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“मुझे सहायता में उठे हर हाथ और जीवन की संभावना में निकली हर शब्द से उम्मीद है”

मैं पहली बार मणिकर्णिका सोलह साल की उम्र में गया था। किसी ने बोला कि हज़ारों सालों से यहां की आग नहीं बुझी। मैंने तब सोचा कि ये आग बुझेगी भी कैसे? मौत तो इंसानों की हज़ारों सालों से ही रही है, तो फिर जलाना कोई नई बात कैसे हो सकती है?

मणिकर्णिका और कभी न शांत होने वाली चिताएं

उसके बाद मैं मणिकर्णिका कितनी बार गया, इसकी गिनती अब याद भी नहीं। जब मन नहीं लगता था बनारस में, तभी रात को बिना किसी को बताए मोबाइल स्विच ऑफ करके चल देता था। कभी सुबह नींद जल्दी खुल जाती थी तो अस्सी से लेकर मणिकर्णिका तक की तटरेखा पैदल नाप देता था। मगर वहां जाने के बावजूद भी गंगा स्नान नहीं करता था और ना ही काशी विश्वनाथ के दर्शन करता।

ऐसी ज़रूरत ही महसूस नहीं होती थी। लगता था सारा दर्शन मणिकर्णिका पर खड़े होकर हो गया हो। भले ही जलती लाशों से आती गंध सर भारी कर देती थी लेकिन आधे घण्टे तो झेल ही लेता था मैं। उधर लकड़ी बेचने वाले बेफिक्र होकर जलाने का सामान और लकड़ी बेचा करते हैं। जलने वाली लाश के परिवार के मर्द जितनी जल्दी हो फूंक कर वापिस जाने को बेताब रहते हैं।

बरसात के दिन में पानी ऊपर चढ़ जाए तो लाशें मंदिरों की छतों पर फूंकनी पड़ती हैं। दरअसल मैं मृत्यु का सामना नहीं करता था। मैं एक बेकार पड़ी हुई ऑर्गेनिक कंपोज़ीशन के ठिकाने लगने की प्रक्रिया से रू ब रू होता था। फिर भी मैं मानता था कि इंसान का इस दुनिया में सफर खाक में मिल जाने तक होता है।

पता नहीं ये संयोगवश हुआ, अनजाने जोश में हुआ कि मैंने जानबूझकर किया। गलत किया या सही किया कि एक शख्स को मणिकर्णिका पर बैठकर ये बोल दिया कि हमारा सफर इसी मणिकर्णिका से शुरू होता है। तो इसमें शुरू होने और ख़त्म होने जैसा कुछ भी नहीं है। आखिरकार मेरी मोहब्बत खाकसार साबित हुई। मणिकर्णिका से फिर भी द्वेष तो होना नहीं था।

उस दिन कड़कड़ाती ठंड में घंटों वहां बैठा रहा। गंगा में नहाया और महादेव को याद किया। दम्भ भरा, कि महादेव! तुम मेरी पीड़ा तब तक नहीं समझोगे जब तक तुम्हें इन जलती हुई लाशों पर अपने तलवे जलाकर तांडव ना करना पड़ेगा। मैं भी देखूंगा कि तुम कैसे संहार करते हो, जब तुम्हारे अपने पैरों में छाले पड़े हों और हृदय में इतनी अग्नि धधक रही हो कि ध्वनियां शब्दों में परिवर्तित होने से पहले अश्रुओं में बदल जाएं।

सहायता में उठे हर हाथ से उम्मीद है

अभी कुछ देर पहले मुंबई की एक डॉक्टर का वीडियो देखा, जिसमें वो महामारी की स्थिति बताते-बताते फूट पड़ी। फिर भी उसने खुद को संभाला और अपनी पूरी बात रखी।

वो इंसानों को ज़िंदा रखना और देखना चाहती है। बनारस से खबरें आ रहीं कि डॉक्टर मर रहे हैं। बनारस में जो भी मेरे दोस्त और परिजन हैं सब दहशत में हैं। हर किसी के पास किसी ना किसी दोस्त या उसके परिजन के मृत्यु की खबर आ रही है। मैं ना चाहते हुए भी एक मर्मान्तक पीड़ा से घिरा जा रहा हूं।

मेरे सभी सौंदर्य, प्रेम और भय के प्रतिमान आपस में गुत्थम-गुत्था हो गए हैं। अपने ऊपर ग्लानि हो रही कि क्यों मैंने उस महिला को बुरा समझा जिसने मुझसे ये बोला कि वो अभी मुझसे ट्यूशन नहीं पढ़ सकती, क्योंकि परिस्थितियां सामान्य नहीं हैं।

फिर भी, मुझे उम्मीद है। मुझे इंसानों के सामूहिक विवेक और जीवटता से उम्मीद है। मुझे जीवन की संभावना में निकली हर ध्वनि और हर शब्द से उम्मीद है। सहायता में उठे हर हाथ और पीड़ा में बहे हर अश्रु से उम्मीद है। अपने इस आत्मकथात्मक प्रलाप तक से उम्मीद है।

हमारी लड़ाई नज़ीर बनेगी। हमारी हूकूमत नाकाम है और हमारा भरोसा उससे उठता जा रहा है और इसलिए भी हम समझेंगे कि हूकूमत हमारी जिंदगी और हमारे जीने के हुनर से ऊपर की चीज़ नहीं है। हम जीने के और भी तरीके जानते हैं। हम मौत को नहीं जानते मगर मोहब्बत को जानते हैं। हम एक दूसरे को सुन लेंगे। हम एक दूसरे को बचा लेंगे।

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