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फिल्म : तमाशा (फिल्म रिव्यु का एक नया अंदाज़)

"फिल्म : तमाशा (फिल्म रिव्यु का एक नया अंदाज़)"

फिल्म तमाशा में लड़का वेद है और लड़की का नाम तारा। दोनों बचपन मे पढ़ी एक कॉमिक के काल्पनिक शहर कोर्सिका में मिलते हैं। कोर्सिका यानी हम गरीबों का बम्बई है। वेद में आवारापन तो है ही लेकिन उसका पागलपन तारा के लिए ग्रैविटेशनल फोर्स का काम करता है। वह वेद की ओर खिंची चली आती है।

बात वी आर जस्ट फ्रेंड की

इन युवाओं की पार्टी-शॉर्टी में दवा-दारू, चिल्लम सब होता है और दोनों के इस रिश्ते का नाम होता वी आर जस्ट फ्रेंड मतलब दोनों के लिए ही विन-विन सिचुएशन। इसे कॉन्ट्रैक्ट इश्क भी कह सकते हैं। खैर, वेद का यह बचपना और तारा में उसे एक्सेप्ट करने की खूबसूरती ही है जिसने मुझे इस फिल्म को पूरा देखने के लिए बिठाए रखा। वेद प्यार करता है तो तारा इश्क।

दोनों पर लिखने के लिए क्रेडिबिलिटी चाहिए, जो मैं बहुत पहले ही खो चुका हूं चूंकि मेरा मानना रहा है कि इश्क में किये सारे ट्रेडिशनल वादों का शीघ्रपतन हो ही जाता है। इसलिए दिल की बातें मुझे सिर्फ लफ्ज़ों की धोखेबाज़ी लगती है। 

वेद और तारा कोर्सिका से वापस दिल्ली आ जाते हैं इस वादे के साथ कि फिर हम कभी नही मिलेंग और अपनी-अपनी ज़िंदगी में खो जाते हैं। अकॉर्डिंग टू एन्टी रोमियो स्क्वाड एक लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते हैं। यही फिलॉसफ़ी यहां भी काम करती है। वेद के मिलने से तारा की ज़िंदगी में खुशियों की चरस बुव जाती है, वह वेद से मिलने के लिए दिन रात दौड़-धूप करती है। वेद आखिर दिल्ली के एक होटल में मिल भी जाता है, लेकिन ‘अब का वेद टाई-बेल्ट version 2.1 वाला वेद था यानि स्टॉप, पुश, स्माइल प्लीज़, हाऊ सो क्यूट, स्टैंड अप, मूव फास्ट वाली ज़िंदगी का वेद।

तारा एक नार्मल रूटीन वाले आदमी से प्यार नहीं करती थी। उसका वेद दूसरा था बेबाक, बिंदास, लापरवाह सा बस यही वाला वेद तारा चाहती थी। तारा वेद को रिजेक्ट कर देती है। वेद पागलों सी हरकत करता है, नौकरी छूट  जाती है। देखते-देखते वह बच्चों सी हरकतें करने लगता है, मानो उसमे बचपन वापस आ जाता है।

ज़िंदगी का कोई बैकग्राउंड नहीं होता

एक दौर आता है जब दुबारा से उनके शहर में मोहब्बत ज़िंदाबाद हो जाती है। नायक-नायिका मिलते हैं, किस करते हैं। बैकग्राउंड में धीमी आवाज़ पर एक इमोशनल ट्यून शुरू हो जाती है। ऐसी इमोशनल ट्यून ही हमें फिल्मों के प्रति खींचती हैं। हर बार आदमी रॉकस्टार, रांझना, तमाशा में खुद को बेपरवाह नायक के रूप में देखता है और फिल्म देखते-देखते ऐसी नायिका की तस्वीरें अपनी आंखों में बुनता है। जो उसके सबसे गंदे जोक पर हंसे, जो उसकी सबसे घटिया शायरी पर भी वाह बोले यानि उसके ओरिजिनल वर्ज़न को उसकी नायिका स्वीकार्यता दे।

लेकिन, यह फिल्मों में ही हो सकता है या कोर्सिका में, क्योंकि ज़िंदगी का कोई बैकग्राउंड नहीं होता और ना ही हमारी ज़िंदगी कभी इमोशनल ट्यून्स के सहारे चलती है। कोर्सिका शहर असल दुनिया का शहर नहीं है। यहां बड़े जानवरों ने छोटे जानवरों का हक छीना है। चालाक आदमी ने जानवरों का, पूंजीपति ने किसान का, शहर ने कस्बों  का, विकसित देशों ने विकासशील देशों का यानी पूरी एक साइकिल है, जो दुनिया को एक कारखाना तो आदमी को उसकी मशीन बना देती है। जिसके बैकग्राउंड की ट्यून्स में चक-चक-चक की आवाज़ है।

इसलिए असल दुनिया के इश्क इतने रंगहीन हो चुके हैं। यहां प्लेसमेंट और कलेक्टर बनने तक के लिए इश्क टाले जाते हैं, तौले जाते हैं। नफा-नुकसान देखे जाते हैं। तारा और वेद दोनों नार्मल रूटीन ह्यूमन बन चुके हैं। प्यार से मेरा विश्वास उठ चुका है, परंतु इश्क में मेरा अब भी यकीन है।

इश्क में एक ज़िद है, ढीठपना है

अब भी कोचिंग में वेद तारा के लिए ही आता है। तारा के लिए ही चाचा से बाइक मांगकर लाई जाती है। फेसबुक इनबॉक्स के नोटिफिकेशन इस उम्मीद से खोले जाते हैं कि उनमें शायद तारा का मैसेज हो। व्हाट्सएप्प के नोटिफिकेशन में 6 चैट देखने के बाद दिल में हर रोज़ उम्मीद जगती है कि शायद तारा का एक मैसेज इन तमाम मैसेज में से एक हो।

हर अननोन नम्बर से आई कॉल को उठाने से पहले मन में उम्मीदें बंधती हैं कि शायद तारा का हो परंतु तारा कौन है? इस सवाल का जवाब खोजते-खोजते उमर 23 के पार हो गई। असल ज़िंदगी में तारा नहीं होती चूंकि ज़िंदगी तमाशा नहीं है। इसके बैकग्राउंड में इमोशनल ट्यून्स नहीं हैं चक-चक-चक मशीनों की आवाज़ है और तुम्हारा शहर तो कोर्सिका भी नहीं है वह तो दिल्ली है।

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