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“बिहार की कागजी शराबबंदी बस सिर्फ अपराध और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है”

26 नवंबर, 2010 को बिहार के मुख्यमंत्री का शपथ लेने के बाद जब नीतीश कुमार अपने जनता दरबार में लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए बैठने लगे, तब उनके पास ऐसी महिलाएं बड़ी संख्या में आने लगीं जो शराब के नशे में की जाने वाली घरेलू हिंसा की शिकार थीं।

यही वह समय था जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का ध्यान महिलाओं की स्थिति को ठीक करने एवं उन्हें इस घरेलू हिंसा से छुटकारा दिलाने की तरफ गया। ठीक इसी समय नीतीश कुमार अपने लोकप्रियता के चरम पर भी थे तथा बिहार की जनता ने उन्हें विकास पुरुष एवं सुशासन बाबू के उपनाम से पुकारने लगी थी।

मुख्यमंत्री ने महिलाओं को घरेलू हिंसा वाली समस्या से छुटकारा दिलाने के लिए एवं अगले विधानसभा चुनाव में उनका वोट (जो कि बहुत ज़्यादा है) को फिक्स करने के लिए शराबबंदी का मुद्दा लेेेकर उनके बीच गए तथा खूब जोर-शोर से उसका प्रचार भी किया जिसका उन्हें भरपूर फायदा भी मिला।

शराबबंदी का लागू होना

साल 2015 में जब नीतीश कुमार पुनः मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने अपने चुनावी वादे को पूरा करने के लिए अप्रैल 2016 में “बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद अधिनियम 2016” लेकर आए। जिसे साल 2018 में संशोधित कर और कठोर बना दिया गया। इस कानून में इस बात का ज़िक्र है कि बिहार के किसी भी हिस्से में किसी भी प्रकार के मादक द्रव्य का विनिर्माण, इस्तेमाल, आयात-निर्यात, परिवहन, कब्जा, क्रय-विक्रय आदि करना दंडनीय अपराध होगा।

जब इस कानून के लागू होने की बात चल रही थी तब लोगों में, खासकर महिलाओं में काफी उत्साह देखने को मिला था। मगर जिस तरह से इसे लागू किया गया वह काफी निराशाजनक था और है भी। आज शराबबंदी का आलम यह कि यह बिहार में सिर्फ कहने भर के लिए ही है।

बंदी के बावजूद खपत ज़ोरों पर

खपत की बात करें तो यह पूरे राज्य में पहले की तुलना में बहुत कम नहीं हुई है। राज्य उत्पाद विभाग की मानें तो शराब बंदी से पहले बिहार में हर महीने लगभग 2 करोड़ 50 लाख लीटर शराब की खपत होती थी। आज यह आंकड़ा बहुत ज़्यादा कम नहीं हुआ है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2020 के अनुसार ड्राई स्टेट होने के बावजूद बिहार केे 15.5 प्रतिशत पुरुष शराब का सेवन कर रहे हैं। शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्र के संदर्भ में देखें तो यह आंकड़ा क्रमशः 14 प्रतिशत तथा 15.8 प्रतिशत है। जो शराब पीने वाले हैं उन्हें पीने के एवज में दो से तीन गुनी अधिक कीमत चुकानी पड़ती है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति भी कमज़ोर होती जा रही है।

इससे ज़ाहिर है कि बिहार के हर इलाके में शराब की उपलब्धता भरपूर है।

नहीं टूट रहा सिंडिकेट

शराबबंदी लागू होने के कुछ समय तक तो सब ठीक रहा लेकिन जैसे-जैसे समय बीता शहर से लेकर दूर-दराज़ के क्षेत्रों तक भी शराब की पहुंच बनने लगी। साल 2017 में यह पहुंच बहुत ही तेज़ गति से तब बनी जब इस अवैध धंधे में बड़े-बड़े गिरोह बन गए। यही वह समय था जब गाँव-गाँव तक शराब की होम डिलीवरी तक होने लगी।

इस अवैध काम में तस्करों का जो सिंडिकेट बना उसे तोड़ने में सरकार को अभी तक पूर्ण सफलता नहीं मिली है।

शराबबंदी के नकारात्मक प्रभाव

शराबबंदी के कारण बिहार के जन-जीवन पर व्यापक असर पड़ा है-

1.) आम लोगों को परेशानी-

शराबबंदी को लागू करने के लिए पुलिस पर बहुत दबाव है, जिसके कारण वह सड़कों एवं बाज़ारों में जांच- पड़ताल करती रहती है। इसका नतीजा यह होता है कि इससे आम लोगों को हमेशा दो-चार होना पड़ता है। वैसे बिहार और यूपी के पुलिस की छवि जग-ज़ाहिर है। पुलिस को देखकर राह चलते लोगों को यह लगने लगता है कि कहीं पुलिस उन्हें किसी चंदे के लिए न रोक ले।

2.) भ्रष्टाचार-

पहले की तुलना में अब राज्य की पुलिस तंत्र में भ्रष्टाचार ने अपनी जड़ें बहुत मजबूत कर लिया है। लोग शराबबंदी को पुलिस के अवैध कमाई का एक बड़ा जरिया मानने लगे हैं, जो काफी हद तक सही भी है।

आज बिहार में ऐसी खबरें आम हैं, जिनमें शराब के मामले में किसी को झूठे केस में फंसा कर जेल भेज दिया जाता है या फिर उससे रकम वसूल कर छोड़ दिया जाता है। मामले तो ऐसे भी आए हैं जिनमें यह देख गया है कि किसी व्यक्ति के नाम पर नाममात्र शराब दिखाकर उस पर झूठी प्राथमिकी दर्ज कर दी जाती है।

पुलिस तंत्र में ऐसे लोग पकड़े भी गए हैं जो खुद माफियाओं से मिलकर शराब बेंचवाने का काम करते थे। हालांकि, सरकार ने ऐसे लोगों पर कार्रवाई भी की है लेकिन वह नाकाफी है।

3.) अपराध-

बिहार में नीतीश कुमार द्वारा शराबबंदी एक ऐसा कदम था जिसके सहारे अपराध ने एक नया रूप धारण किया है। जिसने पूरे प्रदेश में अपहरण, हत्या एवं लूट आदि को भरपूर बढ़ावा दिया है। कहा जाता है कि अगर अपराध को नियंत्रित करना है, तो रोजगार (नौकरी) का सृजन होना चाहिए, यानी दोनों सीधे तौर पर एक दूसरे से जुुड़े हुए हैं।

नए युवा काम के अभाव में हैं और ऐसे ही युवा अपराध की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। तस्करी में तो ऐसे बच्चे भी संलग्न हो गए हैं, जो नाबालिग हैं तथा जिनकी उम्र अभी स्कूल जाने की है। पुलिस द्वारा तो कई बार महिलाएं भी इस अपराध में पकड़ी गई हैं।

4.) आर्थिक दुष्प्रभाव-

इसका आर्थिक दुष्प्रभाव भी बहुत व्यापक है। इससे राज्य को बहुत बड़ी मात्रा में राजस्व का नुकसान हो रहा है, जो आज लगभग 5 हज़ार करोड़ रुपए हैं। शुरू में यह लगभग ढाई हज़ार करोड़ रुपए आंका गया था। इसके साथ ही जो लोग चोरी-छिपे शराब पी रहे हैं, उन्हें दो से तीन गुनी अधिक कीमत देनी पड़ती है। इस प्रकार उनके परिवार का आर्थिक ढांचा बिगड़ रहा है।

शराबबंदी खत्म करने की मांग

पूरे राज्य में शराबबंदी का दुष्प्रभाव इतना व्यापक हुआ है कि सड़क से सदन तक अब इसे खत्म करने की मांग होने लगी है।

बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने इसे खत्म करने के लिए सत्ता पक्ष पर काफी दबाव बनाया है। बिहार की इस कागजी शराबबंदी, जिसका एक उद्देेश्य वोट बैंक को बड़ा करना था, ने राज्य को जिस प्रकार सामाजिक एवं आर्थिक तरीके से प्रभावित किया है वह बहुत ही निराशाजनक है।

शराबबंदी के निर्णय को काफी कुुुछ नेेेक भी कह सकते हैं लेेेकिन इसे बिना किसी पूर्व तैयारी एवं बेहतर मशीनरी के ठीक वैसे ही लागू कर दिया गया जैसे पूरे देश में लॉकडाउन को लागू किया गया। परिणाम यह हुआ कि राज्य के युवाओं को बड़ी संख्या में इसने अपराध के रास्ते को पकड़ने के लिए प्रोत्साहित किया।

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