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“भारतीय मीडिया दलितों, अल्पसंख्यकों और विपक्ष विरोध का सबसे खतरनाक चेहरा है”

देश के अंदर तमाम प्रकार के मुद्दों पर मीडिया एक तरफा राय रख कर सरकार को वे चीज़ें करने को इशारा कर रही है, जो मोदी सरकार व मीडिया के पक्ष में होनी चाहिए। इसका असर आने वाले समय में बहुत घातक व भयावक हो सकता है और नतीजे दिखने भी लगे हैं।

दलितों के खिलाफ अत्याचार पर मीडिया की चुप्पी

देश में सबसे ज़्यादा पीड़ित इस समय दलित और वंचित समाज है। मीडिया में जिसकी सहभागिता 1 प्रतिशत भी नहीं है। हाथरस की दलित बेटी के बलात्कार को लेकर खबर में गोदी मीडिया ने दलितों के विपक्ष में खड़े होकर बता दिया कि उनके शोषण में इन्होंने अहम भूमिका निभाई है।

दलितों के खिलाफ अत्याचार की खबरें कभी भी मेनस्ट्रीम के चैनलों में नहीं आती। कभी जब कोई मामला बहुत बढ़ भी जाता है, तो वह मीडिया सरकार का बचाव करने और विपक्ष या दलितों के हित में बात करने वालों के खिलाफ प्रोपेगैंडा चलाने के लिए ज़रूर उतर जाती है।

हाथरस के अलावा भी ऐसे कई उदाहरण हैं।

मीडिया या साम्प्रदायिक मीडिया?

मीडिया सिर्फ दलितों के खिलाफ ही नहीं है, उससे भी ज़्यादा मुसलमानों के खिलाफ है। मुस्लिम समाज के खिलाफ मीडिया हमेशा ही षड्यंत्र करती है, जिससे ध्रुवीकरण का माहौल बने और सरकार को इसका पूरा फायदा पहुंचे। यह इशारा करता है कि इस धर्म पर चोट करने से सरकार को मजबूती मिलती है।

चाहे वह सीएए-एनआरसी का मुद्दा हो या बीते साल कोरोना की शुरुआत में मरकज का मुद्दा। कुछ भी हो तो मीडिया मामला द्वारा दोषी हमेशा मुसलमानों को ही ठहराया गया है। जिसे यह मोदी सरकार हिंदू-मुस्लिम के मुद्दों में उलझा कर बांटने में कई हद तक सफल भी रही है।

क्या कारण है कि आखिर ऐसा होता है?

ज़्यादातर चैनलों में बैठे मुख्य एंकर उच्च जातियों के साथ जातिवादी व धर्मवाद की मानसिकता से पीड़ित हैं और साथ ही संबंध भी रखते हैं। इसी कारण निम्न वर्गों की आवाज़ें मुख्य मीडिया का चेहरा बनने में काफी लंबे समय से असमर्थ दिखाई दे रही है। चाहे वह पालघर का मुद्दा हो, साधुओं की मौत का मुद्दा हो या अन्य कोई मंदिर या जाति का मुद्दा, मीडिया हमेशा निम्न वर्गों के खिलाफ माहौल बनाते हुए दिखाई दी है।

विपक्ष को लेकर मीडिया का रूख

विपक्ष के लोग चाहे वो राहुल गांधी हों, प्रियंका गांधी हों, या तेजस्वी यादव, जब-जब गरीब, दलित या अल्पसंख्यक समाज की आवाज़ उठाने का प्रयास करते हैं मीडिया उन्हें बदनाम करके दबाने का प्रयास करती है। सरकार के पक्ष में माहौल बनाकर दर्शाती है कि विपक्ष जाति व धर्म की राजनीति कर रहा है परन्तु होता बिल्कुल उल्टा है।

कभी भी ऐसा नहीं देखा गया जब गोदी मीडिया का कोई चैनल इस सरकार से कोई तल्ख सवाल पूछे। झूठी खबरें फैलाकर हर दिन सरकार का गौरवगान करते हैं और नाकामियों का ठीकरा भी विपक्ष पर ही फोड़ देते हैं। जैसे कोरोना वैक्सीन का मामला हो या किसान आंदोलन।

दोनों जगह भूमिका सरकार की है लेकिन मीडिया ऐसे दिखाती है जैसे राहुल गांधी उसपर फैसले लेने को सबसे अधिकृत व्यक्ति हैं और सारा दोष उन्हीं का है।

मीडिया की कैसी भूमिका होनी चाहिए?

देश कोरोना काल में ऐसी परिस्थितियों से जूझ रहा है, जो दर्दनाक और दिल दहला देने वाली है। दिनभर मौत का आंकड़ा दिखा-दिखाकर अगर यही मीडिया इस मोदी सरकार पर दबाव डालती कि सभी को वैक्सीन और इलाज समय पर मिले तो शायद ज़्यादा बेहतर परिणाम देखने को मिलता। मगर वैक्सीन आने से ही और बाद में भी बस मोदी जी को सारा क्रेडिट देने के लिए गोदी मीडिया जागती है और फिर सो जाती है।

सभी मीडिया विभागों को चाहिए कि वो खुद अपना हेल्पलाइन नंबर जारी करे एवं लोगों की मदद के लिए अपने चैनलों पर पारदर्शिता के साथ उनको दिखाए। अंत में यही कहूंगा कि सभी मामलों में कहीं सरकार मीडिया को बचाती दिखती है, तो कहीं मीडिया सरकार को। इस गठबंधन को तोड़ना बहुत ज़रूरी है। मीडिया को अपना असली चेहरा लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बनकर उभरना चाहिए।

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