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“हिंदी का आमजनमानस में कम होता महत्व”

"हिंदी का आमजनमानस में कम होता महत्व"

हिंदी की जो वर्तमान हालत है, उसके बंटाधार के कारण खुद उसके लेखक ही हैं। जबकि वह कहते हैं कि आजकल कोई हिंदी को नहीं पढ़ता है, इस वजह से हमारी किताबें नहीं बिकती हैं वरना हम तो बहुत अच्छा लिखते हैं। उनका यह अच्छा लेखन ही आज हिंदी की इस दयनीय हालत का ज़िम्मेदार है।

दरअसल, यह लोग कुछ ज़्यादा ही अच्छा लिख देते हैं। इतना कि पढ़ने वाले को ही समझ ना आए कि वह पढ़ क्या रहा है? उसे लगता है कि वह शायद हिंदी नहीं किसी अन्य भाषा को पढ़ रहा है। अरे भाई!

किसी के लिखने का उद्देश्य ही यह होता है कि सामने वाले को तुम्हारा लिखा समझ आए। अगर सामने वाले पाठक को आपका लिखा हुआ समझ ही नहीं आ रहा है, तो तुम्हारे लिखने का क्या फायदा हुआ?

एक महाशय ने कविताएं लिखना शुरू किया। उसमें ऐसे-ऐसे भारी-भरकम शब्द कि पढ़ने वाला पढ़ते ही बेहोश हो जाए। मुझे वैसे भी कोई कविता ज़ल्दी समझ नहीं आती है, अब उस नए-नए बने कवि को समझने के लिए मुझे तो कई जन्म लेने पड़ेंगे। हम तो यही विनती कर सकते हैं कि भाई थोड़ा सरल लिख लो, ताकि मुझ जैसे मंदबुद्धि को भी कुछ समझ आ जाए।

अगर कोई सरल हिंदी में लिख दे तो कहा जाता है कि इस लेखक को हिंदी साहित्य के बारे में क्या पता? नए-नए लड़के हैं कुछ भी लिख देते हैं।

गहन अध्ययन के लिए किसके पास फुर्सत है?

हमारे साहित्य को समझने के लिए हमें बहुत गहन अध्ययन करना पड़ेगा। नतीजा यह निकलेगा कि उनकी किताबें किसी लाइब्रेरी के कोने में पड़ी रहेंगी या फिर आपस में ही यह लेखक एक-दूसरे को बधाई दे लेंगें कि भाई अच्छा लिखा है। किताबें नहीं बिकीं तो क्या हुआ? इसमें हमारा दोष थोड़ी है। यह तो भारत की जनता ही साहित्य को नहीं समझती और चेतन भगत को पढ़ती रहती है, फिर यह लोग चेतन भगत को दबा के 1 घंटा कोसेंगे।

शायद इनको पता ही नहीं है कि इनकी वजह से ही चेतन भगत प्रसिद्ध हुआ है। चेतन भगत ने उन पाठकों तक अपनी पहुंच बनाई, जो कि हिंदी लेखकों को पढ़ने वाले थे। 

जी बिल्कुल, यह सभी  पाठक हिंदी पट्टी के ही थे। अब यह लोग चेतन भगत को नहीं छोड़ने वाले हैं, क्योंकि एक तो इन्हें सरल भाषा में कुछ पढ़ने को मिला है और वह सरल भाषा हिंदी नहीं इंग्लिश है। यह अपने आप में गर्व महसूस करेंगें कि देखो हम भी एक इंग्लिश नॉवेल पढ़ सकते हैं। अब हिंदी साहित्य के रखवाले अपनी किताबों को सिर पर रखकर नाच लो, इन पाठकों को कोई फर्क नहीं पड़ता।

इन हिंदी के रखवालों ने हिंदी को इतना कठिन बना दिया कि सरकारी परीक्षा देने जाओ तो प्रश्नों के हिंदी अनुवाद को पढ़ने में इतनी परेशानी होती है कि परीक्षा-कक्ष में पेपर दे रहे स्टूडेंट्स उन्हें अच्छे तरीके से याद करते हैं।

एक तो पेपर देते समय वैसे ही परीक्षा-कक्ष में अभ्यर्थी के पास समय कम होता है, उस पर से हिंदी अनुवाद दिमाग खराब कर देता है, फिर उसका अंग्रेज़ी वर्ज़न देखना पड़ता है। उसी में आधा समय निकल जाता है। अगर आपका प्रश्न उस हिंदी अनुवाद की वजह से गलत हुआ तो उसकी ज़िम्मेदारी भी आपकी ही होगी, क्योंकि आखिरकार परीक्षा में अंग्रेज़ी वर्ज़न को ही सही माना जाएगा।

इसलिए सुधर जाओ हिंदी के रखवालो। तुम लोगों के कारण ही आज हिंदी थार के मरुस्थल में पड़ी हुई पानी मांग रही है और तुम लोगों ने यह पक्का प्रबंध कर दिया है कि उसको पानी तो मिलने से रहा। यही हाल रहा तो तुम्हारा वजूद भी मिट जाएगा और ना रहेगी हिंदी और ना रहेंगें हिंदी के रखवाले।

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