होगा? पंडितों से भी पूछने पर कि  क्या गैर हिन्दू कन्या देवी के रूप में पूज सकते हैं? इस प्रश्न पर उनका मुंह ऐसे हो जाता है जैसे उन्होंने कोई बेस्वाद वस्तु खा ली हो और इस पर उनका जवाब होता है कि ऐसे कैसे गैर हिन्दू को हम हमारे देवी-देवताओं के रूप में दर्जा दे सकते हैं?

‎हम नवरात्रों में देवी पूजन के लिए अपने घरों पर सिर्फ उन कन्याओं को बुलाते हैं जो सम्पन्न घरों से सम्बन्ध रखती हों और जो हल्का सा प्रसाद चखती हैं, क्योंकि उन्हें कई और घरों में प्रसाद लेने जाना होता है।‎ ऐसे ना जाने कितने ही बच्चे-बच्चियां सड़कों, मंदिरों के दरवाजों, सड़क किनारे बस्तियों में खाने के अभाव में भूखे सोते हैं। ‎यह है समाज तथाकथित सभ्य समाज की असल असलियत। जरा सोचिए कि क्या हम देवी की उपासना  सही रूप में कर रहे हैं?

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